तकनीकी सरलीकरण से ज़्यादा आज तकनीकी पुनर्प्रयोग पर ज़ोर देने का माहौल बन गया है। यह ज़रूरी भी है क्योंकि किसी भी आविष्कार के प्रयोग में अंततः लगने वाली आय आर्थिक संतुलन को डिगा देती है जब वो प्रयोग असफल रह जाता है। वहीं, अंतरिक्ष से जुड़े प्रोजेक्ट में तो आय भी अधिक लगती है और जोखिम भी सर्वाधिक होता है। इसरो दुनिया की सबसे बेहतरीन अंतरिक्ष एजेंसियों में से एक है और इसने विश्व में भारत का कद एक अंतरिक्ष शक्ति के रूप में बढ़ाया है। इसी बीच ISRO ने लक्ष्य रखा है कि देश री-यूजेबल यानी कई बार उपयोग हो सकने वाले रॉकेट डिजाइन और निर्माण करे। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे भारत वैश्विक बाजार के लिए कई बार उपयोग करने लायक रॉकेट का निर्माण करने की ओर कदम बढ़ा चुका है।
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वैश्विक देशों की बढ़ेगी निर्भरता
दरअसल, भारत अपने लिए ही नहीं अपितु दुनिया के लिए पुन: प्रयोज्य रॉकेट विकसित करने की योजना बना रहा है। सरकारी अधिकारियों ने सोमवार को इसकी जानकारी दी। उपग्रहों को लॉन्च करने की लागत में कटौती करने के लिए एजेंसी वैश्विक बाजारों के लिए नए पुन: प्रयोज्य रॉकेटों का डिजाइन और निर्माण करेगी। इससे सर्वप्रथम भारत के प्रति अन्य विकसित और विकासशील देशों की निर्भरता बढ़ेगी। भारत का बाज़ार बढ़ेगा और साथ ही भारत की रॉकेट निर्माण में और विशेषकर पुनर्प्रयोग वाले रॉकेट जो संभवतः ईको-फ्रेंडली होंगे उनकी आवश्यकता बढ़ने पर भारत के प्रति ही सभी टकटकी लगाए आश्रित दिखाई देंगे।
इस लक्ष्य की पूर्ति होने पर प्रमुख रूप से देश की तिजोरी पर बढ़ रहे दबाव में कमी आएगी। अंतरिक्ष विभाग के सचिव और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष एस सोमनाथ ने कहा, “हम सभी चाहते हैं कि प्रक्षेपण आज की तुलना में बहुत सस्ता हो।” एस सोमनाथ ने सातवें ‘बेंगलुरु स्पेस एक्सपो 2022’ को संबोधित करते हुए कहा कि “वर्तमान में एक किलोग्राम पेलोड को कक्षा में स्थापित करने में 10,000 अमेरिकी डॉलर से 15,000 अमेरिकी डॉलर का व्यय आता है। हमें इसे 5,000 अमेरिकी डॉलर या 1,000 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम तक लाना होगा। ऐसा करने का एकमात्र तरीका रॉकेट को पुन: प्रयोज्य बनाना है। आज भारत में हमारे पास प्रक्षेपण वाहनों (रॉकेट) में पुन: प्रयोज्य तकनीक नहीं है।”
यह बहुत बड़ी जीत होगी
तो वही बात यहां चरितार्थ होती है कि ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है’ और चूंकि भारत के पास अभी रॉकेट में पुन: प्रयोज्य तकनीक नहीं है, तो यह आवश्यक हो जाता है कि जल्द इसकी पूर्ति के लिए कदम उठाए जाए। चूंकि इसरो के अध्यक्ष एस सोमनाथ ने स्वयं इस संबंध में बड़ी घोषणा करते हुए अंतरिक्ष तकनीक से जुड़े क्षेत्र को नया आयाम प्रदान किया है। अब निश्चित रूप से इस प्रयोग और प्रयास के सफल होते ही भारत को बहुत बड़ी जीत मिलेगी जो किसी भी बड़े परिक्षेत्र के सफल होने जितनी बड़ी जीत होगी।
एस सोमनाथ ने आगे बताया कि वे इन्फ्लेटेबल एरोडायनामिक डिसेलेरेटर (IAD) सहित विभिन्न तकनीकों पर काम कर रहे हैं, जिसका प्रदर्शन पिछले सप्ताह किया गया था। उन्होंने कहा, “हमें इसे (रॉकेट बैक ऑन अर्थ) उतारने के लिए एक रेट्रो-प्रोपल्शन रखना होगा।” सोमनाथ ने यह भी बताया कि एक पुन: प्रयोज्य रॉकेट का विचार वर्तमान प्रौद्योगिकियों का एक संयोजन होगा तथा उद्योग, स्टार्टअप और एजेंसी की वाणिज्यिक शाखा न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) से भी सहायता ली जाएगी।
इस के प्रति ध्येय और अपने अंतिम लक्ष्य को बताते हुए एस सोमनाथ ने कहा, “मैं अगले कुछ महीनों में इसे (प्रस्ताव) आकार लेते देखना चाहता हूं। हम ऐसा रॉकेट देखना चाहते हैं, एक रॉकेट जो प्रतिस्पर्धी-पर्याप्त होगा, एक ऐसा रॉकेट जो लागत-सचेत, उत्पादन-अनुकूल होगा जो भारत में बनाया जाएगा लेकिन अंतरिक्ष क्षेत्र की सेवाओं के लिए विश्व स्तर पर संचालित होगा। अगले कुछ वर्षों में ऐसा होना चाहिए ताकि उन सभी प्रक्षेपण यानों को उचित समय पर सेवानिवृत्त किया जा सके।”
सौ बात की एक बात यह है कि भारत चंद्रयान-2 परीक्षण के बाद से अपने अंतरिक्ष उपक्रमों के प्रति और सचेत, संजीदा और संलग्न हो गया है। भारत अब तकनीकी विषमताओं को पार कर पारंगत होने की सीढ़ी चढ़ चुका है। ऐसे में अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले रॉकेट को पुनर्प्रयोग में लाया जाना एक विजयी क्षण होगा और अंततः यह उपग्रहों को लॉन्च करने की लागत में काफी कटौती करेगा, जो हमारे लिए, आपके लिए और देश के लिए काफी फायदेमंद होगा। साथ ही वैश्विक मार्केट में हमारी अपनी अलग धाक होगी और दुनिया के कई देश हमारे पीछे-पीछे चलेंगे।
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