ऋषिकेश मुखर्जी: फिल्मकार जो सरल लेकिन ऐसी फिल्में बनाता था जिन्हें पीढ़ियां याद रखें

इनकी कोई बराबरी नहीं!

hrishikesh mukherjee

‘गोलमाल है भई सब गोलमाल है, सीधे रास्ते की एक टेढ़ी चाल है, गोलमाल है भई सब गोलमाल है!”

कुछ स्मरण हुआ? एक युग ऐसा भी था जब लोगों को सिनेमाघरों में आकर्षित करने के लिए न चमचमाती गाड़ी चाहिए होती थी, न अभद्र भाषा और न ही किसी प्रकार की विलासिता। सरल जीवन, हंसते खेलते लोग और आम दिनचर्या से काम चल जाता।

आज मिलते हैं कहीं ऐसे लोग?

परंतु एक समय ऐसा भी था, जब ऐसे फिल्मकार भी थे और इनकी फिल्मों को देखने के लिए जनता लालायित भी रहती थी। इनकी फिल्मों को देखने के लिए परिवार का हर सदस्य ऐसे सिनेमा हॉल से चिपकता था जैसे बचपन में बालक कार्टून देखते समय टीवी से चिपकता है। इस व्यक्ति का नाम है ऋषिकेश मुखर्जी, जिन्होंने सिनेमा को पारिवारिक रूप दिया।

ऋषिकेश मुखर्जी का जन्म 30 सितंबर 1922 को कोलकाता मेंं हुआ था और उनकी मृत्यु 27 अगस्त 2006 को मुंबई में हुई थी। उन्होंने विज्ञान विषय से पढ़ाई की थी और कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने अपनी स्नातक स्तर की पढ़ाई रसायन शास्त्र में पूरी की थी और कुछ समय तक अध्यापक के रूप में भी काम किया था।

ऋषिकेश के फिल्मों में सबसे विशेष बात है उनका सामाजिक संदर्भ। आज जो प्रसिद्धि TVF को ‘डाउन टू अर्थ’ यानी जमीन से जुड़ी तमाम सीरीज़ दिखाकर प्राप्त है ये बहुत ही पूर्व ऋषिकेश मुखर्जी अपनी फिल्मों से प्रारंभ कर चुके थे।

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उनकी फ़िल्मों में हिंदुस्तान नज़र आता था

ऋषिकेश मुखर्जी को याद करते हुए जानी-मानी गायिका लता मंगेशकर कहती थीं- “मैं उन्हें एक निर्देशक और अपने बड़े भाई के रूप में याद करती हूं। उनसे मेरे काफ़ी अच्छे संबंध थे। उनकी पहली फ़िल्म से मैंने उनके साथ काम किया था।” लता मानती थीं- “गुरुदत्त, शांताराम और बिमल दा के बाद ऋषिकेश दा ही थे जिनकी फ़िल्मों में हिंदुस्तान नज़र आता था। उनकी फ़िल्मों में गांवों और शहरों में रहने वाला असली हिंदुस्तान नज़र आता था।”

ऋषिकेश दा के साथ बीते वक्त को याद करते हुए लता मंगेशकर बताती थीं- “कई राज्यों में सफ़ेद साड़ी किसी के गुज़र जाने पर पहनी जाती है। मैं हमेशा से सफ़ेद साड़ी पसंद करती रही हूं। मुझे याद है कि वो मुझे इसके लिए हमेशा टोकते थे। उन्होंने मुझसे कहा था कि मेरे पास किनारेदार साड़ी पहनकर ही आना और इसलिए मैं उनके पास वैसी ही साड़ी पहनकर जाती थी।”

इन्होंने संपादक के रूप में अपना कार्य प्रारंभ किया और कई सुपरहिट, ब्लॉकबस्टर फिल्मों में अपना योगदान दिया। दो बीघा जमीन, देवदास, मधुमती, गंगा जमुना, इनके ही कुशल सम्पादन की देन थी। परंतु इन्होंने शीघ्र ही सोचा क्यों न लंबा हाथ मारा जाए? सो निकल पड़े निर्देशन के क्षेत्र में।

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निर्देशन के क्षेत्र में आजमाया हाथ 

ऋषिकेश मुखर्जी ने प्रारंभ किया मुसाफिर नामक फिल्म से जो 1957 में प्रदर्शित हुई। यह बहुत बड़ी सफलता नहीं थी, परंतु उनकी दूसरी फिल्म अनाड़ी ने बॉलीवुड की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। इस फिल्म ने राज कपूर के स्टार स्टेटस में चार चांद लगाए, बॉलीवुड को अद्वितीय ऊंचाई दी और आम तौर पर धीर गंभीर गाने के लिए चर्चित मुकेश से सकारात्मक गाने भी गवाये।

