गोर्बाचेव की अनकही विरासत: जब उनके एक निर्णय का मूल्य कश्मीरियों को चुका पड़ा

गोर्बाचेव से जुड़ी वो एक बात नहीं जानते होंगे आप जिसका असर भारत पर भी पड़ा

Mikhail Gorbachev

सोवियत संघ के पूर्व और आखिरी राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव (Mikhail Gorbachev) इस दुनिया में नहीं रहे। मंगलवार 30 अगस्त को 91 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। मिखाइल गोर्बाचेव एक बड़े नेता था, जिन्हें विश्व के द्वारा दो तरह की नजरों से देखा जाता था। एक तरफ तो दुनिया के कई देश उन्हें एक नायक की भांति देखते है तो वहीं दूसरी तरफ वो अपने ही देश के खलनायक माने जाते रहे।

दरअसल, मिखाइल गोर्बाचेव वही नेता थे जिन्होंने बिना खून बहाए शीतयुद्ध यानी कोल्ड वॉर को खत्म करने का श्रेय दिया जाता है। इसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। वहीं उनके ऊपर सोवियत संघ को बिखरने से नहीं रोक पाने की नाकामी का दाग भी है। सोवियत संघ 15 टुकड़ों में बंट गया था। यही कारण है कि उनके देश में गोर्बाचेव को एक विलेन की तरह देखा जाता है।

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सोवियत यूनियन के राष्ट्रपति थे गोर्बाचेव

गोर्बाचेव 1985 से लेकर 1991 के बीच सोवियत यूनियन के राष्ट्रपति थे। इस दौरान गोर्बाचेव ने एक निर्णय लिया था, जिसका असर भारत पर भी पड़ा और खासतौर पर कश्मीरी पंडितों पर इसका प्रभाव पड़ा और उन्हें सबसे खौफनाक दौर से गुजरना पड़ा। 1990 में इस्लामिस्टों द्वारा कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाकर उन्हें उनके घरों से बेघर किया गया। बड़े स्तर पर हत्याएं हुईं, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। जी हां, हम बात कर रहे हैं 1990 में उसी दौर की जब कश्मीरी पंडितों को टारगेट कर और उन्हें कश्मीर से न केवल पलायन के लिए विवश किया गया बल्कि उन्हें घाटी में मौते के घाट उतारा गया।

असल में इसकी नींव तभी पड़ गयी थी जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस लेने का निर्णय लिया। यह कश्मीरी पंडितों के लिए बेहद ही घातक साबित हुआ। 1988-89 में मिखाइल गोर्बाचेव की देखरेख में सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान में अभियान खत्म किया था, जिसके बाद आतंकियों द्वारा कश्मीर को निशाना बनाया गया और यहां इन लोगों ने जमकर गदर मचाया था।

बीते वर्ष अमेरिका ने जिस तरह अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुला लिया और उसके बाद तालिबान एक बार फिर वहां एक्टिव हो गया, कुछ इसी तरह सोवियत संघ ने वर्ष 1989 में किया था। वर्ष 1979 वैश्विक राजनीति के इतिहास में सबसे अहम वर्षों में एक रहा है। इस दौरान कई ऐसी घटनाएं घटी थी, जिससे भू राजनीति पूरी तरह से बदल गयी। इसमें से एक था सोवियत संघ की सेना का अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजने का निर्णय लेना। दरअसल, उस दौरान दुनिया की दो महाशक्तियां अमेरिका और सोवियत संघ आपस में शीत युद्ध में उलझे पड़े थे। तब अफगानिस्तान के शासन पर पीडीपीए पार्टी काबिज हुआ करती थी। पीडीपीए सोवियत संघ के काफी करीब थी और एक तरह से उसी के इशारों पर ही चलती थी।

