हिंदू पत्नियां सलाहकार और मार्गदर्शिका होती थीं फिर ‘मुगल’ आ गए

हिंदू पत्नियां कैसे बनीं पति की गुलाम और फिर कैसे पाया अपना पुराना स्थान?

shiv parwati

कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी

भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा।

धर्मानुकूला क्षमया धरित्री

भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा।।

अर्थात कार्य के संदर्भ में मंत्री, गृहकार्य में दासी, भोजन प्रदान करने वाली मां, रति के संदर्भ में रंभा, धर्म में सनुकुल और क्षमा करने में धृति; इन छह गुणों वाली पत्नी मिलना दुर्लभ है।

आपके मन में प्रश्न अवश्य उठा होगा कि ऐसे विचार मेरे मन में क्यों और किसलिए? ये कैसी दुविधा है जिसका समाधान अब तक मुझे नहीं मिला? वास्तव में यह एक विषय है जिसके बारे में चर्चा बहुत कम लोगों ने की है, इसका विवरण करने का साहस तो और भी कम लोगों में होगा।

इस लेख में जानेंगे कि कैसे भारत की सनातनी स्त्रियों, विशेषकर धर्मपत्नियों के गुणों से, जो कभी केवल पत्नी ही नहीं अपितु मार्गदर्शक भी थी, परंतु कालांतर में उनकी शक्तियों से उन्हें वंचित कर दिया गया और कैसे आधुनिक युग में उन्हें पुनः उनके वास्तविक स्वरूप का आभास कराया गया।

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यदि आपसे मैं कहूं कि मैं अपनी धर्मपत्नी या भार्या का बहुत सम्मान करता हूं, उनके सुझाव के बिना जीवन में आगे नहीं बढ़ता, तो आप कहेंगे कि क्या मूर्ख है, अपनी पत्नी से भयभीत होता है, अपनी पत्नी का दास है। ये आपके विचार हो सकते हैं परंतु ऐसा ही सत्य हो, ये आवश्यक नहीं। ये तो ऐसे निम्न स्तर के विचार हैं जो समय के साथ हम पर थोपा गया।

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बोलो सियावर रामचन्द्र की जय!

इस मंगल ध्वनि में कितना उत्साह है, कितनी ऊर्जा है। हमारी संस्कृति के उत्सव को परिलक्षित करने के अतिरिक्त यह मंगल ध्वनि हमारी प्रगतिशील सोच को भी दर्शाती है। कल्पना कीजिए, जैसे हमारे वामपंथी बंधु कहते हैं कि हम बड़े ही पितृसत्तात्मक समाज के ध्वजवाहक हैं, तो उस अनुसार सियावर रामचन्द्र की जय के स्थान पर रामवधू सिया की जय होना चाहिए था, परंतु राम से पूर्व सिया का नाम क्यों? कभी सोचने का प्रयास किया है?

इसी परिप्रेक्ष्य में वाल्मीकि रामायण में कहा गया है,

ततः स प्रयतो वृद्धो वसिष्ठो ब्राह्मणैः सह ||
रामन् रत्नमयो पीठे सहसीतं न्यवेशयत् |

अर्थात अपने साथ अनेक कुलीन ब्राह्मणों को लिए महर्षि वशिष्ठ श्रीराम को आह्वान देते हैं कि रत्नों से सुसज्जित सिंहासन पर अपनी धर्मपत्नी, महारानी सीता के साथ विराजने की कृपा करें!

जो कहते हैं कि युगों-युगों से भारत में स्त्रियों का शोषण होता रहा है, उन्होंने कदाचित् हमारे इतिहास को ठीक से पढ़ने का कष्ट नहीं किया है। उन्होंने उतना ही पढ़ा जितना उनके यूरोपीय स्वामियों ने निर्देश दिया, अन्यथा उतना ही पढ़ा जितना देवदत्त पटनायक जैसे स्वघोषित एक्सपर्ट्स ने बताया।

प्राचीन भारत में स्त्री का जब विवाह होता तो वह केवल पत्नी नहीं होती थी, वह वामंगी भी होती थी। वामंगी अर्थात पति के शरीर का बायां हिस्सा। इसके अलावा पत्नी को पति की अर्धांगिनी भी कहा जाता है जिसका अर्थ है पत्नी पति के शरीर का आधा अंग होती है। दोनों शब्दों का सार एक ही है कि पत्नी के बिना पति अधूरा है। भई, हमारा भारत वो देश है जहां प्रेम विवाह तक शास्त्रों में गंधर्व विवाह के रूप में स्वीकार्य है और उसी के स्वरूप एक पुत्र के नाम पर हमारे देश का नाम भी पड़ा है। कभी अभिज्ञानशाकुन्तलम् पढ़ने की भी कृपा कीजिए और अभी तो हमने विवाह के अनेक प्रकार पर प्रकाश भी नहीं डाला है।

