आत्महत्याएं, हत्याएं, स्वच्छंद किशोर और लापरवाह माता-पिता : भारत एक व्यवहारिक संकट के दौर से गुजर रहा है

माता-पिता को भी समझना होगा कि वो अपनी जिम्मेदारियों से कतई भाग नहीं सकते

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किसी भी बच्चे के संदर्भ में किशोरावस्था को जीवन का सबसे अस्थिर हिस्सा माना जाता है। दुर्भाग्य से यह ठीक वही उम्र है जब भारतीय किशोर व्यवहार संबंधी संकट से गुजर रहे हैं। इस दौरान बच्चे कई मानसिक चुनौतियों से होकर गुजरते हैं। ऐसी चुनौतियां जो उनके मन पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव डाल सकती हैं। आज के समय में तो किशोरों के लिए एक बड़ी समस्या इंटरनेट बी प्रतीत होती है भले ही उनके लिए इंटरनेट या फिर मोबाइल फोन सुख का सागर ही क्यों न हो।

आज के समय में किसी बच्चे की आक्रामकता किस सीमा को पार कर सकती है इसके आबास ही अंदर तक झंकझोर देता है। इसके कई-कई उदाहरण हाल फिलहाल में ही देखने को मिले हैं। आप सोच सकते हैं कि आजकल बच्चों में ऐसी आक्रामकता तक देखी गयी जिसमें कोई बच्चे अपनी मां को मारने डालता हो। कई अन्य मामलों में बच्चे अपनी आक्रामकता से खुद को नुकसान पहुंचा रहे हैं। किशोरों के बीच आत्महत्या की दर भी बड़े पैमाने पर है।

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क्या प्रौद्योगिकी का दोष है?

यदि आप ऐसी समस्याओं का कारण जानने के लिए इसकी तह तक जाएंगे तो एक सामान्य सा विषय सामने आएगा और वह है मोबाइल फोन और इसकी लत। लेकिन, इसके लिए सीधे तौर पर बच्चों को दोष देना हमारी अपनी जिम्मेदारी से बचने जैसा है। जी हां, इसके पीछे सबसे बड़ी वजह तकनीक है। इसे इस तरह से डिज़ाइन किया गया है कि यह आपको तुरंत डोपामाइन देता है जिसके परिणामस्वरूप सकारात्मक हार्मोन का निरंतर प्रवाह होता है। वह सकारात्मक हार्मोन आपकी लालसा और बढ़ाता है। लालसा लत में बदल जाती है और बच्चे धीरे-धीरे लती हो जाते हैं। आखिरकार, अगर आप सोफे पर बैठकर पबजी में कुछ लोगों को मारकर खुश हो जा रहे हैं तो आप 5 किमी क्यों दौड़ेंगे, क्यों परिश्रम करेंगे?

समझना कठिन नहीं है कि टेक-दिग्गजों के उदार पूर्वाग्रह के परिणामस्वरूप इंटरनेट पर समाज-विरोधी, परिवार-विरोधी, सभ्यता-विरोधी मूल्यों की बाढ़ आ गयी है। इंटरनेट निराशाजनक शून्यवादियों से भरा हुआ है जिनके पास निरंतर उपभोग के अलावा कोई नैतिक व्यवस्था नहीं है। वे बच्चों के दिमाग से खेलते हैं और उन्हें विस्तार से बताते हैं कि जब वे महंगे उत्पादों को प्रयोग में लाते हैं तो उनकी खुशी कही अधिक बढ़ जाती है। नतीजतन, अपनी उलजूलूल सेवाएं बच्चों को और अधिक खरीदने के लिए प्रेरित किया जाता है क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उन्हें खुश कर देगा। यही प्यास उन्हें अपराध की दुनिया में भेजती है।

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16 साल के लड़के ने अपनी मां को मार डाला था

इसी साल के जून महीने में एक 16 साल के लड़के ने ऑनलाइन गेम नहीं खेलने देने के कारण अपनी मां को मार डाला, यह खबर काफी सुर्खियों में थी। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक शाम को मां-बेटे में कहासुनी हुई, मां को लगा कि उसके बच्चे ने पैसे चुराए हैं। सुबह करीब 3 बजे लड़के ने अपने पिता की लाइसेंसी पिस्टल निकालकर उसे गोली मार दी। उसने उसके शरीर को एक कमरे में छिपा दिया और चुप्पी साध ली। लड़के ने अपनी छोटी बहन को भी धमकाया और उसे किसी को कुछ नहीं बताने का आदेश दिया। 3 दिनों तक उसने दुर्गंध को छुपाने के लिए रूम फ्रेशनर का इस्तेमाल किया।

