कहा गया है न, जैसी संगत वैसी रंगत! एकदम सही कहा गया है। यूं तो ऐसा कहा जाता रहा है कि एक शिष्य को अपने गुरु के गुणों को आत्मसात करना चाहिए पर जेएनयू क्योंकि अपने में ही एक अलग मानचित्र को गढ़ता आया है, उसके मानदंड इस संदर्भ में भी अलग ही हो जाते हैं। हालिया उदाहरण है नयी-नयी उदारवादी बनीं निवर्तमान संघ के विचार को मानने वाली JNU कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय वामपंथियों का अड्डा रहा है
दरअसल, पीयर प्रेशर के चक्कर में कई तुर्रम खां पानी मांग जाते हैं फिर चाहे वो JNU जैसे शिक्षण संस्थान की कुलपति ही क्यों न हों। जी हां, आपने सही आंकलन किया, इस बार JNU कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित कुछ ऐसा कर बैठी हैं जिससे संघ विचारक खिन्न हैं तो वामपंथी और उदारवादी समूह में हर्ष का माहौल है। किसे पता था कि JNU के माहौल को बदलने गयीं शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित माहौल बदलने के बजाय स्वयं ही बदल जाऐंगी। यह सर्वविदित है कि अपनी स्थापना के बाद से ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय वामपंथियों का अड्डा रहा है। दरअसल, केरल विधानसभा के बाद यह अकेली ऐसी संस्था है जहां वामपंथी आवाज़ें प्रचुर मात्रा में गूंजती है। इतना ही नहीं, इस वातावरण में एक जन्मजात संघी भी कुछ महीनों के लिए परिसर में रहने के बाद उदार होने लगता है। जो कितना किस के लिए लाभकारी है और कितना दुष्परिणामों से भरा हुआ है यह आंकलन जनता को लगाना है।
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बता दें, हाल ही में केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा आयोजित बी आर अंबेडकर व्याख्यान श्रृंखला में मुख्य भाषण देते हुए जेएनयू की कुलपति शांतिश्री धूलिपुडी पंडित ने कहा, हिंदू देवता मानवशास्त्रीय रूप से उच्च जाति से नहीं आते हैं। विषय था, “डॉ बी.आर. लिंग न्याय पर अम्बेडकर का विचार: समान नागरिक संहिता को डिकोड करना।” इस पर बोलते हुए पंडित ने कहा कि, “हमारे देवताओं में क्षत्रिय तो हैं, लेकिन कोई भी देवता ब्राह्मण नहीं हैं। भगवान शिव को लेकर उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि कोई ब्राह्मण श्मशान में बैठ सकता है इसलिए भगवान शिव एससी या एसटी समुदाय के होंगे।”
अब यदि कुलपति महोदया ने यह बोल ही दिया है तो उनको सही करना भी बेहद ज़रूरी है नहीं तो वो ऐसी गलतियां करती जाएंगी और सारी गाज गिरेगी हिंदू धर्म पर। भगवान शिव को जाति के सांचे में उतारना जेएनयू वीसी की ओर से की गयी पूरी तरह से गलत बयानी और गलत चित्रण है। इसे झूठा कहना काफी नहीं है। वास्तव में यह विरोधीभासी है जिसको तथ्य के साथ झुठलाना आवश्यक है। शिवजी अन्य मनुष्यों की तरह न कभी उत्पन्न हुए और न ही वे लुप्त होंगे।
इसके अतिरिक्त, जेएनयू की वीसी जिस जाति मूल की बात कर रही थीं, वह वास्तव में गुणों पर आधारित है न कि जन्म पर। इसे मूल रूप से “वर्ण” कहा जाता है। वर्ण व्यवस्था पर हिन्दू समाज चलता रहा है, सभी वर्णों के आधार अलग हैं। चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अपने-अपने तथ्य हैं, आधार हैं। ब्राह्मण ज्ञान के लिए तो क्षत्रिय पराक्रम के लिए तो वैश्य, वित्त, वाणिज्यिक और कृषि व्यवसायों से जुड़े होते हैं। इसी तरह, जो उपरोक्त को छोड़कर अन्य नौकरियों का चयन करते हैं, उन्हें शूद्रों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
