2024 में एक नहीं बल्कि चार महागठबंधन होंगे जो भाजपा को केवल और केवल लाभ ही पहुंचाएंगे

भाजपा को हराना बिखरे हुए विपक्ष के लिए असंभव है

महागठबंधन

जैसे-जैसे 2022 गुजर रहा है, वैसे-वैसे देश की राजनीति 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर तैयार की जाने लगी है। एक तरफ कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने के प्रयास में है तो वहीं दूसरी ओर हाल ही में एनडीए का साथ छोड़ चुके बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 2024 के लिए अपनी संभावनाएं तलाशने में जुट गए हैं। इन दोनों के अलावा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी सांकेतिक दावेदारी कर रहे हैं। ध्यान देने वाली बात है कि हर बार की तरह इस बार भी विपक्षी दल एकता का ढोल पीटने लगे हैं। प्रश्न यह है कि क्या वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में विपक्षी एकता संभव है? आज इस पर ही चर्चा करेंगे।

इस लेख में जानेंगे कि कैसे वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को हराना बिखरे हुए विपक्ष के लिए चींटी के पहाड़ चढ़ने के बराबर है।

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नीतीश कुमार ने आरजेडी का दामन थाम लिया था

बिहार में जिस दिन से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन तोड़कर आरजेडी का दामन थामा है, उस दिन से वे विपक्षी एकता की बात करने लगे हैं। वहीं वामपंथी लंपटों ने उन्हें 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सर्वश्रेष्ठ प्रतिद्वंदी बता दिया है। उन्होंने राहुल गांधी समेत केसीआर, शरद पवार, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, जैसे नेताओं से बात कर अपने लिए अभी से माहौल बनाना शुरू कर दिया है लेकिन उनके माहौल बनाने के एजेंडों को बड़ा झटका सोनिया गांधी ने दिया। सोनिया गांधी ने अपने घर पहुंचे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को भाव तक नहीं दिया, यहां तक कि दोनों के साथ एक फोटो तक नहीं खिंचवाई।

सोनिया गांधी से मिलने के बाद दोनों ने मोदी सरकार पर हमला बोला। लालू यादव ने कहा है कि “बीजेपी को हटना है, देश को बचाना है। सबको इकट्ठा होना है। जैसे बिहार में किया है वैसे ही पूरे देश में करना है। सोनिया गांधी से हम लोगों ने कहा कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है। मैडम ने कहा है कि संगठन का चुनाव है। 12 दिन के बाद हमलोग मैडम से फिर से मिलेंगे। उसके बाद सब लोग बैठकर बात करेंगे। देश तानाशाही की तरफ जा रहा है। गरीबी, बेरोजगारी से जनता परेशान हैं। विपक्षी नेताओं को जेल में बंद किया जा रहा है। हमलोग डरने वाले नहीं हैं।”

एक तरफ लालू यादव ने मोदी सरकार पर हमला बोलते हुए सोनिया गांधी से महागठबंधन की बात की तो दूसरी ओर नीतीश कुमार ने भी लालू के सुर में सुर मिलाए और कहा कि सोनिया गांधी से हमारी और लालू जी की बात हुई है। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव है। संगठन के चुनाव के बाद हमलोग फिर से एक बार मिलेंगे। उसके बाद आगे की पूरी रणनीति तय होगी। नीतीश ने कहा कि अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।

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सोनिया गांधी की तरफ से कोई आश्वासन नहीं

अब इन दोनों की बयानबाजी से ही साफ हो गया कि सोनिया गांधी की तरफ से उन्हें कोई आश्वासन नहीं मिला है। लालू यादव अपनी कोरी बातों के लिए मशहूर हैं, वे तो कुछ भी बोल गए लेकिन नीतीश ने कहा कि यह जल्दबाजी होगी। नीतीश की इस जल्दबाजी वाली बात ने ही स्पष्ट कर दिया है कि लालू और नीतीश को सोनिया गांधी के घर आने का लेश मात्र भी फायदा नहीं हुआ है और न ही 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर नीतीश और लालू को कोई आश्वासन मिला है।

दरअसल, आज की स्थिति में देश में विपक्षी दल महागठबंधन बनाकर साल 2024 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हराने के प्रयास में है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह महागठबंधन संभव है जो देश की राजनीति चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह की नीति को मात देगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को किनारे कर देगा? इसका सीधा और सटीक जवाब है नहीं, क्योंकि जिस महागठबंधन के प्रयास विपक्षी दल कर रहे हैं असल में वह बिखरा हुआ है पर यदि कोई महागठबंधन बनता है तो वह एक नहीं बल्कि तीन या चार होंगे और बिखरे हुए इस विपक्ष के कीचड़ में भाजपा एक बार फिर आसानी से अपना कमल खिला लेगी।