फिर तो ऋषिकेश दा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1961 में प्रदर्शित अनुराधा ने न केवल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त किया अपितु उसके बाद उनके हल्के फुल्के मनोरंजक फिल्मों की लाइन लग गई। उन्हें तो मानों लक्ष्मी जी का वरदान प्राप्त था, जिस वस्तु या फिल्म को छूते वो सोना बन जाती। जब राजेश खन्ना सफलता की सीढ़ी चढ़ने लगे तो ऋषिकेश मुखर्जी ने भी इस अवसर का लाभ उठाया और उन्हें उनकी दो सबसे अभूतपूर्व फिल्में प्रदान की- ‘आनंद’ और ‘बावर्ची’ और वैसे भी जैसे आनंद बाबू कहे हैं, ‘बाबू मोशाय, ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं!’

निर्देशन क्षेत्र में आने से पहले मुखर्जी प्रिंसिपल भी रह चुके थे। इसलिए क्या बोलना है, कैसे बोलना है और क्या नहीं कहना है? ये बातें भली-भांति जानते थे। कई बार वो धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना जैसे स्टार्स को किसी स्कूली बच्चे की तरह समझाते तो कभी सुना भी देते थे।

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देरी से आने पर शूटिंग कर दी कैंसिल

उदाहरण के लिए एक स्टार उनकी फिल्म के सेट पर 9 बजे की शिफ्ट होने के बावजूद करीब 12:30 बजे पहुंचा। चूंकि ऋषि दा को सेट पर लेट आने वाले लोग पसंद नहीं थे इसलिए जब वो स्टार आया तो वे उस समय तो कुछ नहीं बोले। जब स्टार ने मेकअप करवा लिया और शॉट देने के लिए तैयार हो गया तब अचानक ऋषि दा ने कहा कि आज शूटिंग नहीं होगी।

उनका मूड कब बदल जाए यह कोई नहीं जानता था। उनसे जुड़ा एक और किस्सा यह है कि एक बार अमोल पालेकर उनके साथ शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने कोई शॉट दिया जो काफी अच्छा था पर अमोल को लगा कि वे इसे दोबारा और बेहतर कर सकते हैं। मुखर्जी के मना करने पर भी जब अमोल अड़े रहे तो मुखर्जी ने दोबारा शॉट तो लिया, लेकिन फाइनल फिल्म में उन्होंने पहले वाला शॉट ही रखा।

आपको पता है कि ‘आनंद’ फिल्म के लिए राजेश खन्ना प्रथम विकल्प नहीं थे? किशोर कुमार की लोकप्रियता को देखते हुए ऋषिकेश मुखर्जी उन्हें ही लेना चाहते थे, परंतु उन्हें अंत समय पर रिजेक्ट कर दिया। कारण थे स्वयं किशोर कुमार।

वो कैसे? फिल्म आनंद में ऋषिकेश दा पहले किशोर कुमार को कास्ट करने वाले थे पर उन्हीं दिनों किशोर कुमार का एक बंगाली प्रोड्यूसर से विवाद हो गया और उन्होंने गार्ड को निर्देश दिए कि कोई बंगाली मुझसे मिलने आए तो उसे भगा देना। एक दिन ऋषिकेश दा उनके घर पहुंचे लेकिन गार्ड ने उन्हें जाने नहीं दिया। इसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने किशोर कुमार के साथ फिल्म बनाने का इरादा ही छोड़ दिया।

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ऋषिकेश दा ने 8 फिल्मफेयर अवॉर्ड भी अपने नाम किए हैं। उन्होंने 5 बार प्रेसिडेंट सिल्वर मेडल जीता जो अनाड़ी, अनुपमा, आशीर्वाद, सत्यकाम और आनंद जैसी फिल्मों के लिए मिला। 1999 में वे दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित हुए। 2001 में मुखर्जी साहब को पद्म विभूषण अवॉर्ड से नवाजा गया। इसी वर्ष उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट एनटीआर नेशनल अवॉर्ड भी दिया गया। 2006 में उन्होंने इस लोक को सदा के लिए अलविदा कह दिया था। आज भारत विशेषकर सिनेमा उद्योग उनकी साफ सुथरी फिल्मों को बहुत याद करता है।

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