नेहरू की वो 3 गलतियां जिन्होंने विभाजन की विभीषिका को जन्म दिया

एडविना को भारत क्यों लाया गया था?

Jawaharlal Nehru

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व्यक्ति गलतियों का पुतला होता है। जब विभाजन के घाव भारत के मन मस्तिष्क में उभरते हैं तो हम सदैव उन कारणों और उन लोगों को स्मरण करते हैं, जिनके कारण युगों युगों से एक हमारी माटी रातों रातों खंड-खंड हो गई। आपको क्या लगता है, जिन्ना ने इस देश को तोड़ा? नहीं, अल्लामा मुहम्मद इकबाल ने? नहीं। सर सैय्यद अहमद खान? कदापि नहीं। ये तो मात्र चिंगारी थे, जिन्हें समय रहते नष्ट किया जा सकता था पर जिसने उसे दावानल में परिवर्तित किया और जिसके कारण हमारे देश को विभाजन का दंश झेलना पड़ा, उसका दोष केवल एक व्यक्ति पर जाता है – जवाहरलाल नेहरू। विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के अवसर पर आज हम उन तीन महत्वपूर्ण कारणों से अवगत होंगे, जिनके पीछे न केवल भारत का विभाजन हुआ अपितु रातों रात भारत के कई क्षेत्र बलपूर्वक पाकिस्तान का हिस्सा बना दिए गए और लाखों करोड़ों की संख्या में हिंदुओं और सिखों को उनके मूल अधिकारों से वंचित कर दिया गया, केवल इसलिए ताकि नेहरू जैसा एक स्वार्थी, अंधलोलुप व्यक्ति सत्ता का सुख भोग सके।

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इस कथा की उत्पत्ति होती हैं 1937 के क्षेत्रीय चुनावों से, जहां कांग्रेस ने विजय प्राप्त की और उसे टक्कर देने वाली मुस्लिम लीग को किसी ने पानी भी नहीं पूछा। परंतु भारत छोड़ो आंदोलन के पश्चात स्थिति इसके ठीक उलट हो गई। द्वितीय विश्व युद्ध के समय कांग्रेस ने तय कर लिया था कि इन चुनावों में कोई भाग नहीं लेगा और 1939 में ही सभी ने अपने अपने पदों से त्यागपत्र सौंप दिया था।

परंतु इस अवसर का लाभ मुस्लिम लीग के सदस्यों ने उठाया क्योंकि उनके लिए यह किसी स्वर्णिम अवसर से कम नहीं था। जिन्ना ने तो 22 दिसंबर 1939 को ‘मुक्ति दिवस’ (Day of Deliverance) के रूप में मनाने का निर्णय किया, जिस दिन ‘मुसलमानों’ को कांग्रेस के अत्याचारी शासन से आजादी मिली। यहीं से विभाजन की नींव पड़नी प्रारंभ हो चुकी थी पर इसके बारे में एक्शन लेना तो दूर नेहरू ने चर्चा करना तक उचित नहीं समझा।

ध्यान देने वाली बात है कि यही एक कारण नहीं था, एक और भी कारण था जिसके पीछे भारत का विभाजन सुनिश्चित हुआ और जिसके पीछे आज भी नेहरू कोपभाजन के दोषी हैं और रहेंगे। वह थी उनकी सत्ता लोलुपता, जिसके लिए तब कथित रुप से कांग्रेस के सर्वेसर्वा मोहनदास करमचंद गांधी भी कम दोषी नहीं थे! जवाहरलाल नेहरू योग्य हो या नहीं नहीं परंतु कांग्रेस में शीर्ष पद पर आसीन रहने के लिए सदैव लालायित रहते थे और वो किन्हीं कारणों से गांधी के प्रिय भी थे।

परंतु ऐसा भी नहीं था कि उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं था। उनसे श्रेष्ठ कई लोग थे, जिनमें कई तो ऐसे थे जिन्हें जवाहरलाल नेहरू के समक्ष रख दें तो वो कुछ बोलने योग्य भी न रहें, जैसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस। परंतु स्वतंत्रता के समय वो गायब हो चुके थे और यदि वो जीवित थे तो उनका कोई अता पता नहीं था। फिर भी देश में प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे लोकप्रिय दावेदार नेहरू नहीं थे। कुछ अतिउत्साही लोग जिन्ना को पद पर देखना चाहते थे तो कुछ लोग गांधी को परंतु अधिकतम लोग चाहते थे कि सरदार पटेल पदभार संभालें।

