घर की मुर्गी दाल बराबर, ये कहावत आप सभी ने बचपन में बहुत बार सुनी होगी। कभी-कभी कुछ कृतियां ऐसी भी होती हैं जिनके बारे में जानते हुए भी हम उन्हें अनदेखा कर देते हैं। वहीं दूसरी तरफ तो कुछ लोगों को हम उनकी योग्यता से अधिक ही उन्हें मान दे देते हैं। अब मार्वल या डीसी को ही देख लीजिए, इन्हें तो हमारे देश के किशोर ऐसे नवाते हैं जैसे ये मंगल ग्रह से पधारे हों, जबकि ये आवश्यक नहीं कि इनकी कथाएं या कॉमिक महान हों। हैन्स एंडरसन, ओ हेनरी एवं एंटन चेखोव की लघु कथाओं के पीछे लोग एकदम लालायित रहते हैं, परंतु वहीं दूसरी ओर जब बात आती है अपने यहां की कृतियों को सम्मान देने की तो सबको सांप सूंघ जाता है।
एक ऐसी ही रचना है जिसे रचा गया कश्मीर में, जिसकी कीर्ति भारत से लेकर संसार के कोने-कोने में फैली, जिसकी चर्चा आज भी बचपन में कभी न कभी होती ही है, परंतु जिसे आत्मसात करना, और जिसे आज के परिप्रेक्ष्य में कूल या ट्रेंडी नहीं समझा जाता, अपितु इसे अमर चित्र कथा की भांति ‘ओल्ड फैशंड’ माना जाता है। इसे आश्चर्य कहें या विडंबना, परंतु संसार के सबसे अधिक अनुवादित और सबसे चर्चित कृतियों में से एक होने के बाद भी पंचतंत्र भारत में ही उतना सम्मानित नहीं जितना उसे होना चाहिए।
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पंचतंत्र में शिक्षाप्रद बातें हैं
पंचतंत्र की कई कहानियों में मनुष्य-पात्रों के अलावा कई बार पशु-पक्षियों को भी कथा का पात्र बनाया गया है तथा उनसे कई शिक्षाप्रद बातें कहलवाने की कोशिश की गयी है।
पंचतंत्र के सन् १४२९ के फारसी अनुवाद से एक पृष्ट
पंचतंत्र की कहानियां बहुत जीवन्त हैं। इनमें लोकव्यवहार को बहुत सरल रूप में समझाया गया है। बहुत से लोग इस पुस्तक को नेतृत्व क्षमता विकसित करने का एक सशक्त माध्यम मानते हैं। इस पुस्तक की महत्ता इसी से प्रतिपादित होती है कि इसका अनुवाद विश्व की लगभग हर भाषा में हो चुका है। यह भारत का सर्वाधिक बार अनूदित साहित्यिक रचना है।[3]
नीतिकथाओं में पंचतन्त्र का पहला स्थान है। पंचतन्त्र ही हितोपदेश की रचना का आधार है। स्वयं नारायण पण्डित जी ने स्वीकार किया है-
पञ्चतन्त्रात्तथाऽन्यस्माद् ग्रन्थादाकृष्य लिख्यते॥
— श्लोक सं.९, प्रस्ताविका, हितोपदेश
पंचतंत्र की मूल उत्पत्ति कब हुई, इसका कोई स्पष्ट समय नहीं है, कोई कहता है मौर्य काल में हुई, कोई कहता है गुप्त साम्राज्य के काल खंड में हुई। विभिन्न उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी के आस-पास निर्धारित की जाती है। परंतु वास्तव में रचना किस काल में हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि पंचतंत्र की मूल प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं है। कुछ विद्वानों ने पंचतंत्र के रचयिता एवं पंचतंत्र की भाषा शैली के आधर पर इसके रचनाकाल के विषय में अपने मत प्रस्तुत किए हैं।
महामहोपाध्याय पं॰ सदाशिव शास्त्री के अनुसार पंचतंत्र के रचयिता विष्णुशर्मा थे और कुछ जनश्रुतियों के अनुसार विष्णु शर्मा आचार्य चाणक्य का ही दूसरा नाम था।
