कई बार ऐसा होता है कि कुछ लोगों का किसी संगठन में होने या नहीं होने से किसी को अंतर नहीं पड़ता। पर कुछ लोगों के उपस्थित नहीं होने से अंतर पड़ता है और बहुत तगड़ा पड़ता है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे भाजपा के संसदीय मंडल में योगी आदित्यनाथ को शामिल नहीं किये जाने से वाद विवाद का माहौल प्रारंभ हो चुका है और कैसे जाने अनजाने में इतिहास पुनः स्वयं को दोहरा रहा है।
हाल ही में भाजपा के संसदीय मंडल यानी National Parliamentary Board में फेरबदल किये गए। इसमें बी एस येदियुरप्पा, सर्बानंद सोनोवाल, इकबाल सिंह लालपुरा जैसे सदस्य जुड़े परंतु उसी समय नितिन गडकरी और शिवराज सिंह चौहान को विदा किया गया, जो वर्षों से भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी इकाई का एक महत्वपूर्ण भाग थे। परंतु यहां जिसकी अनुपस्थिति पर ध्यान नहीं गया या जिस बात से कुछ लोग चकित हैं, वह है इस संसदीय बोर्ड में एक व्यक्ति की अनुपस्थिति – योगी आदित्यनाथ की अनुपस्थिति। भाजपा का संसदीय मंडल वही है जो कांग्रेस के लिए उनकी सेंट्रल वर्किंग कमेटी है अर्थात् जो यहां पहुंचा, वो आगे जाकर प्रधानमंत्री बनेगा! ऐसा ही हुआ है और कागजों पर आगे भी ऐसे ही रीति रहेगी।
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परंतु खेल यहीं से बदलता है क्योंकि कहीं न कहीं इतिहास पुनः स्वयं को दोहरा रहा है। स्मरण कीजिए उस समय को, जब वर्ष 2013 में राष्ट्रीय संसदीय मंडल में फेरबदल किया जा रहा था। तब नितिन गडकरी भी थे, शिवराज चौहान भी थे और तब भाजपा के सर्वेसर्वा थे लालकृष्ण आडवाणी और पार्टी अध्यक्ष थे राजनाथ सिंह। एक व्यक्ति को तब भी सम्मिलित नहीं किया गया, जिसके कारण मीडिया से लेकर देशभर के चाय चौपाल तक में काफी चर्चा हुई थी। जानते हैं कौन थे वो व्यक्ति? वो थे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री – नरेंद्र दामोदर दास मोदी।
हम सबको ज्ञात है कि नरेंद्र मोदी पर गुजरात हिंसा में संलिप्त होने का गंभीर आरोप लगा था परंतु न उनकी लोकप्रियता में कोई कमी आई और न ही उनके प्रशासन ने कभी गुजरात की सेवा में कोई कमी छोड़ी। ऐसे में भाजपा ने स्पष्ट कर दिया था कि चाहे कोई उन्हें स्वीकारे या नहीं परंतु भाजपा की ओर देश के भावी प्रधानमंत्री उम्मीदवार वही होंगे! परंतु इसमें सबसे बड़ी अड़चन थे लालकृष्ण आडवाणी, जो अपने आगे किसी की नहीं सुनते थे। वो न तो स्वयं परिवर्तन चाहते थे और न ही किसी अन्य को अपने स्थान पर आने देना चाहते थे। उन्हें समर्थन देने वाले कई थे और उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। परंतु मोदी की बढ़ती लोकप्रियता को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता था और ये बात अंत में राजनाथ सिंह को समझ में आई और पीएम मोदी पर आधारित वेब सीरीज़ ‘मोदी – जर्नी ऑफ अ कॉमन मैन’ के एक अंश में इस बात को स्पष्ट तौर पर रेखांकित भी किया गया है।
तो इसका योगी आदित्यनाथ से क्या लेना देना? लेना देना अवश्य है क्योंकि इस समय पीएम मोदी के बाद यदि भाजपा में कोई सबसे लोकप्रिय है तो वो है योगी आदित्यनाथ। उनका लहजा, उनके निर्णय अपने आप में उन्हें भाजपा का सबसे लोकप्रिय नेता बनाते हैं। उनकी नीति केवल भारत में ही नहीं अपितु कई देशों तक में अनुसरण के योग्य मानी जाती है। तुष्टीकरण मानो उनके शब्दकोश में है ही नहीं और इसके बाद भी उत्तर प्रदेश, भारत के सबसे प्रगतिशील राज्यों में से एक है और शीघ्र ही वह गुजरात और महाराष्ट्र की भांति देश के सबसे विकसित राज्यों में से एक में सम्मिलित होने वाला है।
ऐसे व्यक्ति को आप यदि राजनीतिक खुरपेंच के माध्यम से अलग रखना चाहते हैं, तो यह न केवल बचकाना है अपितु हास्यास्पद भी, क्योंकि जब नरेंद्र मोदी इतने दांवपेंच के बाद नहीं रुक पाए तो फिर ये तो योगी आदित्यनाथ हैं और यदि ये प्रधानमंत्री बनें तो जो बातें कभी स्वप्न या हास परिहास का विषय होती हैं, वो यथार्थ बने तो चकित मत होइएगा। इतिहास पुनः स्वयं को दोहरा रहा है और इसे कोई नहीं बदल सकता!
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