उस दौरान अफगानसितान की सत्ता नूर मोहम्मद ताराकी के हाथों में थी, वो वहां के राष्ट्रपति थे। तब ताराकी के करीबी और दूसरे नंबर पर हफीजुल्ला अमीन माने जाते थे । हालांकि थोड़े ही समय में ताराकी और अमीन के बीच विवाद बढ़ने लगा। देखते ही देखते दोनों एक दूसरे के दुश्मन बन गए, आमीन को ऐसा लगा कि पूरा सोवियत यूनियन उसके साथ है, इसलिए उसने ताराकी को गिरफ्तार कर लिया और 8 अक्टूबर, 1979 को तीन ताराकी की हत्या कर दी।

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पूरे घटनाक्रम ने ब्रेखनेव को भड़का दिया था

इस पूरे घटनाक्रम से सोवियत संघ के मुखिया लियोनिड ब्रेखनेव  भड़क गए। इसी दौरान उन्हें यह भी जानकारी मिली कि अमीन अमेरिका की तरफ जाने को तैयार है। सोवियत संघ को लगने लगा कि अफगानिस्तान में पीडीपीए कमजोर होने लगा और इसलिए ताराकी की हत्या के करीब तीन महीनों बाद सोवियत संघ ने अपनी सेना को अफगानिस्तान में दाखिल होने के आदेश दे दिए। सोवियत संघ का इसके पीछे का लक्ष्य अफगान में सैय्यद मोहम्मद नजीबुल्लाह के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार को मुजाहिदीनों के विरुद्ध लड़ने के लिए सहायता देना था। सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पहुंचकर यहां अपना अभियान शुरू किया और हफीजुल्ला अमीन को मार दिया।

अफगानिस्तान में सोवियत संघ के प्रवेश के साथ ही वैश्विक समीकरण बदलने लगे। अमेरिका, पाकिस्तान जैसे देश अफगान लड़ाकों के साथ मिल गए जो सोवियत यूनियन की सेनाओं के विरुद्ध लड़ रहे थे। पाकिस्तान की मदद से अमेरिका ने अफगान मुजाहिदीन को लड़ाई के लिए तैयार किया और पूरी दुनिया से इस्लामी लड़ाकों को इकट्ठा किया। साथ ही इन्हें पाकिस्तान और चीन की मिलिट्री से ट्रेनिंग तक दिलायी गयी। इसके अलावा अमेरिका, ब्रिटेन, सऊदी अरब जैसे कई देशों ने इनके लिए हथियारों के लिए अरबों डॉलर खर्च किए।

वर्ष 1989 में जब अफगानिस्तान में सोवियत सेना ने देश से पूरी तरह से वापसी कर ली तो भारत को एक अनिश्चित स्थिति में छोड़ दिया गया था। एक तरह से कह सकते हैं कि इसकी कीमत भारत ने चुकाई। वर्ष 1988-89 तब तो पाकिस्तानी कट्टरपंथी अफगानिस्तान में ही उलझे रहे और उग्रवादी इस दौरान और मजबूत हो गए थे। वहीं अफगानिस्तान में अभियान खत्म होने के बाद पाकिस्तानी उग्रवादियों ने आतंकवाद और संघर्ष के नाम पर अपना अभियान कश्मीर घाटी की तरफ मोड़ दिया। पाकिस्तान ने कश्मीर की परिस्थितियों का लाभ उठाया और अंसतुष्ट कश्मीरी युवाओं को बहकाने का भी काम किया।

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इसके बाद कश्मीर में जो कुछ हुआ और कश्मीरी पंडितों ने जो कुछ सहा, वो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। हाल ही में आई द कश्मीर फाइल्म फिल्म में तो महज 1990 के दौर से कश्मीर पंडितों के साथ हुए ज्यादती का एक अंश ही दिखाया गया है। वास्तव में इससे कहीं अधिक उन्होंने उस दौरान झेला था और कहीं न कहीं यह मिखाइल गोर्बाचेव के सेना वापस लेने के निर्णय से भारत को जूझना पड़ा। इस निर्णय  की मूल्य किसी और ने नहीं केवल भारत और मुख्य रूप से कश्मीरी पंडितों ने चुकायी।

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