हर्टेल और डॉ॰ कीथ, इसकी रचना 200 ई.पू. के बाद मानने के पक्ष में है। चाणक्य के अर्थशास्त्र का प्रभाव भी पंचतंत्र में दिखाई देता है इसके आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि चाणक्य का समय लगभग चतुर्थ शताब्दी पूर्व का है अतः पंचतंत्र की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व हुई होगी।
अतः कहने को पंचतंत्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हो सकती है और इसका रचना काल 300 ई.पू. माना जा सकता है। पर पाश्चात्य तथा कुछ भारतीय विद्वान् ऐसा नहीं मानते, उनका कथन है कि चाणक्य का दूसरा नाम विष्णुगुप्त था विष्णुशर्मा नहीं, तथा उपलब्ध पंचतंत्र की भाषा की दृष्टि से तो यह गुप्तकालीन रचना प्रतीत होती है।
महामहोपाध्याय पं॰ दुर्गाप्रसाद शर्मा ने विष्णुशर्मा का समय अष्टमशतक के मध्य भाग में माना है क्योंकि पंचतंत्र के प्रथम तंत्र में आठवीं शताब्दी के दामोदर गुप्त द्वारा रचित कुट्टनीमतम् की “पर्यङ्कः स्वास्तरणः” इत्यादि आर्या देखी जाती है। अतः यदि विष्णुशर्मा पंचतंत्र के रचयिता थे तो वे अष्टम शतक में हुए होंगे। परन्तु केवल उक्त श्लोक के आधर पर पंचतंत्र की रचना अष्टम शतक में नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह श्लोक किसी संस्करण में प्रक्षिप्त भी हो सकता है।
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संस्करण- पंचतंत्र के चार संस्करण उपलब्ध हैं-
प्रथम संस्करण मूलग्रन्थ का पहलवी अनुवाद है जो अब सीरियन एवं अरबी अनुवादों के रूप में प्राप्त होता है।
द्वितीय संस्करण के रूप में पंचतंत्र गुणाढ्यकृत ‘बृहत्कथा’ में दिखायी पड़ता है। ‘बृहत्कथा की रचना पैशाची भाषा में हुई थी किन्तु इसका मूलरूप नष्ट हो गया है और क्षेमेन्द्रकृत ‘बृहत्कथा मंजरी’ तथा सोमदेव लिखित ‘कथासरित्सागर’ उसी के अनुवाद हैं।
तृतीय संस्करण में तन्त्राख्यायिका एवं उससे सम्बद्ध जैन कथाओं का संग्रह है। ‘तन्त्राख्यायिका’ को सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। इसका मूल स्थान कश्मीर है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ॰ हर्टेल ने अत्यन्त श्रम के साथ इसके प्रामाणिक संस्करण को खोज निकाला था। इनके अनुसार ‘तंत्राख्यायिका’ या तंत्राख्या ही पंचतंत्र का मूलरूप है। यही आधुनिक युग का प्रचलित ‘पंचतंत्र’ है।
चतुर्थ संस्करण दक्षिणी ‘पंचतंत्र’ का मूलरूप है तथा इसका प्रतिनिधित्व नेपाली ‘पंचतंत्र’ एवं ‘हितोपदेश’ करते हैं।
इस प्रकार ‘पंचतंत्र’ एक ग्रन्थ न होकर एक विशाल साहित्य का प्रतिनिधि है।
विश्व-साहित्य में भी पंचतंत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इन अनुवादों में पहलवी भाषा का ‘करटकदमनक’ नाम का अनुवाद ही सबसे प्राचीन अनुवाद माना जाता है। विंटरनित्ज़ के अनुसार जर्मन साहित्य पर पंचतंत्र का अधिक प्रभाव देखा जाता है। कहते हैं इसी आधार पर यूनान यानी ग्रीस में ईसाप की कथाएं और अरब जगत में अरेबियन नाइट्स रचे गए थे। ऐसा माना जाता है कि पंचतंत्र का लगभग 50 विविध भाषाओं में अब तक अनुवाद हो चुका है और इसके लगभग 200 संस्करण भी हो चुके हैं। यही इसकी लोकप्रियता का परिचायक है। हिन्दी में इसका अनुवाद १९७० के आसपास आया और आते ही छा गया।
