कुछ रत्न बहुमूल्य इसलिए नहीं होते कि वह बहुमूल्य पदार्थों से बने होते हैं अपितु इसलिए होते हैं क्योंकि वह अपने स्वामी स्वयं चुनते हैं। ऐसा ही एक बहुमूल्य रत्न है कोहिनूर, जिसकी पुनः प्राप्ति की मांग के लिए अनेक भारतीय सदियों से मांग उठाते आए हैं और जो अनेकों योद्धाओं और राजाओं के हाथों से होते हुए अब ब्रिटिश साम्राज्य के हाथों में जा पहुंचा है। परंतु इसका असली स्थान कहां है? यह जानकर आप स्तब्ध हो जाओगे क्योंकि कोहिनूर की उत्पत्ति ऐसी है, जिसे सुनकर शायद कुछ अगर कार्तिकेय 3 की पटकथा लिखने लगे तो आश्चर्य मत जताइएगा।
वास्तव में कोहिनूर इस दुर्लभ मणि का अरबी नाम है। यह मणि वही स्यमन्तक मणि है, जिसके बारे में हम बचपन में अपनी पौराणिक कथाओं में सुनते आए थे। विश्वास नहीं होता न? परंतु यही सत्य है। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। स्यमन्तक मणि एक दुर्लभ, आध्यात्मिक मणि है, जिसमें एक सूक्ष्म शक्ति होती है, जो कि आध्यात्मिक और सांसारिक प्रगति में सहायक करती है। इसकी कथा द्वापर युग से बतायी जाती है।
अब इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? एक समय जरासन्ध के अत्याचार के कारण भगवान श्रीकृष्ण समुद्र के निकट नगरी बसाकर रहने लगे। इसी नगरी का नाम आजकल द्वारका है। द्वारकापुरी में निवास करने वाले सत्रहजित ने सूर्य नारायण की आराधना की। तब भगवान सूर्य ने उन्हें नित्य आठ भार सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतारकर दे दी। इस मणि में सूर्य समान तेज था यानी इसे कहीं अंधकार में रख दो तो सूर्य समान प्रकाश दिखाई देता था।
मणि पाकर सत्रहजित जब समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उत्सुकतावश उस मणि को देखना चाहा। परंतु सत्रहजित को प्रतीत हुआ कि श्रीकृष्ण उनसे वह मणि प्राप्त करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने वह मणि दी नहीं। एक दिन सत्रहजित के अनुज प्रसेनजित घोड़े पर चढ़कर आखेट के लिए गए और वह स्यमन्तक मणि पहनकर निकले थे, क्योंकि उनके अग्रज उनकी इच्छा को कैसे टालते। परंतु वहां एक शेर ने उन्हें मार डाला और मणि ले ली। अब संयोग कहिए या प्रभु की रीति, रीछों के राजा जामवंत उस सिंह को मारकर मणि लेकर गुफा में चले गए। जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से नहीं लौटे तो सत्रहजित को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने सोचा कि श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उनका वध कर दिया होगा। अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उन्होंने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है।
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इस लोक-निन्दा से श्रीकृष्ण क्रुद्ध हुए परंतु इसके निवारण हेतु श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहां पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वो जामवंत की गुफा पर पहुंचे और गुफा के भीतर चले गए। वहां उन्होंने देखा कि जामवंत की पुत्री उस मणि से खेल रही है। उसके चीख पर जामवंत अपने विश्राम स्थल से बाहर निकले और श्रीकृष्ण को देखते ही युद्ध के लिए तैयार हो गए।
युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी सात दिन तक प्रतीक्षा की। फिर वे लोग उन्हें मर गया जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारकापुरी लौट गए। इधर इक्कीस दिन तक लगातार युद्ध करने पर भी जामवंत, श्रीकृष्ण को पराजित नहीं कर सके। तब उन्होंने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह पुष्टि होने पर उन्होंने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी। श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्रहजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुए।
कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा ने सत्रहजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्रहजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तो वो तत्काल द्वारका पहुंचे। वो शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए। इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई। बलरामजी भी वहां पहुंचे।
श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। बलराम जी को विश्वास नहीं हुआ। वो अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया। श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहां नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्ण जी को बताया कि आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन किया था। इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।
श्रीकृष्ण ने पूछा कि चौथ के चंद्रमा को ऐसा क्या हो गया है जिसके कारण उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कलंकित होता है। तब नारद जी बोले, एक बार ब्रह्माजी ने चतुर्थी के दिन गणेश जी का व्रत किया था। गणेश जी ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा तो उन्होंने मांगा कि मुझे सृष्टि की रचना करने का मोह न हो। गणेश जी ज्यों ही ‘तथास्तु’ कहकर चलने लगे, उनके विचित्र व्यक्तित्व को देखकर चंद्रमा ने उपहास किया। इस पर गणेशजी ने रुष्ट होकर चंद्रमा को शाप दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।
शाप देकर गणेश जी अपने लोक चले गए और चंद्रमा मानसरोवर की कुमुदिनियों में जा छिपा। चंद्रमा के बिना प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। उनके कष्ट को देखकर ब्रह्मा जी की आज्ञा से सारे देवताओं के व्रत से प्रसन्न होकर गणेश जी ने वरदान दिया कि अब चंद्रमा शाप से मुक्त तो हो जाएगा पर भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को जो भी चंद्रमा के दर्शन करेगा, उस पर चोरी आदि का झूठा लांछन जरूर लगेगा। किन्तु जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया को दर्शन करता रहेगा, वह इस लांछन से बच जाएगा। इस चतुर्थी को सिद्धि विनायक व्रत करने से सारे दोष छूट जाएंगे। यह सुनकर देवता अपने-अपने स्थान को चले गए। नारद जी ने भगवान श्रीकृष्ण को बताया कि इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करने से आपको यह कलंक लगा है। तब श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने के लिए यही व्रत किया था।
अब ये तो हुई स्यमन्तक मणि के उत्पत्ति और श्रीकृष्ण से उसके नाते की बात परंतु इसका वर्तमान कोहिनूर से क्या संबंध? जैसा कि हमने पूर्व में बताया है कि कुछ रत्न अपने स्वामी स्वयं चुनते हैं और स्यमन्तक मणि अथवा कोहिनूर भी उन्हीं में से एक है। ऐतिहासिक तौर पर इसका उद्गम भी बड़ा अनोखा है। अब स्यमन्तक मणि को लोग माने न माने लेकिन आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार आंध्र प्रदेश की कोल्लर खान से एक अद्भुत रत्न निकला। तब दिल्ली सल्तनत में खिलजी वंश का अंत १३२० में होने के बाद गाजी मलिक अथवा सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने गद्दी संभाली थी। उसने अपने पुत्र उलुघ खान, जिसे आज हम मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से बेहतर जानते हैं, को १३२३ में काकातीय वंश के राजा प्रतापरुद्र को हराने भेजा था।
