कनाडा खालिस्तानियों का अड्डा कैसे बन गया? भिंडरावाले से लेकर जगमीत सिंह तक की कहानी

जयशंकर के इस बयान ने कनाडा में पनप रही खालिस्तानी ताकतों में मचाई खलबली

खालिस्तानी कनाडा

विभाजन से पहले और बाद में भी भारत को खंडित करने वाली ताकतें हमेशा से ही मौजूद रही हैं। देश को पहली बार तोड़ने का षड्यंत्र मोहम्मद अली जिन्ना ने रचा था और वो अपनी इस षड्यंत्र में सफल भी रहे, जिसका परिणाम यही निकला कि पाकिस्तान के रूप में एक कट्टर इस्लामिक राष्ट्र बनकर सामने आया। वहीं भारत को तोड़ने का दूसरा बड़ा षड्यंत्र सिख धर्म के आधार पर खालिस्तान बनाने की होती रही है। 60 के दशक से बदले राजनीति परिदृश्य के बाद से आए दिन खालिस्तान का मुद्दा चर्चाओं का हिस्सा बना रहता है। देखा जाए तो वर्तमान समय में यह खालिस्तानी ताकतें सबसे अधिक कनाडा में सक्रिय हो रही है और यहीं से अपने भारत विरोधी एजेंडे को संचालित कर रही हैं।

कनाडा में जनमत संग्रह

कनाडा में इस समय पंजाब को अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर जनमत संग्रह का आयोजन तक किया जाने लगा है और इस खतरनाक मुहिम को वहां Khalistan Referendum नाम दिया गया है। अभी 18 सितंबर को ही कनाडा के ओंटारियो शहर में भारत में प्रतिबंधित आंतकी संगठन सिख फॉर जस्टिस ने जनमत संग्रह का आयोजन कराया था।

भारत के खिलाफ अक्सर जहर उगलने वाला गुर पतवंत सिंह पन्नू सिख फॉर जस्टिस आतंकी गुट का प्रमुख है। पन्नू पाकिस्तान के इशारे पर भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देता है। यहां गौर करने वाली बात यह रही कि खालिस्तान पर जनमत संग्रह का भारतीयों ने तो कड़ा विरोध किया है, इसके साथ साथ कनाडा में रहने वाले सिखों के गुटों ने भी इसके खिलाफ खड़े नजर आए, जो कि खालिस्तानी आतंकी संगठनों के लिए किसी झटके से कम नहीं था। वैसे इससे पहले ब्रिटेन में भी खालिस्तान को लेकर ऐसी ही नौटंकी होती हुई देखने को मिल चुकी है।

वहीं यहां बड़ी बात यह भी रही कि  कनाडा की ट्रूडो सरकार ने इसे शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक प्रक्रिया बताते हुए जनमत संग्रह पर रोक लगाने से ही इनकार कर दिया था। दरअसल, अवैध जनमत संग्रह को लेकर भारत ने कनाडा के समक्ष अपनी आपत्तियां जाहिर की और ट्रूडो सरकार से इसे रोकने के लिए भी कहा गया था।

जिस पर उनकी तरफ से टुड्रो सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि कनाडा में व्यक्तियों को इकट्ठा होने और अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है। वैसे इससे पूर्व कुछ दिन पहले ही कनाडा में खालिस्तानियों द्वारा स्वामीनारायण मंदिर को निशाना बनाकर वहां हमला किया गया था। इन हालिया घटनाक्रम को देखकर साफ पता चलता है कि कनाडा में किस तरह से भारत विरोधी मानसिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। वो कोई और नहीं कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ही हैं, जिनके कारण कनाडा में यूं खालिस्तानी ताकतें फल-फूल रही हैं।

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जयशंकर की प्रतिक्रिया

जाहिर तौर पर इसके पीछे कनाडा के वोट बैंक की राजनीति है, जिस कारण ट्रूडो यूं कनाडा में खालिस्तानियों का समर्थन करते नजर आते हैं। परंतु इस पूरे मामले को लेकर भारत की तरफ से ऐसा हड़काया गया, जिससे कनाडा में मौजूद खालिस्तानियों में खलबली मच गई। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा– “अगर हमारे यहां आपस में विभाजन होगा तो दुनिया में ऐसी ताकतें होंगी जो इसका फायदा उठाना चाहेंगी और पहले उठा भी चुके हैं। हमारे लिए घर में एकता बनाए रखना आवश्यक है। अगर बाहर की सरकारें अगर ऐसा कुछ करती हैं, जिससे हमें नुकसान पहुंचता है, तो हमें यह बर्दाश्त नहीं करना चाहिए और ना ही चुप रहना चाहिए और हमें जवाब देना चाहिए, जो हम कर भी रहे हैं।”

जयशंकर ने अपने बयान में आगे यह भी कहा- “कनाडा को अपनी यह वोट बैंक की राजनीति अपने देश तक ही सीमित रखनी चाहिए और इसका असर भारत पर नहीं पड़ना चाहिए।“ भारत के इस रुख पर कनाडा से ज्यादा वहां के कट्टरपंथी खालिस्तानी संगठन भड़के हुए हैं।

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खालिस्तान का विचार कैसे अस्तित्व में आया?

