गॉसिप और चुगलियों में भारत की जनता को इतना आनंद क्यों आता है?

टैब्लॉइड संस्कृति के भारत में विकराल रूप लेने की कहानी!

टैब्लॉइड

“चैन से सोना है तो जाग जाइए!”

“Three Shots That Shook The Nation!”

ये शब्द कुछ सुने सुने से नहीं लगते? लगेंगे क्यों नहीं, ये परिलक्षित करते हैं भारतीय पत्रकारिता के उस पहलू को जिससे चिढ़ते तो सब हैं परंतु अनदेखा कोई नहीं कर सकता। जिसका सबसे घिनपट स्वरूप है बिग बॉस, जो हर वर्ष मुंह उठाकर चला आता है और आप चाहे जितना गाली दे लें लेकिन कभी न कभी तो इसका चोरी छुपे एक क्लिप अथवा एपिसोड देखा ही होगा। यही है टैब्लॉइड कल्चर, जिसके रूप अनेक है लेकिन उद्देश्य केवल एक- “दूसरों के घर में झांकना।“

दूसरों के घर में झांकना, ये चुगली नहीं हुई? लेकिन ये चुगली तो आदिकाल से चली आ रही है। हर क्षेत्र में ऐसे ‘बिट्टू की मम्मी’ होती है, जिन्हें चर्चित वेब सीरीज ‘गुल्लक’ ने लोकप्रिय बना दिया है। इन्हीं ‘बिट्टू की मम्मी’ को पत्रकारिता की भाषा में टैब्लॉइड जर्नलिस्ट्स भी बोला जाता हैं। संक्षेप में कहे तो ‘Paparazzi’ जिनके कुछ ही काम होते हैं- फलाने व्यक्ति ने क्या किया? फलाने व्यक्ति ने कहां खाया? फलाने व्यक्ति ने किधर छींका? और यही टैब्लॉइड कल्चर का दाना पानी है।

2019 में एक वेब सीरीज़ आई थी ‘द वर्डिक्ट’। उसमें एक बड़ा कालजयी संवाद था- “फ्रॉम मुस्लिम्स इन डैन्जर, द स्टोरी वास चैन्ज्ड टू इस्लाम इन डैन्जर, एण्ड जिन्ना गेट्स व्हाट ही वांट्स, एण्ड इनसिडेंटली आई टू हैव चैन्ज्ड द स्टोरी (मुसलमान खतरे में से कथा अब इस्लाम खतरे में हो चुकी थी और जिन्ना को जो चाहिए वो मिल गया। संयोग देखिए मैंने भी कथा को बदल दिया है)

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जानते है किस कथा की बात हो रही थी?

27 अप्रैल 1959, मेट्रो सिनेमा में अपने तीन बच्चों और अपनी धर्मपत्नी को ‘टॉम थंब’ के एक शो पर छोड़कर एक व्यक्ति जीवन ज्योत अपार्टमेंट्स की ओर निकल पड़ा। इस व्यक्ति का नाम था कवास मानेकशॉ नानावटी जिसकी ब्रिटिश पत्नी सिलविया का उसी के मित्र और उद्यमी प्रेम भगवानदास आहूजा के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा था। अचानक से अपार्टमेंट गोलियों की आवाज से थर्रा उठा और प्रेम आहूजा जमीन पर निर्जीव पड़े थे।

इस प्रकरण ने पूरे देश में कोहराम मचा दिया और चूंकि प्रारंभ में नानावटी निर्दोष सिद्ध हुए इसलिए इस प्रकरण के पश्चात भारत में ज्यूरी के माध्यम से मुकदमे का निर्णय देने की प्रक्रिया समाप्त हुई। परंतु ऐसा क्यों हुआ? कारण एक था– रुस्तम खुरशेद ‘रूसी’ करंजिया और उनकी बहुचर्चित ‘Blitz’ मैगजीन जिसने भारत में टैब्लॉइड कल्चर की नींव रखी।

भारत में टैब्लॉइड कल्चर की नींव

जब भारत में न टीवी था और न इंटरनेट, तब ऐसे मैगजीन ही दिन प्रतिदिन की मनोरंजन का साधन बनते थे। इसमें रूसी करंजिया की Blitz मैगजीन ने नानावटी केस को न केवल कवर किया, अपितु उसके परत दर परत का ऐसा विश्लेषण किया और जनता को ऐसे प्रभावित किया कि स्वयं ज्यूरी भी इसके प्रभाव में जाने अनजाने आ ही गई। उन्हें निर्णय कमांडर नानावटी के पक्ष में ही सुनाना पड़ा। फिर क्या धर्मयुग, क्या Illustrated Weekly of India, क्या India Today सब लग गए बहती गंगा में हाथ धोने। इस सम्पूर्ण प्रकरण को आश्चर्यजनक रूप से आल्ट बालाजी के वेब सीरीज़ ‘द वर्डिक्ट’ एवं अक्षय कुमार की बहुचर्चित फिल्म ‘रुस्तम’ में बढ़िया तरीके से चित्रित किया गया है।