RRR में गांधी और नेहरू की भूमिका को हटाने के विषय पर लेखक वी विजयेन्द्र प्रसाद ने इसी ऐतिहासिक विषय पर प्रकाश डालते हुए बताया था कि “जब अंग्रेज़ भारत छोड़कर जाने वाले थे, उस समय 17 PCC (प्रदेश कांग्रेस कमेटी) थी। गांधी तब स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख थे तो अंग्रेज़ों ने उन्हें कांग्रेस पार्टी से प्रधानमंत्री बनाने के लिए एक प्रमुख व्यक्ति चुनने को कहा। गांधी ने उन 17 पीसीसी को बुलाया और किसी एक को प्रधानमंत्री के रूप में चुनने के लिए कहा।”

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तब गांधी ने कहा था कि “प्रधानमंत्री बनने के लिए खादी पहनना काफी नहीं है, शिक्षा जरूरी है, विदेशी राष्ट्रों से बात करना जरूरी है, इसलिए मेरी पसंद नेहरू हैं।” गांधी ने 17 पीसीसी से अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम लिखने को कहा, पर आपको पता है परिणाम क्या था? 15 कमेटियों ने सरदार पटेल को चुना, 1 वोट खाली गया और 1 ने आचार्य जेबी कृपलानी को वोट दिया। नेहरू को एक भी वोट नहीं गया। अगर गांधी को लोकतंत्र का तनिक भी सम्मान होता तो वो निर्विरोध सरदार पटेल को देश का प्रधानमंत्री बनने देते। किन्तु उन्होंने पटेल से शपथ ले ली कि वो नेहरू को ही प्रधानमंत्री बनवाएंगे और उनके रहते कभी इस पद पर दावा नहीं करेंगे!

नेहरू की सत्ता लोलुपता इतनी विकट और उद्विग्न थी कि वह स्वतंत्रता के पश्चात भी जारी रही। सरदार पटेल के बेहद करीबी सचिव रहे एम के के नायर के अनुसार अपनी अंध लोलुपता के कारण ही जवाहरलाल नेहरू ने विभाजन को भारत पर थोपा और यही काम वो हैदराबाद तक घसीटना चाहता थे। लेकिन जब सरदार पटेल ने भारत के इस ‘सम्पूर्ण इस्लामीकरण’ का विरोध किया तो नेहरू ने उन्हें अपमानित करते हुए कहा, “आप एक सांप्रदायिक व्यक्ति हैं और मैं आपके कार्यों का भाग कभी नहीं बनूंगा।” तत्पश्चात सरदार पटेल ने भी शपथ ली कि वो नेहरू की निजी कैबिनेट मीटिंग का भाग तो कतई नहीं बनेंगे और मृत्यु तक उन्होंने उस वचन को निभाया।

परंतु कथा यहीं पर समाप्त नहीं होती। विभाजन के दंश के पीछे एक कारण और भी है, जिसके पीछे खुसफुसाहट बहुत होती है परंतु चर्चा बहुत कम – द माउंटबेटन फाइल्स। ये वो कड़ी है, जिसके पीछे आज भी न भारत सरकार खुलकर कुछ बोलने को तैयार है और न ही यूके और नेटफ्लिक्स पर ‘द क्राउन’ नामक शो में कुछ कहा गया, जिसके उल्लेख मात्र से ही कुछ समय के लिए सोशल मीडिया पर सनसनी भी मची थी –

परंतु नेहरू ने ऐसा भी क्या किया जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का सर शर्म से पानी पानी हो जाए? दरअसल, भारत के अंतिम वायसरॉय थे लॉर्ड लुईस एडवर्ड माउंटबेटन, जिन्होंने माउंटबेटन प्लान की नींव रखी, जिसके आधार पर भारत का विभाजन हुआ। परंतु इसे लागू कराया नेहरू ने और वो भी एक महिला के प्रभाव में, और वो महिला कोई और नहीं लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना ही थी, जिनके साथ नेहरू के संबंध थे। इन संबंधों के पीछे नेहरू ने नैतिकता, शिष्टाचार, संस्कृति, सब कुछ ताक पर रखा, यहाँ तक कि धर्म और नीति को भी और परिणाम निकला- भारत का विभाजन। यहां तक कि नेटफ्लिक्स का ‘द क्राउन’ भी इसका उल्लेख करने से पीछे नहीं रह पाया।

ऐसे में भारत का विभाजन वो त्रासदी थी जो स्वाभाविक नहीं थी परंतु रोकी जा सकती थी पर एक अधीर, हठी और कुटिल व्यक्ति की लोलुपता के पीछे लाखों, करोड़ों लोगों के घर, धर्म, सम्मान, सब एक रात में जलकर राख हो गए और रह गया तो सिर्फ एक वस्तु, सत्ता – नेहरू की सत्ता

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