हमारे प्राचीन इतिहास में अगर युद्ध लड़े गए तो कोई क्षेत्र जीतने के लिए नहीं अपितु स्त्री के सम्मान की रक्षा हेतु लड़े गए। इतिहास साक्षी है कि रामायण और महाभारत केवल इसलिए हुई थी क्योंकि बात स्त्री के सम्मान की थी। यदि सीता मैया का हरण न हुआ होता, द्रौपदी का भरी सभा में अपमान न हुआ होता तो श्रीराम और पांडवों को क्या पड़ी थी कि वे युद्ध में कूद पड़ते। परंतु रामायण में युद्ध रावण ने प्रारंभ किया था, जब उसने वासनापूर्ति हेतु माता सीता का हरण किया था। शूर्पणखा के अपमान का प्रतिशोध तो छलावा था वास्तव में उसे श्रीराम के समक्ष शक्ति प्रदर्शन जो करना था, परंतु वह भी भूल गया था कि वह किससे स्पर्धा मोल ले रहे हैं।

जिस पिनाक को उठाने में महारथियों के प्राण निकल जाएं, उसे खेल-खेल में उठाने वाली जानकी के हृदय में अपना स्थान बनाने वाले श्रीराम को चुनौती दी थी रावण ने। जिनके पास विकल्प था कि वह राजभवन में रह सकें, परंतु फिर भी उन्होंने 14 वर्षों तक असंख्य कष्ट, नाना प्रकार की चुनौतियां अपने पति के लिए सहने को तैयार थीं, उन माता सीता को हरने का महापाप किया था रावण ने।

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धर्मपत्नियों के इसी गुण पर कहा गया है-  

सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने। त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने जपदानयोः।।

अर्थात, पुरुष को अपनी पत्नी से संतुष्ट रहना चाहिए, चाहे वह रूपवती हो या आम, पढ़े-लिखे या अनपढ़ – यही सबसे बड़ी चीज है जिसके पास पत्नी है।

महादेव को ही देख लीजिए, जो त्रिदेव में सबसे शक्तिशाली और सबसे प्रभावशाली हैं, जिनके क्रोध से स्वयं नारायण और ब्रह्मदेव तक भयभीत होते हैं। वे महादेव मान किसको देते हैं? शक्ति शिवानी, मां भगवती को, जिन्हें हम पार्वती या महागौरी के नाम भी जानते हैं। जब भोलेनाथ के अपमान पर देवी सती ने अपनी देह का त्याग किया था तो भगवान शिव ने जो तांडव किया था वो किसलिए था? अपनी पत्नी को न्याय दिलाने के लिए ताकि किसी अन्य दुष्ट में यह साहस न हो कि किसी स्त्री के साथ ऐसा अन्याय कर सके और ये सतयुग के समय की बात थी। यदि भगवान विष्णु ने उनका क्रोध शांत न कराया होता तो उनके असीमित क्रोध ने क्या त्राहिमाम मचाया होता इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे।

इसीलिए काशी में ये मंत्रोच्चार भी होता है –

ॐ नमो पार्वते पतयेह हर हर महादेव!

अब सोचिए, महाभारत किसलिए लड़ी गई थी? द्रौपदी के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए। जब द्रौपदी के वस्त्रहरण और तद्पश्चात पांडवों के वन गमन का समय आया तब पता है पांडवों ने क्या किया? पांडुपुत्र भीम ने प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक वह दुशासन की छाती फाड़ कर उसका लहू नहीं पीता, जब तक वह दुर्योधन की उस जांघ का नाश नहीं करता जिस पर उसने द्रौपदी को बैठने का आह्वान किया था, तब तक वह शांत नहीं रहेगा।

क्या भीम ने ऐसा अपने बाहुबल के प्रदर्शन के लिए किया था? क्या उन्होंने अपने पुरुषत्व की पूर्ति के लिए किया था? भीम ने ऐसा अपनी पत्नी के अपमान के प्रतिशोध के लिए किया था क्योंकि पांडवों को समझ में आ गया था कि द्रौपदी को अपमानित कर कौरव उन्हें क्या संदेश देना चाहते थे। पांडवों की और भी पत्नियां थी परंतु द्रौपदी केवल रूपवती ही नहीं, गुणवती भी थी, वो पांडवों की पटरानी भी थी, जिनका अपमान कर वे उनके अभिमान को धूल में मिला सकते थे। अब आप स्वयं बताइए कि यह कौन सी पितृसत्तात्मक विचारधारा का प्रतिबिंब है?