(Source – Mumbai Fables)

यहीं से एक और संस्कृति की भी नींव पड़ी Paparazzi कल्चर की। सन् 1960 में प्रदर्शित फिल्म La Dolce Vita में एक फोटोग्राफर था जिसका नाम था Paparazzo। यह एक फ्रीलांस फोटोग्राफर था जो हॉलीवुड सितारों की निजी जिंदगी के फोटो खींचने के लिए किसी भी हद तक जा सकता था। वहीं से Paparazzi शब्द की उत्पत्ति हुई और इटली से ही ये संस्कृति फलते-फूलते हुए भारत पहुंची। Paparazzi मूल रूप से स्वतंत्र पत्रकार/फोटोग्राफर होते हैं जो प्रसिद्ध सेलेब्रिटी/अभिनेता के निजी जीवन पर विशेष नज़र रखते हैं। तड़क-भड़क वाली खबरें जुटाकर ही ये अपना जीवनयापन करते हैं।

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बॉलीवुड में Paparazzi की एंट्री

वहीं बॉलीवुड में Paparazzi की एंट्री तब हुई, जब मुंबई के अंग्रेजी टैब्‍लॉयड ‘मिडडे’ ने फिल्‍म कलाकार शाहिद और करीना कपूर के प्रगाढ़ चुंबन की फोटो को छापकर Paparazzi पत्रकारिता को बहस के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं अपितु इस फोटो को कुछ नामी मीडिया घरानों ने अपने प्रचार-प्रसार के लिए जमकर उपयोग किया था।

यह तो कुछ भी नहीं है। प्रारंभ में Paparazzi का उद्देश्य जनता को सेलेब्रिटी के कार्यों की पल-पल की जानकारी देना होता था परंतु अब उनका ध्येय कुछ और हो चुका है। अगर मीडिया घरानों की बात करें तो क्या वायर, क्या रिपब्लिक सभी मीडिया पोर्टल इस बात के लिए बराबर दोषी हैं। हर खबर को पहले पहुंचाने की अंधी दौड़ में ये लोग कब अपनी सीमाएं लांघने लगते हैं इन्हें स्वयं भी नहीं पता होता। वैसे भी हम किनसे नैतिकता की आशा कर रहे हैं? उनसे जो सुशांत सिंह राजपूत के मृत्यु पर उनके पार्थिव शरीर की फोटो को बिना किसी शर्म के अपने चैनलों पर प्रदर्शित कर रहे थे?

हालांकि बॉलीवुड अभिनेता Paparazzi (टैब्लॉइड कल्चर) के इतने बड़े फैन हो चुके हैं कि वह जिम, एयरपोर्ट, पार्टी और यहां तक ​​कि किराने की खरीदारी की ओर जाते समय भी Paparazzi फोटोग्राफर से तस्वीर खींचने के लिए कहते हैं। Paparazzi संस्कृति कई मामलों में मशहूर हस्तियों के लिए एक वरदान है और उनके दिनचर्या की सबसे बड़ी साथी भी। लेकिन कहीं न कहीं इन सब के लिए स्वयं बॉलीवुड भी कुछ हद तक दोषी है क्योंकि ताली एक हाथ से तो नहीं बजती।

विकराल रूप ले रही यह संस्कृति

उदाहरण के लिए देखें तो हम भले ही विक्की कौशल और कैटरीना कैफ के विवाह से पूर्व अनावश्यक मीडिया कवरेज से त्रस्त हो, परंतु जब उन्हें खुद आपत्ति नहीं हो तो हम और आप कौन हैं? स्वयं कटरीना ने एक बार कहा था- “जब वे (Paparazzi) मेरी फोटो लेते हैं, तो कभी-कभी ऐसी फोटो लेते हैं जिसमें हम कुछ ज्यादा ही बुरे दिखते हैं? क्या हमने ऐसा जानबूझकर किया?

परंतु Paparazzi और मीडिया के इस गठजोड़ का बहुत घातक असर पड़ा है राष्ट्रीय स्तर पर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी। वो कैसे? ये दो उदाहरणों से स्पष्ट पता चलता है- ब्रिटेन की पूर्व राजकुमारी डायना स्पेन्सर और ISRO के चर्चित पूर्व वैज्ञानिक एस नंबी नारायणन से।

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आपको क्या लगता है कि राजकुमारी डायना मात्र एक सड़क दुर्घटना में मारी गई थी? बिल्कुल नहीं! असल में वो और उनके मित्र डोडी फाएड पत्रकारों से बच रहे थे जिस कारण फ्रांस में एक भीषण सड़क दुर्घटना का शिकार बन गए।