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यूपी बिहार में महागठबंधन

2024 के लोकसभा चुनाव में जो पहला महागठबंधन संभव है उत्तर प्रदेश और बिहार में होगा। बिहार में एक तरफ भाजपा होगी तो दूसरी ओर जेडीयू कांग्रेस आरजेडी जैसे दल होंगे। बिहार के इस महागठबंधन की कमजोर कड़ी कांग्रेस और जेडीयू साबित हो सकते हैं जिनके हिस्से में आने वाली सीटें सीधे तौर पर भाजपा के खाते में जाती हुई देख सकती हैं। वहीं जिन सीटों पर आरजेडी अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ेगी संभव है कि वह सीटें बीजेपी के लिए सबसे ज्यादा मुश्किलें खड़ी करेंगे।

अहम बात यह है कि बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से जेडीयू और कांग्रेस बड़े हिस्से पर चुनाव लड़ती दिखाई देंगी। संभव है कि जेडीयू 15 और कांग्रेस 10 सीटों पर लड़ेगी। ऐसे में बीजेपी इन कमजोर कड़ियों से अपने हिस्से की 25 में से 15 सीटें निकाल सकती है और इसी तरह आरजेडी से सीधी लड़ाई होने की स्थिति में 10 सीटें निकाल सकती हैं। ऐसे में बीजेपी का आंकड़ा बुरी से बुरी स्थिति में भी 28 से 30 सीटों की ओर जा सकता है, जो कि बिहार के महागठबंधन के चक्रव्यूह में पार्टी के लिए बेहतरीन प्रदर्शन होगा।

इसके अलावा उत्तर प्रदेश की राजनीति की बात करें तो 2022 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत ने स्पष्ट कर दिया है कि फिलहाल यूपी की राजनीति बीजेपी के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आएगी। उत्तर प्रदेश में गठबंधन मुख्य तौर पर कांग्रेस और सपा के बीच होगा लेकिन मायावती के दूर रहने के कारण इस गठबंधन को लाभ की संभावनाएं बेहद कम है। इसकी एक वजह यह है कि उत्तर प्रदेश में दलितों की बड़ी आबादी मायावती से गठबंधन न होने की स्थिति में सबसे बड़े विकल्प यानी नरेंद्र मोदी को देखकर वोट कर सकती है।

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वहीं अखिलेश यादव का यादव वोट बैंक कांग्रेस से नफरत के चलते एक बार फ़िर 2017 के विधानसभा चुनावों की तरह बिखर सकता है। वहीं नॉन यादव ओबीसी वोट बैंक एक बार फिर 2017, 2019 और 2022 की तर्ज पर 2024 में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर पड़ सकता है। ऐसे में भले ही कांग्रेस और समाजवादी पार्टी मिलकर उत्तर प्रदेश में और बिहार की राजनीति में जेडीयू कांग्रेस और आरजेडी मिलकर मुस्लिमों का वोट एक तरफा कर लें लेकिन अन्य वोट बैंक के बिखरने के कारण दोनों ही राज्यों में बीजेपी को नुकसान में भी फायदा होता दिखेगा। इसका सीधा अर्थ यह है कि भाजपा की सीटें कुछ कम हो सकती हैं लेकिन राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य में एक बार फिर बिहार और उत्तर प्रदेश में भाजपा को दिल्ली में मजबूत करने में महत्वपूर्ण होंगें।

दक्षिण भारत में महागठबंधन

दक्षिण भारत की राजनीति में भाजपा सबसे अधिक मजबूत कर्नाटक में है जहां एक बार फिर लिंगायत समुदाय भाजपा के हिस्से में जा सकता है। वहीं यहां महागठबंधन की बात करें तो कांग्रेस और जेडीएस साथ आते दिख सकते हैं लेकिन अहम बात यह है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस और जेडीएस मिलकर बीजेपी का कुछ नहीं बिगाड़ सके थे और कुछ ऐसी ही स्थिति 2014 के चुनावों की थी। दूसरी ओर तेलंगाना में मुख्यमंत्री केसीआर हाशिए दिखायी देने लगी है तो वहीं ओवैसी की पार्टी ने केसीआर की पार्टी से गठबंधन किया हुआ है। ऐसे में यहां हिंदुत्व का कार्ड भाजपा के लिए लाभकारी होगा।