जब अपराध को छिपाना असंभव हो गया तो वह पुलिस के पास गया और उन्हें बताया कि बिजली मिस्त्री ने उसकी मां को मार डाला है। लेकिन, पुलिस को उसके बयान में विसंगतियां मिलीं और जब पूछताछ की गयी तो लड़के ने सच उगल दिया।

इस घटना ने तब देश को झकझोर कर रख दिया था। बच्चे के पास सब कुछ था तो फिर उसने ऐसा क्यों किया। मोबाइल गेम ही एकमात्र कारण नहीं है, यह तो केवल एक तात्कालिक कारण हो सकता है लेकिन समझना होगा कि मामला तो कुछ और ही चल रहा है।

इसके अतिरिक्त, यदि आप आंकड़ों को देखें, तो आप पाएंगे कि अधिकांश किशोर अपराधी लड़के हैं। साक्ष्य स्पष्ट हैं कि अधिकांश विकासशील और विकसित जगहों पर लड़के ऐसी कई संकटों से जूझ रहे हैं। एक तरफ हम लड़कियों के विकास की बात करते हैं तो वहीं दूसरी ओर भूल जाते हैं कि लड़के लगभग हर उस मोड़ पर असफल हो रहे हैं जो एक सफल करियर का रास्ता प्रसस्त करते हैं। भारत में भी ऐसा ही होता दिखता है, विशेष रूप से विकसित स्थानों दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रो शहरों में।

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माता-पिता को जागरूक होने की जरूरत

इस पिछड़ाव और, किशोर बच्चों का समवयं के मन से ही लड़ने का जो दौर है, इंटरनेट पर अधिक से अधिक वक्त बिताने और हर वक्त फोन को निहारने की जो लत है उसके लिए केवल किशार ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि माता-पिता और समाज के अन्य वरिष्ठ सदस्य भी बराबर के जिम्मेदार प्रतीत होते हैं। करीब से देखेंगे तो पाएंगे कि आम तौर पर, माता-पिता के केवल 1 या 2 बच्चे होते हैं। वे उन्हें अपमानित करने से बहुत डरते हैं, उन्हें डांटने डपटने से बहुत डरते हैं। ऐसे में अनजाने में ऐसे बच्चे गलत काम या गलत रास्ते पर निकल जाते हैं। निश्चित रूप से ये बच्चे ही हैं जिन्हें अनुशासित तो होना ही चाहिए और अनुशासन लाने में ही आज के माता पिता चूक रहे हैं।

प्रश्न तो यह भी है कि माता-पिता अपने बच्चों को कैसे नियंत्रित करें भी तो कैसे जब करेंगे जब वे खुद अपने बच्चे के लिए आदर्श नहीं हैं। बच्चों से अपेक्षा है की जाती है कि वो सही व्यहवार अपनाएं लेकिन स्वयं माता-पिता आदर्श व्यहवार को नहीं अपनाते। माता-पिता खुद अपने मोबाइल फोन से जोंक की तरह चिपके होते हैं। 1 साल का बच्चा हुआ नहीं कि मोबाइल चाहिए, माता-पिता बच्चे को खाना खिला रहे हैं और साथ के साथ मोबाइल पर कुछ देखा भी जा रहा है। ऐसा करना न केवल बच्चे के विकास को रोकता है बल्कि 3 से 5 वर्ष की आयु के दौरान उसके समाजीकरण के लिए उसे कम योग्य बनाता है। 3 से 5 वर्ष की आयु वह समय होता है जब मनुष्य अपनी आक्रामकता के शीर्ष पर होता है और उसे समाजीकरण की बहुत आवश्यकता होती है।

आज के माता-पिता को समझना होगा कि बच्चों में बदलाव या फिर उनके विकास को विकार रहित रखने के लिए सबसे पहला कदम उनको ही उठाना होगा। पहला मोबाइल फोन की अपनी लत को को छुड़वाना होगा। घर में अनुशासन का माहौल बनाने के लिए पहले माता-पिता को अनुशासित होना होगा। घर-घर के बदलाव से समाज में बदलाव आएगा इस बात को हर उन माता-पिता को समझना होगा जो बच्चों से जुड़ी ऐसी किसी समस्याओं को देख और समझ पा रहे हैं।

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