और नंबी नारायणन? टैब्लॉइड कल्चर और Paparazzi के गठजोड़ ने उनका जो सत्यानाश किया उसका दुष्परिणाम न केवल उनके परिवार को अपितु संपूर्ण राष्ट्र को भुगतना पड़ा। 1994 में उन्हें केरल पुलिस ने झूठे आरोपों के आधार पर हिरासत में लिया और मीडिया ने नमक मिर्च लगाकर उन्हें राष्ट्रद्रोही सिद्ध करने में कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ा। आज भी कारवां जैसे मैगज़ीन इस बात से पीछे नहीं हटते कि कैसे भी करके नंबी नारायणन को नीचा दिखाए जाए और इसके लिए वे सीबीआई जैसी संस्थाओं तक पर कीचड़ उछालने से बाज नहीं आते।

जिस इसरो के एक होनहार वैज्ञानिक नंबी नारायणन को एपीजे अब्दुल कलाम के समकक्ष माना जाना चाहिए था उन्हें 90 के दशक में एक फर्जी देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार कर आरोपी बना दिया गया। उन्हें वर्षों तक संघर्षों के बाद अपना खोया हुआ सम्मान तो मिल गया लेकिन वामपंथियों के लिए वे हमेशा ईर्ष्या का केंद्र ही रहे और आज भी कुछ विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। नंबी को सुप्रीम कोर्ट ने वर्षों पूर्व निर्दोष सिद्ध कर दिया और 2018 में अविलंब इतने वर्षों तक पीड़ा झेलने के लिए केरल सरकार को तत्काल प्रभाव से सवा करोड़ रुपये देने का आदेश दिया था।

लेकिन ‘रॉकेट्री’ फिल्म के प्रदर्शन और उसकी अपार सफलता के बाद वामपंथियों का एक वर्ग फिर से उन पर कीचड़ उछालने के प्रयास करने लगा। वामपंथी समेत घृणा का एजेंडा चलाने वालों में श्रेष्ठ स्थान पर आने वाले पोर्टल Caravan ने एक बार फिर नंबी नारायणन के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट द्वारा क्लीन चिट मिलने और राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित होने के बावजूद कीचड़ उछाल दिया।

बीते माह कारवां ने अपना 2020 का पुराना लेख पुनः प्रकाशित किया था और इसके जरिए नंबी नारायणन को एक जासूस और चोर बताया। पोर्टल ने ये आरोप पुनः लगा दिए कि नंबी ने क्रायोजेनिक इंजन की डिटेल्स और पार्ट्स की जानकारी पाकिस्तान और रूस जैसे देशों के साथ साझा करके राष्ट्रद्रोह किया था, जबकि इन्हीं सभी आरोपों में नंबी नारायणन देश की सर्वोच्च अदालत से क्लींन चिट पा चुके हैं, परंतु इससे वामपंथियों को क्या?

इस लेख में इतना विद्वेष भरा था कि पूछिए ही मत। नंबी चूंकि श्वेत वर्ण के हैं यानी गोरे प्रतीत होते हैं इसलिए उनका उपहास उड़ाते हुए कहा गया है कि ये किस एंगल से भारतीय हैं? कारवां मैगजीन के विद्वेषपूर्ण लेख के अंश के अनुसार– “एक वैज्ञानिक जो 1999 में भी 35000 रुपये प्रतिमाह कमाते थे, उसके दो महीने के टेलीफोन बिल 1994 में 45498 रुपये थे। कारवां के सूत्रों द्वारा एक्सेस किए गए कॉल रिकॉर्ड्स के अनुसार ये कॉल कजाकिस्तान और UAE किए गए। सीबीआई ने कभी इस जगह पर ध्यान ही नहीं दिया। एक अन्य आरोपी के अनुसार नंबी के Glavkosmos के Alexi Vassive के साथ भी कनेक्शन थे और CBI ने कभी इन अंतरराष्ट्रीय कनेक्शन पर जांच ही नहीं की।”

इसी विद्वेष को एक वामपंथी चलचित्र जन गण मन में बड़े ही प्रचुरता से चित्रित किया गया, जहां अभिनेता पृथ्वीराज सुकुमारन ने इसी मीडिया के दोहरे चरित्र पर प्रश्न उठाया और नंबी नारायणन का बिना नाम लिए अत्यंत मार्मिक उदाहरण दिया–

रॉकेट्री वही फिल्म है, जिसने अच्छे से अच्छे वामपंथी को कहीं का नहीं छोड़ा। इस फिल्म के कारण कई लोगों के रातों की नींद उड़ जाती है और इस फिल्म में वामपंथियों के स्याह पहलू को सबके समक्ष पेश किया था। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि टैब्लॉइड कल्चर भारत में अजब बदलाव लाया है। ये संस्कृति खुसुर पुसुर से प्रारंभ होकर अब एक विकराल रूप ले रही है और ये ठीक नहीं है। शीघ्र ही ये भारत के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी।

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