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शिव हर उस गुण के स्वामी हैं जो अन्य देवों में समाहित है
शिवजी ब्राह्मण प्रतीत होते हैं
अब पुनः लौटते हैं शिवजी के पास। शिव जी देवों के देव हैं। इसका मतलब है, वह हर उस गुण के स्वामी हैं जो अन्य देवों में समाहित हैं। जब देवराज इंद्र भगवान विश्वकर्मा को अपने षडयंत्रों से परेशान करते रहे, तो वे राहत के लिए ब्रह्मदेव के पास गए। ब्रह्मदेव ने इसका उल्लेख भगवान शिव से किया और उन्होंने अपने ज्ञान के माध्यम से देवराज को विनम्र करने का दायित्व संभाला। उन्होंने एक बच्चे का रूप धारण किया और देवराज को सिखाया कि उन्हें विनम्र होने की जरूरत है। इस तरह से शिवजी ब्राह्मण प्रतीत होते हैं।
ऐसा है शिव का क्षत्रिय कर्म
वहीं शिवजी को संहारक भी कहा जाता है। यह सामान्य ज्ञान है कि जब तक आपके पास ऐसा करने की शक्ति नहीं है तब तक आप कुछ भी नष्ट नहीं कर सकते। उनकी तीसरी आंख उनकी शक्ति का प्रतीक है। तारकक्ष, विद्युतुनमाली, कमलाक्ष, जालंधर, शंखचूड़ा, अंधकासुर, गजासुर, दुंदुबिनिर्रदा और यहां तक कि शनि देव ने भी उनके क्षत्रिय कर्म को देखा है।
वैश्य कर्मों में भी पारंगत हैं शिव
तीसरी सोच और स्थिति में शिवजी वैश्य भी थे ऐसा माना जाता है। एक बार देवी पार्वती ने उन्हें सोने के आभूषण प्रदान करने के लिए कहा। शिवजी ने उसे कुबेर से लेने को कहा। जब पार्वती जी ने पूछा कि वह बदले में कुबेर को क्या देंगी, तो शिवजी ने मस्तक पर लगी थोड़ी सी भस्म दे दी। देवी को संशय तो हुआ लेकिन जब इसे तुला पर मापा गया तो भस्म की तुलना में सोने का वजन बहुत कम था। अर्थात गुणा-भाग तक ही नहीं बल्कि शिवजी वैश्य कर्मों में भी पारंगत हैं।
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शूद्र समाज से मेल खाती स्थितियां
चौथी स्थिति वो स्थिति है जो शूद्र समाज से मेल खाती है अर्थात जो काम कोई नहीं करने को तैयार होता वो शूद्र करते हैं। इसी प्रकार एक बार ऐसी स्थिति प्रभु शिव के समक्ष आयी जब समुद्र मंथन के दौरान विष पीने के लिए कोई भी कदम उठाने को तैयार नहीं हुआ तो शिवजी ने निस्संकोच होकर विष पी लिया। एक प्रसंग में तो मां काली के चरणों के नीचे लेटने में भी शिव जी को कोई संकोच नहीं था। जाहिर है, यह दुनिया को मां के प्रकोप के विनाश से बचाने के लिए किया गया था।
यह सब बाद की बात है क्योंकि यह वर्ण व्यवस्था तो ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में मिलता है यानी यह प्रभु शिव से बहुत बाद में। ऐसे में उक्त सभी उदाहरणों को नजरअंदाज करते हुए शिवजी को एक श्रेणी में रखना बेतुका बयान था जो कुलपति की ओर से किया गया। यदि एक बार भी जेएनयू वीसी ने स्कन्द पुराण, शिव पुराण, विष्णु पुराण, मार्कंडेय पुराण, लिंग पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण, अग्नि पुराण, पद्म पुराण और 4 वेद जैसे सनातन ग्रंथों को पढ़ा होता, तो वह इस तरह की बेतुकी टिप्पणी नहीं करतीं। शेष जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी!
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