हिंद महासागर में अंतत: भारत ने अपना कब्जा जमा ही लिया

हाल ही में भारत ने समुद्र में अपनी ताकत का एहसास दुनिया को कराया है.

हिंद महासागर

Source- TFIPOST

कई बार वस्तु अपनी होते हुए भी जब तक आप उसपर अपना अधिकार व्यक्त नहीं करते, तब तक कोई आपका प्रभुत्व उसपर स्वीकार नहीं करता. ऐसा ही कुछ भारत के साथ हिंद महासागर में हुआ. हिन्द महासागर जो कि हमेशा से भारत का था, है, और रहेगा वहां कभी भारत ने उस तरह से अपना दावा नहीं किया जिस तरह से चीन दक्षिण चीन सागर में करता है. यही कारण था कि भारत के ही समुद्र में आकर चीन, अमेरिका और पाकिस्तान जैसे देश भारत को ही धमकाने का प्रयास करते रहें लेकिन अब स्थिति बदल गई है. ‘भारत एक शांति प्रिय देश है ये तो पूरी दुनिया ने देखा, पर हम शांति के लिए अपनी शक्ति का भी प्रदर्शन कर सकते हैं.’ ये शब्द हैं पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय पं. अटल विहारी वाजपेयी के और पहली बार भारत हिंद महासागर क्षेत्र में इस सिद्धांत का पालन कर रहा है. इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे हिंद महासागर में भारत अपनी पकड़ को मजबूत करने में लगा हुआ है.

हम आपको लेकर चलते हैं वर्ष 1971 में, जब भारत ने सोवियत संघ के साथ एक ‘शांति और मित्रता’ संधि पर हस्ताक्षर किए थे. यह संधि ही भारत और रूस के मजबूत रिश्तों की प्रारंभ बिन्दु थी. पाकिस्तान से आज़ादी पाने के लिए बांग्लादेश संघर्ष कर रहा था. उस संघर्ष के दौरन भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने 27 मार्च 1971 को निर्णय लिया कि भारत पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के लोगों के स्वतंत्रता संग्राम में पूर्ण समर्थन देगा क्योंकि उन्हें यह भारी मात्रा में आने वाले शरणार्थियों को भारत में लेने से बेहतर विकल्प लगा. हालांकि, यह बात अलग है कि आज भी बांग्लादेश से कई घुसपैठिये भारत में आये दिन घुसते रहते हैं.

ध्यान देने वाली बात है कि उस संघर्ष में अमेरिका और ब्रिटेन के साथ-साथ चीन भी पाकिस्तान के पक्ष में था. भारत के लिए केवल एक ही मार्ग बचा था कि वह सोवियत संघ को अपने पक्ष में कर ले. उस समय अमेरिका ने पाकिस्तान की सहायता के लिए अपने युद्धपोत भेजे, जिसमें यूएसएस एंटरप्राइज परमाणु विमान वाहक के साथ-साथ 70 लड़ाकू विमानों और बम वर्षकों को शामिल किया गया था. अमेरिका बंगाल की खाड़ी (हिंद महासागर के पूर्वोत्तर भाग) में, ब्रिटेन अरब सागर में, जबकि पाकिस्तान जमीन पर, भारत तीनों तरफ से घिर चुका था.

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अमेरिका और ब्रिटेन को उम्मीद थी कि चीन भी भारत पर हमला करेगा लेकिन चीन जानता था कि भारत को सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त है और इसलिए उसने भारत के खिलाफ कुछ नहीं किया. भारत ने रूस को सहायता के लिए संदेश भेजा और जवाब में रूस ने अपने युद्धपोत, सबमरीन और मिसाइलें भेजी और समुद्र में ही ब्रिटेन और अमेरिका को घेर लिया. आखिर में यह जंग भारत और पाकिस्तान के बीच हुई और युद्ध छिड़ने के 13 दिन बाद 16 दिसंबर को पाकिस्तान के कमांडर जनरल अमीर अबुल्ला खान नियाज़ी ने आत्मसमर्पण करते हुए अपनी सर्विस रिवॉल्वर भारतीय लेफ्टिनेंट-जनरल जेएस अरोड़ा को सौंप दी थी.

भारत और रूस की उस संधि को 50 वर्ष हो गए हैं और इन पचास वर्षों में बहुत कुछ बदला है. जहां रूस और भारत के रिश्ते और मजबूत हुए हैं वहीं, रूस और चीन भी नज़दीक आये है जो कि भारत के लिए थोड़ी चिंता का विषय है. कभी भारत के खिलाफ पकिस्तान को युद्धपोत भेजने वाला अमेरिका आज भारत से दोस्ती और मजबूत करना चाहता है और भारत में लूट मचाने वाले और कभी भारत के खिलाफ पाकिस्तान को समर्थन देने वाले ब्रिटेन में एक भारतीय मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री की दौड़ में खड़ा है. अब समय बदल रहा है और भारत अपनी पहचान पूरे विश्व में बना रहा है.

इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि चीन को किसी ने ‘न’ कहा है. यह बात अभी भी चीन के गले के नीचे नहीं उतर रही है लेकिन यही सच है. 11 अगस्त को एक चीनी शोधपोत श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर डॉक करना चाहता था, जिसे एक दशक पहले एक चीनी कंपनी ने बनाया था. यह कोई आम जहाज़ नहीं था बल्कि अंतरिक्ष और उपग्रह ट्रैकिंग सैटेलाइट से लैस एक ऐसा जहाज़ था जो जासूसी करने और ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने में इस्तेमाल किया जाता है. भारत ने इस बात पर जब चिंता व्यक्त की तो द्वीप देश श्रीलंका, जिसने कभी चीन के आगे चूं नहीं की उसने भारत को खुश करने के लिए  चीनियों से उनके जहाज़, युआन वांग 5 की यात्रा को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया.

श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर निर्माण कार्य में चीन ने भारी निवेश किया था और इस समय वह बंदरगाह श्रीलंका ने चीन को लीज़ पर दिया है. लेकिन श्रीलंका पिछले कुछ महीनों में यह भी भली भांति समझ गया है कि यदि आज भी उसके लोग जीवित हैं और उनके पास पेट भरने के लिए अन्न की व्यवस्था हो रही है तो इसका कारण भारत ही है. चीन ने तो उन्हें कर्जजाल में ऐसा जकड़ा है कि वे बर्बादी की कगार पर हैं लेकिन इस समय भारत उनके लिए प्राणवायु से कम नहीं है.

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भारत ने श्रीलंका के आर्थिक आपातकाल को कम करने और द्वीप देश को हरसंभव सहायता पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, इस द्वीप देश के लिए अपने अन्न-धन के भंडार खोल दिए. जबकि श्रीलंका को इस मुसीबत में डालने वाले चीन ने उनसे अपना पल्ला झाड़ते हुए किनारा कर लिया. श्रीलंका ने फरवरी में चीन से अनुरोध किया था कि वे श्रीलंका के ऋण का पुनर्निर्धारण करे लेकिन चीन ने उसकी इस मांग को ठुकराते हुए 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर के नए ऋण की बात कही जिससे कि चीन के कर्ज़ में डूबे इस देश को और डुबाया जा सके.

ऐसे में श्रीलंका भी आखिरकार समझ गया है कि यदि इस बार उसने भारत को धोखा दिया तो यह न केवल अपने सहायक की पीठ में छुरा घोंपने जैसा होगा और अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारने जैसा भी होगा. यही कारण है कि श्रीलंका के पीएम रानिल विक्रमसिंघे ने भी भारत को आश्वासन दिया है कि जहाज निर्धारित समय पर नहीं आएगा. जहां एक तरफ चीनी जहाज़ को रोक दिया गया वहीं दूसरी तरफ एक अमेरिकी जहाज़ ने “मरम्मत और रखरखाव” कार्य कराने के लिए भारतीय बंदरगाह में डॉक किया है जो भारत की तकनीकी दक्षता और भारत के कद को दर्शाता है. इसके साथ ही इससे भारत और अमेरिका के रिश्ते की प्रगाढ़ता भी उजागर होती है.

इसके अलावा रूस-यूक्रेन युद्ध के मध्य जब पूरे पाश्चात्य जगत ने रूस पर प्रतिबंध लगा दिए हैं, ऐसे समय में भारत उससे तेल खरीद रहा है और व्यापार कर रहा है. अमेरिका यदि आज भी 50 वर्षों पूर्व वाला ‘अमेरिका’ होता तो भारत पर नाराज़गी दिखाता और कई तरह के प्रतिबंध भी लगा देता लेकिन इसके ठीक विपरीत अमेरिका, भारत से मजबूत रिश्ते चाहता है. श्रीलंका, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश अब भारत के साथ खड़े हैं और भारत का पलड़ा भारी हो चला है. इसी के कारण आज भारत पूरे जोश और ताकत के साथ हिंद महासागर में नियंत्रण की रस्सियां खींच रहा है क्योंकि देश जानता है कि जिन्हें सबसे अधिक आपत्ति हो सकती है वे पहले ही हमारे साथ खड़े हो गए है. हिन्द महासागर का सही मालिक होते हुए भी कभी अपने अधिकार का इस्तेमाल न करने के कारण जो शक्ति फीकी पड़ गयी थी अब भारत उसे जगा रहा है और हिंद महासागर में आने वाले अपने विशेष हिस्सों में अपनी प्रधानता का दावा कर रहा है.

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