“For the best viewing experience, मोबाइल फोन्स और कुछ क्रिटिक्स साइलेंट रहे”
“तेरा काम है फिल्म को महसूस करना, फिल्म कैसा बिजनेस करेगी तेरा काम नहीं है!”
अंतिम बार ऐसा सोचने पर विवश करने वाले संवाद किसी फिल्म में कब सुने थे? किसी चलचित्र को देखकर अंतिम बार रोमांच और भय की भावना एक ही साथ आप में कब आई थी? परंतु आर बाल्की को प्रशंसित करना होगा कि उन्होंने हमें एक ऐसे अनोखे विषय से परिचित कराया जिससे अधिकतम सिनेमा प्रेमी या तो अपरिचित थे या फिर अगर परिचित भी थे तो उसे अनदेखा करते थे।
‘चुप’ की कथा का सार
‘चुप’ केवल एक फिल्म नहीं है, ये एक संदेश है, ये एक सोच है, ये एक प्रश्न है और सबसे अधिक एक करारा थप्पड़ है। बॉलीवुड को भी और उन लोगों को भी जो लोगों की लगन और और परिश्रम को चंद शब्दों में निपटाकर उनका भाग्य बदल देते हैं।
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कथा मुंबई में हत्याओं के बढ़ते श्रंखला की है जिनका एक अजीब संबंध है। सभी फिल्म विश्लेषक हैं जिन्होंने किसी फिल्म को आवश्यकता से अधिक नकारात्मक, तो किसी को आवश्यकता से अधिक सकारात्मक रिव्यू दिया है और उसी अनुसार हत्यारा वह प्रतीक चिन्ह उनके मृत शरीर पर छाप देता है। मुंबई पुलिस के क्राइम ब्रांच प्रमुख अरविन्द माथुर इस घटना का अन्वेषण करते हैं और उन्हें प्रतीत होता है कि इसमें कुछ तो अनोखा है, जो उन्हें हत्यारे तक अवश्य ले जाएगा। इसी बीच में एक फ्लोरिस्ट डैनी की मित्रता सिनेमा उद्योग से जुड़ी पत्रकार निला मेनन से होती है और दोनों में संबंध प्रगाढ़ होते हैं। अब इन तीनों के पथ कैसे टकराते हैं, और इन तीनों का हत्यारे से क्या नाता होता है यही ‘चुप’ की कथा का सार है।
अब कथा सुनाने के दो प्रकार हैं- एक तो अच्छी कथा का पंचनामा कर दो या फिर एक आम कथा को इतने सुगम तरह से पेश करो कि लोग भी सोचे कि क्या बनाया है। कोई देखकर कहेगा कि चुप मात्र 10 करोड़ में बनी है? परंतु सत्य यही है और इसकी निर्माण शैली के लिए इसके कथावाचन के लिए इसके निर्माताओं एवं निर्देशक आर बाल्की की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। रोचक बात तो यह है कि यह चर्चित स्टॉक निवेशक राकेश झुंझुनवाला की बतौर फिल्म प्रोड्यूसर अंतिम फिल्म है।
अब आते हैं फिल्म के संदेश पर, जो अपने आप में काफी अनोखी और महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे अपना निजी संबंध भी है। फिल्म की समीक्षा कोई मज़ाक नहीं क्योंकि वर्षों के परिश्रम और कई करोड़ों के निवेश को चंद शब्दों में जुटाना अपने आप में एक दुष्कर कार्य है। इसे तत्परता से पूरा करने में भी संकट आएगा और न पूरा करने में भी संकट आएगा और ये बात राजा सेन से बेहतर कोई नहीं जानता।
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राजा सेन? ये नाम सुना सुना सा नहीं लगता? ये वही व्यक्ति है, जो अपने विचारधारा से मिलते जुलते फिल्मों को भर भर के स्टार लुटाता है। परंतु इसके विपरीत फिल्मों को अच्छी रेटिंग देने में कंजूसी होती है। विश्वास नहीं होता तो आर्टिकल 15 और उरी के इनके समीक्षा में अंतर देख लीजिए। वैसे समीक्षा से स्मरण हुआ इन्हें तो द ताशकंद फाइल्स की समीक्षा ही नहीं की थी। एजेंडा ऊंचा रहे हमारा!