भाजपा तेलंगाना में मजबूती से लड़ने के प्रयास कर रही है पर संभव है कि इसके परिणाम भी भाजपा को सकारात्मक देखने को मिल सकते हैं। इसके अलावा बात आंध्र प्रदेश की करें तो यहां की राजनीति में बीजेपी वैसे तो हाशिए पर ही है लेकिन पार्टी को पर्दे के पीछे से मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की पार्टी का समर्थन मिलता रहता है और यह केंद्र में अहम बिलों पर कई बार देखने को भी मिल चुका है। जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस राज्य में विकास कार्यों से लेकर धार्मिक और जातिगत समीकरण स्थापित करने में बेहतरीन सफलता प्राप्त करती आयी है। ऐसे में यह माना जा रहा है कि यदि कांग्रेस टीडीपी के साथ मिलकर राज्य की राजनीति में कोई गठबंधन करती भी है तो टीडीपी कांग्रेस और टीआरएस जैसी पार्टियों को यहां पर कुछ खास राजनैतिक लाभ मिलने की संभावनाएं कम हैं।

इसके अलावा दक्षिण भारत की राजनीति में तमिलनाडु में बीजेपी एआईएडीएमके और कांग्रेस डीएमके के साथ ही परंपरागत चुनाव लड़ती दिखायी देगी। वहीं केरल में बीजेपी के हिस्से कुछ आना किसी चमत्कार की तरह होगा। वहीं उड़ीसा की बात करें तो मुख्यमंत्री नवीन पटनायक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रबल समर्थक माने जाते हैं। ऐसे में वह अपने स्वर्णिम कार्यकाल पर कांग्रेस या किसी विपक्षी दल से गठबंधन करके कोई दाग नहीं लगाना चाहेंगे। इसके चलते यह माना जा रहा है कि उड़ीसा में भी विपक्ष कहीं नहीं टिक पाएगा।

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पूर्वोत्तर का महागठबंधन

पूर्वोत्तर के महागठबंधन की बात करें तो यहां पर बीजेपी के लिए बड़ी चुनौतियां हो सकती हैं क्योंकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी यहां कांग्रेस और लेफ्ट के साथ गठबंधन करके बंगाल में बीजेपी को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करती दिख सकती है लेकिन यह माना जा रहा है कि पिछले 5 सालों के ममता बनर्जी की करतूतों के चलते बीजेपी को यहां भले ही अधिक लाभ न हो लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा बहुत कम नुकसान होने की संभावनाएं हैं।

वहीं त्रिपुरा में टीएमसी लेफ्ट के खात्मे के बाद अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है लेकिन उसे बीजेपी से लड़ना है। ऐसे में यह माना जा रहा है कि बीजेपी से लड़ने के लिए टीएमसी लेफ्ट और कांग्रेस से त्रिपुरा में भी गठबंधन कर सकती है लेकिन एक तथ्य यह भी है कि त्रिपुरा की राजनीति में ममता बनर्जी को अब तक कोई विशेष उपलब्धि हासिल नहीं हुई है और राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पूर्वोत्तर के लिए किए गए विकास कार्यों का जब सवाल आएगा तो निश्चित रूप से पूर्वोत्तर की जनता की पहली पसंद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में ममता बनर्जी का महागठबंधन का ढोल यहां फट सकता है।‌

वही पूर्वोत्तर के सबसे अहम राज्य यानी असम में एआईयूडीएफ और कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। इन दोनों ही पार्टियों का मुख्य लक्ष्य असम में हिमंता बिस्वा सरमा की लोकप्रियता को कम करना होगा क्योंकि यदि इन दोनों को असम में राजनीतिक विजय हासिल करनी है तो हिमंता सबसे बड़े रोड़े साबित होंगे। हिमंता बिस्वा सरमा की बात करें तो वह असम में पूर्ण रूप से हिंदुत्व की राजनीति कर रहे हैं जिससे बीजेपी को सबसे ज्यादा फायदा देखने को मिल सकता है क्योंकि असम का बहुसंख्यक समुदाय वहां मुस्लिम घुसपैठियों की हरकतों से खफा रहता है और उन्हें यह पता है कि यदि इन घुसपैठियों को काबू में करना है तो राज्य में और केंद्र की राजनीति में बीजेपी का होना बेहद जरूरी है।