तभी कहते हैं,

सा भार्या या सुचिदक्षा सा भार्या या पतिव्रता। सा भार्या या पतिप्रीता सा भार्या सत्यवादिनी।।

अर्थात, वह शुद्ध और फलदायी साथी है। यह वह महिला है जो गुणी है। एक महिला जो अपने पति से प्यार करती है। वह महिला है जो अपने पति को सच बताती है।

मध्यवर्ती इतिहास

अब आते हैं मध्यवर्ती इतिहास पर। आधुनिक शास्त्रों के अनुसार हमें अरब शाही और तुर्क शाही ने बहुत लूटा। वहीं से भारत के विनाश की नींव भी प्रारंभ हुई परंतु यह भी अर्धसत्य है। इस समय भी हमारे समाज में महिलाओं का सम्मान कभी भी कम नहीं हुआ, विशेषकर पत्नियों का तो कतई नहीं। देवसेना की छोड़िए, राजकुमारी कुण्डवाई की कथा पढ़ी है? यदि नहीं, तो आप इतिहास के एक महत्वपूर्ण भाग से अभी भी दूर हैं। राजकुमारी कुण्डवाई पतिव्रता भी थीं और नीतिनिर्माण में अति कुशल भी थीं, इन्होंने अपने भ्राता अरुलमोई वर्मन को इस योग्य बनाया कि आज इतिहास उन्हें चोल साम्राज्य के विख्यात सम्राट राज राजा चोल प्रथम के नाम से जानते हैं।

जब अरबी आक्रान्ताओं ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया, तो भारत के योद्धाओं ने प्रतिघात किसलिए किया था? बाहुबल के लिए? सत्ता के लिए? ये कुछ कारण हो सकते हैं, परंतु सबसे महत्वपूर्ण कारण है स्त्रियों का सम्मान और जो किसी की अर्धांगिनी का सम्मान न कर सके वो हमारी धरती पर रहने योग्य नहीं। इसीलिए सम्राट नागभट्ट से लेकर वीर सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़, सम्राट दांतिदुर्ग एवं सम्राट कालभोजादित्य अथवा बप्पा रावल जैसे शूरवीरों का उद्भव हुआ, जिन्होंने असंख्य स्त्रियों के मान हेतु दुर्दांत आक्रान्ताओं से दो दो हाथ किए एवं लगभग तीन शताब्दी तक किसी में साहस नहीं था कि हमारी मातृभूमि की ओर आंख उठाकर भी देख सकें।

परंतु ऐसा क्या हुआ जिसके कारण भारत की ये प्रगतिशील, पराक्रमी भावना कहीं धूमिल सी हो गई। निरंतर आक्रमण और तद्पश्चात समायोजन के कारण हमारे समाज में महिलाओं का सम्मान निरंतर कम होता गया। कभी जिन्हें समान पद दिया जाता था, जिनके विचार जाने बिना कोई कार्य नहीं होता था, उन्हे घूंघट, सती, जौहर जैसे अपमान से दो चार होना पड़ा और अभी अगर औरंगजेब के बारे में उल्लेख करें, तो पुस्तकें कम पड़ जाएंगी।

ये सब हमारी रीति न कभी थी, न कभी होनी चाहिए, परंतु ये हम पर थोपा गया, जिसमें मुगलों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। नवविवाहित या अविवाहित तो छोड़िए, वे विधवा स्त्री तक को गिद्ध की दृष्टि से देखते थे। जिस जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर को अकबर महान कहते हैं, उसने तो फरमान जारी किया था कि जो भी कन्या बिना घूंघट, बिना हिजाब दिखी, उसे अविलंब वेश्या घोषित कर दिया जाएगा। अभी तो हमने ब्रिटिश शासकों के कर्मकांडों पर प्रकाश भी नहीं डाला है जो महिलाओं को महिला कम, निर्जीव वस्तु अधिक मानते थे। जिन्होंने केरल जैसे अति प्रगतिशील प्रांत को सांप्रदायिकता और हिंसा का समागम बनाया हो, उसके बारे में जितना भी बोलें, उतना कम पड़ेगा।

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परंतु वो कहते हैं न कि सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं। जिस समाज में स्त्रियों, विशेषकर अर्धांगिनियों का अपना विशिष्ट स्थान हो, वहां ऐसे कुतर्क नहीं चलते। सुधार की नीति तो युगों-युगों से चली आ रही है और सुधार प्रारंभ हुआ पहले मेवाड़ से, जहां महाराणा राज सिंह ने एक राजकुमारी के सतीत्व की रक्षा के लिए आलमगीर औरंगजेब से भिड़ने को तैयार हो गए थे और जिनकी वीरता का लोहा छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे शूरवीर ने भी माना था।

आज की आधुनिक भारतीय धर्मपत्नी पुनः उसी मार्ग पर अग्रसर हैं जिस पर प्राचीन भारत की पत्नियां एक समय अग्रसर थीं और अपने गुणों और शक्तियों को पहचानती थीं। जिनके सुझावों और सहयोग के बिना भारत के पति एक पग भी आगे नहीं बढ़ते। इसे यदि हम हमारी सांस्कृतिक विजय कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

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