अब पंचतंत्र में पांच तंत्र या विभाग हैं। (पंचानाम् तन्त्राणाम् समाहारः – द्विगुसमास) विभाग को तंत्र इसलिए कहा गया है क्योंकि इनमें नैतिकतापूर्ण शासन की विधियां बतायी गयी हैं। ये तंत्र हैं- मित्रभेद, मित्रसम्प्राप्ति (मित्रलाभ), काकोलूकीयम् (सन्धि-विग्रह), लब्धप्रणाश एवं अपरीक्षितकारक।
संक्षेप में इन तंत्रों की विषयवस्तु इस प्रकार है-
मित्रभेद – इस तंत्र के अंतर्गत दक्षिण में महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति की कथा दी गयी है जिसमें यह बताया गया है कि वे अपने मूर्ख पुत्रों के कारण चिन्तित थे और इसलिए वे विष्णुशर्मा नामक विद्वान् को अपने पुत्रों को शिक्षित करने के लिए सौंप देते है और विष्णुशर्मा उन्हें छः मास में ही कथाओं के माध्यम से सुशिक्षित करने में सफल होते हैं।
तत्पश्चात् मित्रभेद नामक भाग की अंगी-कथा में, एक दुष्ट सियार द्वारा पिंगलक नामक सिंह के साथ संजीवक नामक बैल की शत्रुता उत्पन्न कराने का वर्णन है जिसे सिंह ने आपत्ति से बचाया था और अपने दो मंत्रियों- करकट और दमनक के विरोध करने पर भी उसे अपना मित्र बना लिया था। इस तंत्र में अनेक प्रकार की शिक्षाएं दी गयी हैं जैसे कि धैर्य से व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति का भी सामना कर सकता है अतः प्रारब्ध के बिगड़ जाने पर भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिए।
त्याज्यं न धैर्यं विधुरेऽपि काले धैर्यात्कदाचित् गतिमाप्नुयात्सः (मित्रभेद, श्लोक 345)
मित्रसम्प्राप्ति– इस तंत्र में मित्र की प्राप्ति से कितना सुख एवं आनन्दप्राप्त होता है वह कपोतराज चित्रग्रीव की कथा के माध्यम से बताया गया है। विपत्ति में मित्र ही सहायता करता है।
सर्वेषामेव मर्त्यानां व्यसने समुपस्थिते।
वाड्मात्रेणापि साहाय्यंमित्रादन्यो न संदधे॥ (मित्रसम्प्राप्ति श्लोक 12)
ऐसा कहा गया है कि मित्र का घर में आना स्वर्ग से भी अधिक सुख को देता है।
सुहृदो भवने यस्य समागच्छन्ति नित्यशः।
चित्ते च तस्य सौख्यस्य न किंचत्प्रतिमं सुखम्॥ (मित्रसम्प्राप्ति श्लोक 18)
इस प्रकार इस तंत्र का उपदेश यह है कि उपयोगी मित्र ही बनाने चाहिए जिस प्रकार कौआ, कछुआ, हिरण और चूहा मित्रता के बल पर ही सुखी रहे।
काकोलूकीय– इसमें उस चर्चित कथा का उल्लेख होता है, जहां इसमें युद्ध और सन्धि का वर्णन करते हुए उल्लुओं की गुहा को कौओं द्वारा जला देने की कथा कही गयी है। इसमें यह बताया गया है कि स्वार्थसिद्धि के लिए शत्रु को भी मित्र बना लेना चाहिए और बाद में धोखा देकर उसे नष्ट कर देना चाहिए। इस त्र में भी कौआ उल्लू से मित्रता कर लेता है और बाद में उल्लू के किले में आग लगवा देता है। इसलिए शत्रुओं से सावधन रहना चाहिए क्योंकि जो मनुष्य आलस्य में पड़कर स्वच्छन्दता से बढ़ते हुए शत्रु और रोग की उपेक्षा करता है, उसे रोकने की चेष्टा नहीं करता वह क्रमशः उसी (शत्रु अथवा रोग) से मारा जाता है।
य उपेक्षेत शत्रु स्वं प्रसरस्तं यदृच्छया।
रोग चाऽलस्यसंयुक्तः स शनैस्तेन हन्यते॥ (काकोलूकीय श्लोक 2)