दूसरी ओर हिमंता बिस्वा सरमा एक ऐसे नेता हैं जो मुस्लिमों के विकास की भी बात करते हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि उनकी इन नीतियों के चलते मुस्लिम वर्ग का युवा और महिलाओं का धड़ा मुख्यमंत्री की छवि के चलते बीजेपी के साथ जा सकता है जिससे कांग्रेस और एआईयूडीएफ के गठबंधन को मुस्लिम वोट बैंक के लिहाज से भी एक चोट पड़ सकती है।

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महाराष्ट्र और गोवा का राजनीतिक खेल

हम 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर महागठबंधन की बात कर रहे हैं किंतु सत्य यह है कि साल 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही महाराष्ट्र में महा विकास आघाडी के नाम पर एक महागठबंधन बना हुआ है। यह माना जा रहा है कि यही महागठबंधन साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भी दिखाई देगा। इस महागठबंधन की सबसे कमजोर कड़ियों की बात की जाए तो वे निश्चित तौर पर कांग्रेस और शिवसेना ही हैं। एक तरफ कांग्रेस जहां जमीन पर अपना आधार खो चुकी है तो वहीं दूसरी ओर शिवसेना वर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की बगावत के चलते दो फाड़ हो चुकी है।

महाराष्ट्र में शिवसेना के लिए जनता की नाराजगी का सबसे बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर उद्धव ठाकरे ने जो साजिशें रचीं और भाजपा को जिस तरह से हाशिए पर ले जाने का प्रयास किया उससे शिवसेना से नाराज जनता के वोट भाजपा को मिल सकते हैं। वहीं शिवसेना के बिखराव के चलते राज्य में पार्टी को बड़ा राजनीतिक नुकसान हो सकता है। इसके अलावा महागठबंधन में सबसे मजबूत कड़ी शरद पवार की पार्टी एनसीपी साबित होगी जो अपनी परंपरागत सीटों पर चुनावों में जीत दर्ज कर एक बार फिर महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी ताकत दिखाती नजर आएगी। लेकिन उसके सहयोगियों की कमजोरियों के चलते महाराष्ट्र में बीजेपी एक तरफा क्लीन स्वीप करती नजर आ सकती है।

वहीं गोवा में भी यही महा विकास आघाड़ी चुनाव लड़ने की कोशिश 2022 के विधानसभा चुनावों में भी कर रही थी लेकिन गठबंधन नहीं हो पाने के चलते इन सभी ने अकेले-अकेले चुनाव लड़ा जिसका नुकसान इन सभी को हुआ। गोवा की राजनीति में भाजपा की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस द्वारा बताए गए विधायक भी टूटकर बीजेपी में आ गए। महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी यहां अपनी ताकत दिखाने की कोशिश तो अवश्य करती है लेकिन उसे यहां अभी भी कुछ खास राजनीतिक सफलता मिलती नहीं दिखायी देती और पार्टी की जीत किसी निर्दलीय विधायकों की संख्या के बराबर ही रह जाती है जोकि सत्ता की ओर चले जाते हैं।

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कांग्रेस बनाम भाजपा

हमने आपको 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर महागठबंधन की पूरी रूप-रेखा विस्तार से समझाने का प्रयास किया है। प्रमुख राज्यों के अलावा जिन राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी सीधे आमने-सामने होंगे वहां निश्चित तौर पर भजपा को लाभ होगा। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की अपनी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाओं के चलते संभावनाएं बेहद कम है कि वो कांग्रेस से गठबंधन करेंगे, ऐसे में त्रिकोणीय होते मुकाबले में एक बार फिर भाजपा दिल्ली की सातों सीटों से क्लीन स्वीप करती नजर आएगी।

इसके अलावा राजस्थान, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, इन सभी राज्यों में भाजपा एक मजबूत राजनैतिक पार्टी के रूप में उभर कर सामने आती रही है। सभी राज्यों में बीजेपी ने साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में लगभग एकतरफा जीत दर्ज की थी और यह माना जा रहा है कि यह सभी राज्य एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दिल्ली की सत्ता को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते नजर आएंगे, जिसमें इन सभी राज्यों में एक बार फिर भाजपा का क्लीनस्वीप होता हुआ देख सकता है।

ऐसे में यदि कहा जाए कि 2024 के लोकसभा चुनावों में बिखरा हुआ यह विपक्षी खेमा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीसरी बार ऐतिहासिक जीत का कारण बन सकता है तो इसकी प्रबल संभावनाएं भी दिखती हैं।

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