इस आक्रमण वारंगल की सेना ने बड़ी भीषण प्रतिघात दी और प्रारंभ में जूना मलिक अथवा मुहम्मद बिन तुगलक पराजित हुआ। परंतु वह एक विशाल सेना के साथ पुनः लौटा और परिणामस्वरूप काकतीय वंश वारंगल के युद्ध में हार गया। तब वारंगल की लूट-पाट, तोड़-फोड़ व हत्याकांड महीनों तक चली। सोने-चांदी व हाथी-दांत की बहुतायत मिली, जो कि हाथियों, घोड़ों व ऊंटों पर दिल्ली ले जाया गया। स्यमन्तक मणि भी उस लूट का भाग था। यहीं से, यह मणि दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकारियों के हाथों से १५२६ में मुगल सम्राट बाबर के हाथ लगा।
इस मणि की प्रथम दृष्टया पक्की टिप्पणी सन् १५२६ से मिलती है। बाबर ने अपने बाबरनामा में लिखा है कि यह हीरा १२९४ में मालवा के एक (अनामी) राजा का था। बाबर ने इसका मूल्य यह आंका कि इससे पूरे संसार का दो दिनों तक पेट भरा जा सकता है। बाबरनामा में कहा गया है कि किस प्रकार मालवा के राजा को जबरदस्ती यह विरासत अलाउद्दीन खिलजी को देने पर मजबूर किया गया। उसके बाद यह दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकारियों द्वारा आगे बढ़ाया गया और अन्ततः १५२६ में बाबर की जीत पर उसे प्राप्त हुआ। हालांकि, बाबरनामा १५२६-३० में लिखा गया था परन्तु इसके स्रोत ज्ञात नहीं हैं। उसने इस हीरे को सर्वदा इसके वर्तमान नाम से नहीं पुकारा है बल्कि एक विवाद के बाद यह निष्कर्ष निकला कि बाबर का हीरा ही बाद में कोहिनूर कहलाया।
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बाबर एवं हुमायूं, दोनों ने ही अपनी आत्मकथाओं में बाबर के हीरे के उद्गम के बारे में लिखा है। यह हीरा पहले ग्वालियर के कछवाहा शासकों के पास था, जिनसे यह तोमर राजाओं के पास पहुंचा। अंतिम तोमर विक्रमादित्य को सिकन्दर लोदी ने हराया व अपने अधीन किया तथा अपने साथ दिल्ली में ही बंदी बना कर रखा। लोधी की मुगलों से हार के बाद, मुगलों ने उसकी सम्पत्ति लूटी किन्तु राजकुमार हुमायूं ने मध्यस्थता करके उसकी सम्पत्ति वापस दिलवा दी बल्कि उसे छुड़वा कर मेवाड़, चित्तौड़ में पनाह लेने दिया। हुमायूं की इस भलाई के बदले विक्रमादित्य ने अपना एक बहुमूल्य हीरा, जो शायद कोहिनूर ही था, हुमायूं को साभार दे दिया।
परन्तु हुमायूं का जीवन अति दुर्भाग्यपूर्ण रहा। वह शेरशाह सूरी से हार गया। शेरशाह सूरी भी रोहतास दुर्ग में तोप के गोले से जल कर मर गया। उसका पुत्र व उत्तराधिकारी जलाल खान की हत्या उसके साले ने कर दी। उस साले को भी उसके एक मंत्री ने तख्तापलट कर हटा दिया। वह मंत्री भी एक युद्ध को जीतते जीतते आंख में चोट लग जाने के कारण हार गया और स्ल्तनत खो बैठा। हुमायूं के पुत्र अकबर ने यह रत्न कभी अपने पास नहीं रखा, जो कि बाद में सीधे शाहजहां के खजाने में ही पहुंचा। शाहजहां भी अपने बेटे औरंगज़ेब द्वारा तख्तापलट कर बंदी बनाया गया, जिसने अपने अन्य तीन भाइयों की हत्या भी की थी।
शाहजहां ने कोहिनूर को अपने प्रसिद्ध मयूर-सिंहासन (तख्ते-ताउस) में जड़वाया। उसके पुत्र औरंगज़ेब ने अपने पिता को कैद करके आगरा के किले में रखा। यह भी कथा है, कि उसने कोहिनूर को खिड़की के पास इस तरह रखा कि उसके अंदर शाहजहां को उसमें ताजमहल का प्रतिबिंब दिखायी दे। कोहिनूर मुगलों के पास १७३९ में हुए ईरानी शासक नादिर शाह के आक्रमण तक ही रहा। उसने आगरा व दिल्ली में भयंकर लूटपाट की। वह मयूर सिंहासन सहित कोहिनूर व अगाध सम्पत्ति लूट कर फारस ले गया। इस हीरे को प्राप्त करने पर नादिर शाह के मुख से अचानक निकल पड़ा: कोह-इ-नूर, जिससे इसको अपना वर्तमान नाम मिला। १७३९ से पूर्व, इस नाम का कोई भी सन्दर्भ ज्ञात नहीं है।
