गुमनाम नायक: ‘वोहरा परिवार’ ने देश की स्वतंत्रता हेतु अपना सर्वस्व अपर्ण किया था, उन्हें कितना जानते हैं आप

जिस परिवार ने इस देश को दु:ख, पीड़ा, यातना के अतिरिक्त कुछ नहीं दिया, उसे सराहा गया और जिसने अपना सबकुछ लुटाया, उन्हें कोई जानता भी नहीं.

Bhagwati charan vohra

Source- TFI

पता है इस देश की सबसे बड़ी त्रासदी क्या रही है? यहां सभी चाहते हैं कि नायक निकलें और देश एवं समाज की रक्षा करें परंतु उनके हृदय में सदैव यही रहता है कि यह कार्य पड़ोसी के घर में हो, खुद के घर में नहीं। अपना सर्वस्व देशहित में अर्पण करने का साहस किसी में नहीं है। परंतु एक परिवार ऐसा भी था जिसके एक एक सदस्य ने अपना एक एक कण इस राष्ट्र को समर्पित कर दिया और इसके लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देने से पूर्व एक बार भी नहीं सोचा। यह कथा है एक ऐसे ही परिवार की, जिसने राष्ट्र को अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया परंतु उनके योगदान के बारे में वर्तमान भारत को लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है।

यह कथा है भगवती चरण वोहरा और उनकी पत्नी दुर्गावती देवी की। भगवती चरण वोहरा क्रांति के प्रतीक चिह्न थे और स्वतंत्रता के लिए वो लड़ मरने को तैयार थे। उनके पिता शिव चरण वोहरा रेलवे में उच्च पद पर तैनात थे परंतु मृत्यु के पश्चात सारा कार्यभार भगवती पर आ चुका था, जो उन दिनों लाहौर के नेशनल कॉलेज में अपनी शिक्षा भी पूरी कर रहे थे। उस समय की रीतियों के अनुसार उनका विवाह दुर्गावती से सुनिश्चित हुआ था परंतु वो रूढ़िवादी बिल्कुल नहीं थे। उन्होंने अपनी पत्नी को पढ़ाया-लिखाया एवं उन्हें उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु प्रेरित भी किया।

वर्ष 1923 में भगवती चरण वोहरा ने नेशनल कालेज बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की और दुर्गावती देवी ने प्रभाकर की डिग्री हासिल की। दुर्गावती देवी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न था। ससुर शिवचरण वोहरा ने दुर्गावती को 40 हजार व पिता बांके बिहारी ने पांच हजार रुपये दिए थे जो संकट के समय उनके काम आ सकें लेकिन इस दंपती ने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आजाद कराने में उन पैसों का उपयोग किया। मार्च 1926 में भगवती चरण वोहरा व भगत सिंह ने संयुक्त रूप से नौजवान भारत सभा का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। सैकड़ों नौजवानों ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों को बलिदान वेदी पर चढ़ाने की शपथ ली। भगत सिंह व भगवती चरण वोहरा सहित सदस्यों ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए।

इसी बीच भगवती चरण वोहरा और उनके साथियों ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में भर्ती होने का निर्णय लिया। वर्ष 1924 में सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल द्वारा हिन्दुस्तान- प्रजातांत्रिक संघ के घोषणा पत्र – दि रिवोल्यूशनरी को 1 जनवरी 1925 को व्यापक रुप से वितरित करने की प्रमुख जिम्मेदारी भगवती चरण पर ही थी। जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया।

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साथ ही उन्होंने नौजवान भारत सभा के गठन और कार्य को आगे बढाया। इस सभा के जनरल सेक्रेटरी भगत सिंह और प्रोपेगंडा (प्रचार) सेक्रेटरी भगवती चरण थे। अप्रैल 1928 में नौजवान भारत सभा का घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ। भगत सिंह व अन्य साथियों से सलाह-मशविरे से मसविदे को तैयार करने का काम भगवती चरण वोहरा का था। नौजवान भारत सभा के उत्कर्ष में भगवती चरण और भगत सिंह का ही प्रमुख हाथ था। भगत सिंह के अलावा वो ही संगठन के प्रमुख सिद्धांतकार थे। क्रांतिकारी विचारक, संगठनकर्ता, वक्ता, प्रचारकर्ता, आदर्श के प्रति निष्ठा व प्रतिबधता तथा उसके लिए अपराजेय हिम्मत, हौसला आदि सारे गुण भगवती चरण में विद्यमान थे। किसी काम को पूरे मनोयोग के साथ पूरा करने में भगवती चरण बेजोड़ थे।

लोग कहते हैं कि भगवती चरण वोहरा मार्क्सवादी थे और बेहद सेक्युलर थे। परंतु यदि ऐसा था तो नौजवान भारत सभा में भर्ती होने के लिए नियम क्यों आवश्यक था कि ‘हलाल एवं झटका माँस एक साथ पकाया जाएगा, जिसे हिन्दू, मुसलमान और सिख एक साथ खाएंगे?’ इसकी पुष्टि स्वयं वामपंथी शिरोमणि एवं केंद्र सरकार को अपनी सेवाएं दे चुके पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी पुस्तक ‘Without Fear’ में की थी। इसके अतिरिक्त भगत सिंह की भांति भगवती चरण वोहरा धुर उर्दू विरोधी थे और समय-समय पर इस बात का स्पष्टीकरण HSRA के माध्यम से होता रहता था। यानी ये लोग राष्ट्रवादी निस्संदेह थे परंतु नेहरू और गांधी की भांति तुष्टीकरण के अंध उपासक नहीं थे।