परंतु यही व्यक्ति जब ‘चुप’ जैसी फिल्म गुरु दत्त के फिल्म ‘कागज़ के फूल’ द्वारा क्रिटिक्स की धुलाई को बात करें, फिर फिल्म उद्योग द्वारा फिल्मों के अंधाधुंध कॉपी करने और फिल्म क्रिटिक्स द्वारा सच्ची आलोचना के कोई मापदंड नहीं होने की बात करें, तो समझ जाइए कि कहीं न कहीं इन्हें भी आभास हो रहा है कि समय के साथ बदलना कितना आवश्यक है अन्यथा न घर के रहेंगे न घाट के।
दुलकर सलमान और सनी देओल का बेहतरीन अभिनय
अब बात करें अभिनय की तो यह फिल्म दो अभिनेताओं के कंधों पर टिकी है- दुलकर सलमान और सनी देओल। कौन सोच सकता था कि भारतीय सिनेमा उद्योग के सबसे बहुमुखी अभिनेताओं में से एक और सबसे प्रतिभाशाली एक्शन अभिनेताओं में से एक, एक-साथ एक ही फ्रेम में होंगे? परंतु आर बाल्की की कृपा से ये सब संभव हुआ और दोनों ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाया।
दुलकर सलमान को यूं ही बहुमुखी प्रतिभा का धनी नहीं बताया जाता है। जो व्यक्ति ‘द जोया फैक्टर’ में भी लोगों को कुछ देर टिकने पर विवश कर दें तो सोच लीजिए कि उसके अंदर कितनी प्रतिभा उपलब्ध है? मलयाली उद्योग में अपनी प्रतिभा से सबको मोहित करने वाले सुपरस्टार मामूटी के सुपुत्र ने इस फिल्म के माध्यम से विभिन्न भावनाओं को आत्मसात किया और इसे देखकर कौन विश्वास करेगा कि यह वही दुलकर हैं जिन्होंने कुछ ही माह पूर्व ‘सीता रामम’ में लेफ्टिनेंट राम के रूप में सबको अपने अद्भुत अभिनय से सम्मोहित कर दिया था। इनकी प्रतिभा इस बात का भी परिचायक है- वंशवाद का यदि सदुपयोग हो, तो वह सदैव अभिशाप नहीं होता।
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अब बात वंशवाद की चली ही है तो अपने धरम पाजी के पुत्र सनी पाजी को कैसे भूल सकते हैं? आप सोच रहे होंगे नेपोटिज्म के विरुद्ध लंबे चौड़े लेख लिखने वाले हम लोग अचानक से उलटी गंगा कब से बहाने लगे? परंतु एक सत्य ये भी है, क्योंकि सनी देओल कभी अयोग्य अभिनेता नहीं थे उन्हें बस अपनी प्रतिभा सिद्ध करने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिल रहे थे। लेकिन एक ‘चुप’ मिली और बस आ गए सनी पाजी वापस फ़ॉर्म में। अब रोल उनकी श्रेणी का नहीं था परंतु यहां जो उन्होंने अभिनय में पराक्रम दिखाया उसे देखकर आप भी कहेंगे मान गए सनी पाजी आपको।
अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मैंने दोनों प्रकार के लोक देखे हैं। मैंने 700 रुपये फूंककर आइमैक्स 3डी में ब्रह्मास्त्र देखी और आज तक उस ऑनस्क्रीन बवासीर के दुष्परिणाम भुगत रहा हूं। परंतु कल ही 75 रुपये में मैंने देखी चुप और इसके अभूतपूर्व अनुभव को लिखने के लिए शब्द भी कम पड़ रहे हैं। कॉन्टेन्ट में अंतर स्पष्ट है।
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