चार्ल्स डार्विन की “ओरिजिन ऑव स्पीशीज़” नामक पुस्तक से पूर्व साधारण धारणा यह थी कि सभी जीवधारियों को किसी दैवीय शक्ति (ईश्वर) ने उत्पन्न किया है तथा उनकी संख्या, रूप और आकृति सदा से ही निश्चित रही है। परंतु उक्त पुस्तक के प्रकाशन (सन् 1859) के पश्चात विकासवाद ने इस धारणा का स्थान ग्रहण कर लिया और फिर अन्य जंतुओं की भांति मनुष्य के लिए भी यह प्रश्न साधारणतया पूछा जाने लगा कि उसका विकास कब और किस जंतु अथवा जंतु समूह से हुआ। वहीं समय के साथ मानव अपने अस्तित्व को भुनाने में कामयाब रहे और एक समय पर विभिन्न जनजातियों में वर्गीकृत वनमानुष मानव का रूप धरने में सफल हुए। इस भौतिक प्रवृत्ति को सबने अपनाया पर फिर भी कुछ एक जनजाति रह गईं जो आज भी सदियों पुरानी अपनी परिधि में जीवनयापन कर रहे हैं। ऐसी ही एक प्रहरी जनजाति जो वास्तव में अंतिम जनजाति बची हैं जो सभ्य समाज और आज के समाज से दूर रहना चाहती हैं।
यूं तो जनजाति शब्द का प्रयोग सामान्य मनुष्य से इतर एक विशेष समूह को इंगित करने के लिए किया जाता है। मुख्य रूप से यह एक अद्वितीय सामाजिक संरचना का पालन करते हैं। उन्होंने समय-काल-परिस्थिति के बदलाव के बाद भी अपनी संस्कृति को संरक्षित किया है और उसी में रहना चाहते हैं। आधुनिकीकरण और उपभोक्तावाद की दौड़ में शामिल हुए बिना वे प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व में रह रहे हैं। भारत में कई ऐसी जनजातियां हैं जिन्होंने परंपरागत रूप से प्रकृति के अनुरूप अपनी संस्कृति का पालन किया है और आधुनिकता के साथ घुलने मिलने से इनकार कर दिया है।
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भारत में जनजाति समुदाय की आबादी
वास्तव में इन जनजाति समूह के लोग आम समाज से घुलने-मिलने से परहेज़ करते हैं। अब भले ही वो जनजाति हैं पर हैं तो इसी देश के निवासी। इसलिए भारत सरकार ने उनकी विशिष्ट पहचान को बनाए रखने के लिए विभिन्न नियम और कानून बनाए हैं। यूं यो जनजाति समूहों की भारत में कोई कमी नहीं है। जनजाति आबादी पूरे भारत में मुख्य भूमि में बिखरी हुई है- लगभग सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में। अधिकतम जनजाति बस्तियों वाले स्थान मिजोरम (जनसंख्या का 94.4%), लक्षद्वीप (94%), मेघालय (86.1%) और नागालैंड (86.5%) हैं। मध्य प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, असम और पश्चिम बंगाल में भी महत्वपूर्ण जनजाति बस्तियां हैं। व्यापक दृष्टिकोण से अनुसूचित जनजाति भारत में कुल जनसंख्या का 8.6% है।
इन सभी में सबसे अलग जनजाति प्रहरी है जिन्हें अंग्रेज़ी में सेंटिनली (Senitels) कहा जाता है। यह लोग अंडमान के उत्तर सेंटिनल द्वीप पर रहने वाली निग्रिटो (अश्वेत तथा छोटे कद वाले) समुदाय के है। इन्होंने कभी भी आकस्मिक हमले का सामना नहीं किया है पर बाहरी लोगों से यह शत्रुवत व्यवहार करते हैं। शोधकर्त्ताओं के अनुसार यह लोग शारीरिक बनावट तथा भाषाई समानताओं के आधार पर जारवा समुदाय से जुड़े हुए हैं। प्रहरी के अलावा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पांच अन्य जनजातियों का निवास क्षेत्र है- ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंगे, शोम्पेन और निकोबारी। प्रहरी ही एक मात्र ऐसी जनजाति है जिसने बाहरी समाज से कोई नाता न कभी रखा है, न रखते हैं और न ही आगे रखेंगे। उनकी भावना यथावत शत्रुपूर्ण बनी रही है।
अंडमान-निकोबार की प्रहरी जनजाति
एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट 2016 ने अपने ‘कमजोर जनजाति समूहों’ में अनुमान लगाया है कि प्रहरी की आबादी 100 और 150 के बीच होगी। यह ज्यादातर शिकारी गतिविधियों में लगे हुए हैं। वे अभी भी शिकार के लिए धनुष और तीर का उपयोग करते हैं। वे आदिम संस्कृति में रह रहे हैं जहां भंडारण या व्यवसाय की अवधारणा मौजूद नहीं है। यहां तक कि कृषि पद्धतियां भी उनकी संस्कृति तक नहीं पहुंच पाई हैं। आदिम प्रकृति के अनुसार वे या तो अपने शरीर को पेड़ के पत्तों से ढक लेते हैं या ज्यादातर नग्न रहते हैं। पाषाण युग की तरह, वे हार और सीपियों से बने हेडबैंड जैसे आभूषण पहनते हैं। इनके बाणों और धनुषों से भी अनुपम कला का प्रयोग बताया गया है। वे अपने हथियारों पर सरल ज्यामितीय कलाएं उकेरते हैं।
वैसे तो प्रहरी जनजाति के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए कई प्रयास किए गए थे। परंतु पहली दर्ज की गई यात्रा 1867 में एक औपनिवेशिक अधिकारी यिर्मयाह होमफ्रे द्वारा दर्ज की गई थी। इसके अलावा 1880 में रॉयल नेवी अधिकारी मौरिस विडाल पोर्टमैन ने द्वीप पर एक सशस्त्र अभियान का नेतृत्व किया था।
खतरे को देखते हुए, पूरे सेंटिएनेलिस ने अपने निवास क्षेत्र को छोड़ दिया। कई दिनों की तलाशी के बाद अधिकारियों ने छह प्रहरी, जिनमें एक बुजुर्ग व्यक्ति, एक महिला और चार बच्चों शामिल थे, उनको पकड़ लिया। जब उन्हें अंडमान और निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर लाया गया, तो महिला की मृत्यु हो गई और बच्चे बीमार पड़ गए। स्थिति को देखते हुए अच्छे संबंध स्थापित करने के लिए औपनिवेशिक अधिकारियों ने उन्हें भारी उपहारों के साथ वापस भेज दिया।
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भारत की स्वतंत्रता के बाद सरकार ने 1956 में उत्तर प्रहरी द्वीप, प्रहरी का निवास द्वीप, एक आदिवासी आरक्षित घोषित किया। द्वीप के 3 समुद्री मील के भीतर यात्रा करना और फोटोग्राफी को निषिद्ध घोषित किया गया था। मिशनरी के आदिवासी क्षेत्र के लगातार दौरे को ध्यान में रखते हुए 1967 में 20 लोगों के एक समूह में सशस्त्र अधिकारी शामिल थे, राज्यपाल और मानवविज्ञानी ने संपर्क स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन वे उनका पता लगाने में विफल रहे।
बाद में 1991 में प्रहरी के साथ पहला शांतिपूर्ण संपर्क स्थापित किया गया था। मधुमाला चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में मानवविज्ञानियों की एक टीम ने 4 जनवरी 1991 को द्वीप का दौरा किया। इस पहले शांतिपूर्ण इशारे में उन्होंने नारियल एकत्र किए। नवंबर 2018 में जॉन एलन चाउ नाम के एक 26 वर्षीय अमेरिकी ने संपर्क स्थापित करने के इरादे से उत्तर प्रहरी द्वीप की यात्रा की।
रिपोर्टों से पता चलता है कि उन्हें प्रशिक्षित किया गया था और उन्हें परिवर्तित करने के लिए अमेरिका स्थित ईसाई मिशनरी संगठन ऑल नेशंस द्वारा भेजा गया था। 15 नवंबर को एलन चाऊ ने स्थानीय मछुआरों की मदद से द्वीप का दौरा किया और प्रहरी के साथ संवाद करने की कोशिश की।
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उन्होंने उपहार देने और कुछ मूल भाषा में बोलने की कोशिश की लेकिन प्रयास विफल रहा। जब एक प्रहरी लड़के ने उस पर तीर चलाया तो वह पीछे हट गया। उन्होंने 17 नवंबर को फिर से द्वीप का दौरा करने की कोशिश की। इस बार वह स्थानीय मछुआरों के बिना अकेले चला गया। कुछ समय बाद मछुआरों ने देखा कि प्रहरी चाऊ के उसके शरीर को खींच रहे थे और बाद में वह द्वीप के किनारे पर पाया गया।
तब से सरकार ने द्वीप पर निगरानी बढ़ा दी है और उन्हें बाहर से बचाने की कोशिश कर रही है। चूंकि प्रहरी अपने द्वीप पर शांति से रहना चाहते हैं, इसलिए उन्हें अपने आदिम अस्तित्व में रहने देना ही समझदारी और दोनों समाजों की बेहतरी होगी।
यह तो तय है कि प्रहरी वास्तव में अपनी जनजाति के असली प्रहरी हैं जो समय के साथ भौतिक सुखों के पीछे न भागते हुए अपनी कला, संस्कृति और अस्तित्व को जस का तस बनाए रखते हुए उसकी रक्षा में डटे हुए हैं वरना लालच क्या नहीं करवा सकता था पर नहीं उन्होंने वही चुना जो उनके समाज के लिए उन्हें ठीक लगा।
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