भगवती चरण लखनऊ के काकोरी मामलालाहौर षड्यंत्र केस और फिर लाला लाजपत राय को मारने वाले अंग्रेज सार्जेंट सांडर्स की हत्या में भी आरोपित थे पर न तो कभी पकड़े गये और न ही क्रांतिकारी कार्यो को करने से अपना पैर पीछे खीचा। इस बात का सुबूत यह है कि इतने आरोपों से घिरे होने के बाद भी भगवती चरण ने स्पेशल ट्रेन में बैठे वायसराय को चलती ट्रेन में ही उड़ा देने का भरपूर प्रयास किया था। इस काम में यशपाल, इन्द्रपाल, भागाराम उनके सहयोगी थे। महीने भर की तैयारी के बाद नियत तिथि पर गुजरती स्पेशल ट्रेन के नीचे बम-बिस्फोट करने में लोग कामयाब भी हो गये परंतु वायसराय बच गया। ट्रेन में खाना बनाने और खाना खाने वाला डिब्बा क्षतिग्रस्त हो गया और उसमे एक आदमी की मौत हो गयी।

यंग इंडिया पत्रिका में जब गांधी ने क्रांतिकारियों को कायर कहने का दुस्साहस किया तो चंद्रशेखर आजाद बुरी तरह भड़क गए। परंतु भगवती चरण वोहरा ने उन्हीं की भाषा में ‘फिलोसॉफी ऑफ द बॉम्ब’ (बम के दर्शन) के नाम से एक प्रभावशाली आलेख लिखा था। यह आलेख जनता के बीच बहुत चर्चा में रहा और पुलिस अनेक प्रयास के बाद भी इसके मूल स्त्रोत का पता नहीं लगा पाई।

और दुर्गावती देवी? उनका रूप और उनकी नीति दोनों अलग ही थी। लोग उन्हें प्यार से दुर्गा भाभी भी बुलाते थे। लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की। बैठक में अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जे.ए. स्कॉट को मारने का जिम्मा वो खुद लेना चाहती थीं पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी। वे नारी विरोधी नहीं थे परंतु वे दुर्गा भाभी की क्षमता को भली भांति पहचानते थे और उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हवाले नहीं कर सकते थे। इतना ही नहीं, अंग्रेज अफसर सांडर्स को मारने के बाद भगत सिंह व राजगुरु लाहौर से कलकत्ता के लिए निकले तो कोई उन्हें पहचान न सके इसलिए दुर्गा भाभी की सलाह पर एक सुनियोजित रणनीति के तहत भगत सिंह पति, दुर्गा भाभी उनकी पत्नी और राजगुरु नौकर बनकर वहां से निकले। ये बड़ा ही दुष्कर कार्य था परंतु दुर्गा भाभी की सूझ-बूझ से सब सफल हुआ और अंग्रेज अफसर देखते ही रह गए।

परंतु 1930 में इस परिवार को भीषण आघात लगा। क्रांतिकारियों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए लॉर्ड इरविन ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट 1915 के अंतर्गत एक विशेष अध्यादेश जारी किया, जिसमें बताया गया था कि अभियुक्तों की उपस्थिति के बिना भी कार्यवाही जारी रहेगी और इसकी कोई अपील भी नहीं की जा सकती। इस पर चंद्रशेखर आज़ाद और वोहरा परिवार ने तय किया कि क्रांतिकारियों को लाहौर जेल से न्यायालय ले जाते समय नये और अधिक शक्तिशाली बमों के प्रयोग से छुड़ा लिया जाए। इसके लिए दिल्ली में महीनों से एक साबुन फैक्ट्री की आड़ में प्रयोग भी चल रहा था, जिसका नाम था ‘Himalaya Toiletry’। परंतु 28 मई, 1930 का दिन उनके लिए काफी मनहूस रहा। रावी नदी के तट पर अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ बम बनाने के दौरान भगवती चरण के हाथ में ही उनका बम फट गया और उनकी मृत्यु हो गई।

उसके बाद 9 अक्तूबर,1930 को दुर्गा भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चला दी, जिसमें गवर्नर हैली तो बच गया लेकिन सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। साथ ही मुंबई के पुलिस कमिश्नर पर भी दुर्गा भाभी ने फायरिंग कर दी। उसके बाद अंग्रेज पुलिस इनके पीछे पड़ गयी और मुंबई के एक फ्लैट से दुर्गा भाभी और साथी यशपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। फरारी, गिरफ्तारी व रिहाई का यह सिलसिला 1931 से 1935 तक चलता रहा।

अंत में लाहौर से जिला बदर किये जाने के बाद वो 1935 से गाजियाबाद में प्यारेलाल कन्या विद्यालय में शिक्षिका की नौकरी करने लगी। 1939 में उन्होंने मद्रास जाकर मांटेसरी पद्धति में शिक्षण का प्रशिक्षण लिया। उसके बाद लखनऊ में कैंट रोड के (नजीराबाद) एक निजी मकान में सिर्फ पांच बच्चों के साथ उन्होंने मांटेसरी विद्यालय खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में मांटेसरी इंटर कॉलेज के नाम से जाना जाता है। परंतु इस परिवार को कभी भी उनका उचित स्थान या सम्मान नहीं दिया गया और गुमनामी में ही 14 अक्तूबर, 1999 को दुर्गावती देवी का देहांत हो गया। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि एक परिवार, जिसने इस देश को दु:ख, पीड़ा, यातना के अतिरिक्त कुछ नहीं दिया, उसे मीडिया के एक धड़े और बुद्धिजीवियों ने सर पर चढ़ाया और जिनका सम्मान करना चाहिए था, जिस परिवार का वास्तव में अभिनंदन करना चाहिए था, उन्हें दशकों तक किसी ने पूछा तक नहीं।

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