लब्धप्रणाश– इस तंत्र के अंतर्गत वानर और मगरमच्छ की मुख्य कथा है और अन्य अवान्तर कथाएं हैं। इन कथाओं में यह बताया गया है कि लब्ध अर्थात् अभीष्ट की प्राप्ति होते-होते कैसे रह गयी अर्थात नष्ट हो गयी। इसमें वानर और मगरमच्छ की कथा के माध्यम से शिक्षा दी गयी है कि बुद्धिमान अपने बुद्धिबल से जीत जाता है और मूर्ख हाथ में आई हुई वस्तु से भी वंचित रह जाता है।
अपरीक्षितकारक- पंचतंत्र के इस अंतिम तंत्र अर्थात् भाग में विशेष रूप से विचार पूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर बल दिया गया है क्योंकि अच्छी तरह विचार किए बिना एवं भलीभांति देखे सुने बिना किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती अपितु जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः अंधानुकरण नहीं करना चाहिए। इस तंत्र की मुख्य कथा में बिना सोचे समझे अंधानुकरण करने वाले एक नाई की कथा है जिसको मणिभद्र नाम के सेठ का अनुकरण कर जैन-संन्यासियों के वध के दोष के लिए न्यायाधीशों द्वारा मृत्युदण्ड दिया गया। अतः बिना परीक्षा किए हुए नाई के समान अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए-
कुदृष्टं कुपरिज्ञातं कुश्रुतं कुपरीक्षितम्।
तन्नरेण न कर्त्तव्यं नापितेनात्र यत् कृतम्॥ (अपरीक्षितकारक श्लोक-1)
इसमें यह भी बताया गया है कि पूरी जानकारी के बिना भी कोई कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि बाद में पछताना पड़ता है जैसे कि ब्राह्मण पत्नी ने बिना कुछ देखे खून से लथपथ नेवले को यह सोचकर मार दिया कि इसने मेरे पुत्र को खा लिया है वस्तुतः नेवले ने तो सांप से बच्चे की रक्षा करने के लिए सांप को मारा था जिससे उसका मुख खून से सना हुआ था।
इसलिए कहा गया-
अपरीक्ष्य न कर्तव्यं कर्तव्यं सुपरीक्षितम्।
पश्चाद्भवति सन्तापो ब्राह्मण्या नकुले यथा॥ (अपरीक्षित कारक श्लोक-17)
पंचतंत्र में उक्त कथाओं के अतिरिक्त बहुत सी कहानियों का संग्रह है| इस प्रकार पंचतंत्र एक उपदेशपरक रचना है। इसमें लेखक ने अपनी व्यवहार कुशलता राजनैतिकपटुता एवं ज्ञान का परिचय दिया है।
इसीलिए पंचतंत्र के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि-
“पंचतंत्र एक नीति शास्त्र या नीति ग्रन्थ है- नीति का अर्थ जीवन में बुद्धि पूर्वक व्यवहार करना है। चतुरता और धूर्तता नहीं, नैतिक जीवन वह जीवन है जिसमें मनुष्य की समस्त शक्तियों और सम्भावनाओं का विकास हो अर्थात् एक ऐसे जीवन की प्राप्ति हो जिसमें आत्मरक्षा, धन-समृद्धि, सत्कर्म, मित्रता एवं विद्या की प्राप्ति हो सके और इनका इस प्रकार समन्वय किया गया हो कि जिससे आनंद की प्राप्ति हो सके, इसी प्रकार के जीवन की प्राप्ति के लिए, पंचतंत्र में चतुर एवं बुद्धिमान पशु-पक्षियों के कार्य व्यापारों से सम्बद्ध कहानियां ग्रथित की गई हैं। पंचतंत्र की परम्परा के अनुसार भी इसकी रचना एक राजा के उन्मार्गगामी पुत्रों की शिक्षा के लिए की गयी है और लेखक इसमें पूर्ण सफल रहा है।” –
परंतु इसके बाद भी पंचतंत्र को उतना सम्मान नहीं मिला, जिसकाा वह योग्य था। आज भी कुछ लोग इसे हेय की दृष्टि से देखते हैं, जबकि पंचतंत्र में जीवन के अनेक गूढ़ रहस्यों को इतनी सरलता से समझाया गया है जितना बड़े से बड़े मनोचिकित्सक थेरेपी देकर भी नहीं कर पाएं और यह मज़ाक नहीं है।
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