कोहिनूर का मूल्यांकन, नादिर शाह की एक कथा से मिलता है। उसकी रानी ने कहा था कि यदि कोई शक्तिशाली मानव, पांच पत्थरों को चारों दिशाओं व ऊपर की ओर, पूरी शक्ति से फेंके तो उनके बीच का खाली स्थान यदि सुवर्ण व रत्नों से ही भरा जाये, उनके बराबर इसकी कीमत होगी। सन १७४७ में नादिर शाह की हत्या के बाद यह अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली के हाथों में पहुंचा। १८३० में शूजा शाह, अफगानिस्तान का तत्कालीन पदच्युत शासक किसी तरह कोहिनूर के साथ बच निकला और पंजाब पहुंचा। उसने वहां के महाराज महाराजा रणजीत सिंह को यह हीरा भेंट किया। इसके बदले शाह शूजा ने रणजीत सिंह को वापस अपनी गद्दी दिलाने के लिये तैयार कर लिया था।
तो क्या कोहिनूर भारत नहीं आया? आया था, जब रणजीत सिंह ने स्वयं को पंजाब का महाराजा घोषित किया था। १८३९ में अपनी मृत्यु शय्या पर उन्होंने अपनी वसीयत में, कोहिनूर को पुरी के प्रसिद्ध श्री जगन्नाथ मंदिर में दान देने को कहा था। किन्तु उनके अंतिम शब्दों के बारे में विवाद उठा और अन्ततः वह पूरा नहीं हो सका। २९ मार्च, १८४९ को लाहौर के किले पर ब्रिटिश ध्वज फहराया गया और इस तरह पंजाब, ब्रिटिश भारत का भाग घोषित हुआ। साथ ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी दलीप सिंह को न केवल अपना दास बनाया अपितु उनका धर्मांतरण तक करा दिया। लाहौर संधि का एक महत्वपूर्ण अंग निम्न था, “कोह-इ-नूर नामक रत्न, जो शाह-शूजा-उल-मुल्क से महाराजा रणजीत सिंह द्वारा लिया गया था, लाहौर के महाराजा द्वारा इंग्लैण्ड की महारानी को सौंपा जायेगा।”
इस संधि के प्रभारी थे गवर्नर जनरल लॉर्ड डल्हौज़ी, जिनकी कोहिनूर अर्जन की चाह, इस संधि के मुख्य कारणों में से एक थी। इनके भारत में कार्य, सदा ही विवादों में रहें व कोहिनूर अर्जन का कृत्य को कई ब्रिटिश टीकाकारों द्वारा आलोचित किया गया। हालांकि, कुछ ने यह भी प्रस्ताव दिया कि हीरे को बजाय छीने जाने के महारानी को सीधे ही भेंट किया जाना चाहिए था किन्तु डलहौजी ने इसे युद्ध का मुनाफा समझा व उसी प्रकार सहेजा। बाद में, डल्हौज़ी ने १८५१ में महाराजा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी दलीप सिंह द्वारा इस रत्न को महारानी विक्टोरिया को भेंट किये जाने का प्रबंध किया। तेरह वर्षीय दलीप ने इंग्लैंड की यात्रा की व उनसे भेंट किया। यह भेंट किसी रत्न को युद्ध के माल के रूप में स्थानांतरण किये जाने का अंतिम दृष्टांत था।
परंतु जैसी रीति थी, वही हुई। स्यमन्तक मणि अथवा कोहिनूर को छल से हथियाने का दुष्परिणाम ब्रिटेन ने भी शीघ्र भुगता और कभी संसार पर दिग्विजयी होने का स्वप्न देखने वाला ग्रेट ब्रिटेन 1950 तक आते आते अमेरिका जैसे औसत देश का पिछलग्गू बन गया, जिसने मात्र एक परमाणु बम गिरा कर द्वितीय विश्व युद्ध में समस्त जगत को चौंका दिया था। ऐसे में स्यमन्तक मणि का वास्तविक स्थान कहीं और नहीं, केवल द्वारकापुरी में ही है और यदि इसे भारत लाने में कोई सफल होता है तो इसे श्रीकृष्ण के चरणों में स्थान दिया जाए, यही सच्चा न्याय और वास्तविक देशभक्ति होगी।
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