टॉलीवुड एक और भव्य फिल्म बना रहा है, इस बार बंकिमचंद्र चटोपाध्याय के “आनंदमठ” पर

RRR ने वामपंथियों की पोल खोल दी थी और अब अगर 'संन्यासी विद्रोह' को मूर्त स्वरुप दिया जाएगा तो इनका क्या होगा?

1770

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इन दिनों टॉलीवुड यानी तेलुगु फिल्म उद्योग एक ऐसे मोर्चे पर निकल चुका है मानो भारतीय फिल्म उद्योग का तारणहार इन्हें ही बनना है. जो कार्य ‘बाहुबली’ से प्रारंभ हुई, वो तो अब रुकने का नाम ही नहीं ले रही है और अब तो ‘RRR’ के पश्चात प्रयोग, रचनात्मकता एवं नये कथाओं का अंबार सा लग चुका है. इसी बीच टॉलीवुड एक और फिल्म से भारत के इतिहास को भव्यता से चित्रित करेगी और यह है ‘1770’.  अब आप भी सोच रहे होंगे, यह कैसी फिल्म है?

असल में अश्विन गंगराजू के निर्देशन में 1770 नामक एक बहुभाषीय फिल्म प्रदर्शित होने वाली है, जिसका मोशन पोस्टर हाल ही में प्रदर्शित हुआ है. यह फिल्म प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं इतिहासकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ पर आधारित है. आनंदमठ की कथा ही संन्यासी विद्रोह पर आधारित है और उसी पर बनी यह फिल्म तेलुगु समेत बंगाली, हिन्दी, तमिल, मलयालम समेत अनेक भाषाओं में प्रदर्शित होने को तैयार है. इसे बाहुबली और RRR जैसे विश्वप्रसिद्ध कृति रचने वाले वी विजयेन्द्र प्रसाद ने ही लिखा है, जो हाल ही में राज्यसभा में मनोनीत भी किये गए. परंतु ये संन्यासी विद्रोह क्या था, जिसपर ‘आनंदमठ’ आधारित है?

दरअसल, 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के पत्र व्यवहार में कई बार फकीरों और संन्यासियों के छापे का उल्लेख किया गया है. 1770 ईस्वी में पड़े बंगाल में भीषण अकाल के बाद भी अंग्रेज अफसर कर वसूलने पर जोर देते हैं. इसके विरुद्ध सनातनी संन्यासियों ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. ये संन्यासी धार्मिक भिक्षुक थे पर मूलतः वह किसान थे, जिनकी जमीन छीन ली गई थी.

इन किसानों की बढ़ती दिक्कतें, बढ़ता भू-राजस्व, 1770 ईस्वी में पड़े अकाल के कारण छोटे-छोटे जमींदारकर्मचारी, सेवानिवृत्त सैनिक और गांव के गरीब लोग इन संन्यासी दल में शामिल हो गए. यह बंगाल और बिहार में पांच से सात हजार लोगों का दल बनाकर घूमा करते थे और आक्रमण के लिए ये छापामार यानी गोरिल्ला तकनीक अपनाते थे. आरंभ में यह लोग अमीर व्यक्तियों के अन्न भंडार को लूटा करते थे. बाद में सरकारी पदाधिकारियों को लूटने लगे और सरकारी खजाने को भी नुकसान पहुंचाने लगें. कभी-कभी ये लुटे हुए पैसे को गरीबों में बांट दिया करते थे.

समकालीन सरकारी रिकॉर्ड में इस विद्रोह का उल्लेख इस प्रकार है:- “संन्यासी और फकीर के नाम से जाने जाने वाले डकैतो का एक दल है जो इन इलाकों में अव्यवस्था फैलाए हुए हैं और तीर्थ यात्रियों के रूप में बंगाल के कुछ हिस्सों में भिक्षा और लूटपाट मचाने का काम करते हैं क्योंकि यह उन लोगों के लिए आसान काम है. अकाल के बाद इनकी संख्या में अपार वृद्धि हुई. भूखें किसान इनके दल में शामिल हो गए, जिनके पास खेती करने के लिए न ही बीज था और न ही साधन. 1772 की ठंड में बंगाल के निचले भूमि की खेती पर इन लोगों ने काफी लूटपाट मचाई थी. 50 से लेकर 1000 तक का दल बनाकर इन लोगों ने लूटने, खसोटने और जलाने का काम किया.”

आपको बता दें कि यह बंगाल के गिरि संप्रदाय के संन्यासियों द्वारा शुरू किया गया था, जिसमें जमींदार, कृषक तथा शिल्पकारों ने भी भाग लिया. इन सभी ने मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी की कोठियों और कोषों पर आक्रमण किये. ये लोग अंग्रेजों से बहुत वीरता से लड़ें. इन विद्रोह के प्रमुख नेताओं में केना सरकार, दिर्जिनारायण, मंजर शाह, देवी चौधरानी, भवानी पाठक उल्लेखनीय हैं. 1880 तक बंगाल और बिहार में अंग्रेजो के साथ संन्यासी और फकीरों का विद्रोह होता रहा. इन विद्रोहों का दमन करने के लिए अंग्रेजों ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी. बांग्ला भाषा के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का सन् १८८२ (1882) में रचित उपन्यास आनन्दमठ इसी विद्रोह की घटना पर आधारित है और इन्हीं के बलिदानों को समर्पित था वह विश्व प्रसिद्ध गीत ‘वन्दे मातरम’, जो आज भी देशवासियों को राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत करने के लिए पर्याप्त है.

आज जब ‘रौद्रम रणम रुधिरम’ ने दो अनजान क्रांतिकारी अल्लुरी सीताराम राजू और कोमारम भीम, जिन्हें वामपंथी इतिहासकारों ने नेहरू गांधी परिवार की चाटुकारिता में अनदेखा कर दिया था, उन्हें उनका उचित सम्मान दिलवाया और भारतीय इतिहास को उसका मूर्त स्वरूप दिया, तो सोचिए यदि आनंदमठ को उसका मूर्त स्वरूप दिया गया तो फिर क्या हाल होगा. हम आशा करते हैं कि यह परियोजना अपने कर्तव्य में शत प्रतिशत सफल सिद्ध हो और भारतीय सिनेमा को समृद्ध करने की इस दिशा में तेलुगु उद्योग के ये नेक प्रयास और आगे बढ़ते रहे!

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