परंतु यहां कई तरह के प्रश्न उठते है कि आखिर सिखों के लिए अलग राज्य की मांग कब और कैसे अस्तित्व में आई और अलगाववादी आंदोलन को हवा देने वाले कौन थे? और कैसे यह बढ़ते-बढ़ते दूसरे देशों तक पहुंचने लगी?

पंजाब की राजनीति की शुरुआत में कांग्रेस ने कुछ वर्षों तक शासन किया लेकिन फिर वहां शिरोमणि अकाली दल की राजनीति ने कांग्रेस को परेशान करना शुरू कर दिया। यह संगठन मूल रूप से सिखों को प्रमोट करने के लिए और सिख अधिकारों को बढ़ावा देने की बात करता था। ऐसे में 1970 का दशक आते-आते यहां अकाली दल का प्रभाव बढ़ गया जिसके बाद कांग्रेस के लिए पंजाब में मुश्किलें बढ़नी शुरू हो गई।

जब कांग्रेस पंजाब में अपने पैर पसारने की सोच रही थी तो उस दौरान ही जरनैल सिंह भिंडरावाला का उदय होता है। वो लगातार अकाली दल के खिलाफ आंदोलन कर रहा था। कांग्रेस को लगा कि इसके माध्यम से वह अपनी राजनीतिक विरासत को हासिल कर सकती है। कांग्रेस ने भिंडरावाले को पैसा हथियार सबकुछ दिया और परिणाम यह रहा कि पंजाब में कांग्रेस की स्थिति मजबूत होती चली गई। वहीं अब भिंडरावाले स्वयं को एक राजनेता के तौर पर पेश कर रहा था।

साल 1977 में भले ही इंदिरा गांधी की चुनाव में हार हुई हो, लेकिन साल 1980 में इंदिरा के आने के बाद एक बार फिर पंजाब की राजनीति में भिंडरावाले का कद मजबूत हो गया। इसके विपरीत जो जिन्न कांग्रेस ने विपक्षियों को परेशान करने के लिए छोड़ा था वह स्वयं ही उनके लिए मुसीबत बन गया। पंजाब में नशे के विस्तार से लेकर आतंकवाद तक में भिंडरावाले की अहम भूमिका थी‌ और सबसे अहम बात यह कि भिंडरावाले के समर्थक हिंदुओं को भी निशाने पर लेने लगे थे। भिंडरावाले ने स्वर्ण मंदिर तक को बंधक बना लिया। इस प्रकरण से निपटने के लिए पहले इंदिरा गांधी ने ऑपरेशन ब्लूस्टार चलाकर भिंडरावाले को मरवाया और फिर उन्हें अलगाववादियों और भिंडरावाले के समर्थकों ने ही मौत के घाट उतार दिया था।

पनपने लगी आतंकवाद की भावना

इसके बाद हुए सिख विरोधी दंगों में बड़ा नरसंहार हुआ और इसका असर यह था कि पंजाब में अलगाववाद और आतंकवाद की भावना पनपने लगी। 90 का दशक शुरू हुआ और तब पुलिस अधिकारी केपीएस गिल को प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव की तरफ से फ्री हैंड मिल गया जिसके बाद आतंकियों और अलगाववादियों के खिलाफ कार्रवाई होने लगीं। जो भी खालिस्तान की मांग करता उनकी खिलाफ सख्त एक्शन लिया जाता था।

ऐसे में खालिस्तानी आतंकी जहां भारतीय एजेंसियों की कार्रवाई से बचने के लिए भागने लगे, वहीं दूसरी ओर पंजाब का एक तबका आर्थिक तंगी और आतंकवाद से छुटकारा पाने के लिए भी पंजाब छोड़ विदेशों का रूख करने लगे थे। विदेशों में उनके लिए कनाडा एक सहज जगह साबित हुई‌। यहां क्षेत्रफल बड़ा और जनसंख्या कम होने के चलते कनाडा सरकार भी सिखों को खूब सपोर्ट करती रही। वहीं इन सिखों ने कनाडा में काम करने के साथ ही यहां की नागरिकता लेकर अपना रहन-सहन तक जमा लिया। इन सिखों की कनाडा के वैंकोवर से टोरंटो आदि शहरों में बड़ी तादाद हो गई थी।

कनाडा सरकार से सिखों को समर्थन मिला, तो यहां धीरे-धीरे खालिस्तानी लोगों के मन में वही इच्छा उमड़ने लगी। सिख फॉर जस्टिस से लेकर बब्बर खालसा जैसे आतंकी संगठन बन गए। इन आतंकी संगठनों को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI का भी साथ मिला और प्लेन हाईजैक करने से लेकर उन्हें ब्लास्ट कराने तक में इन आतंकी संगठनों की भूमिका सामने आने लगी।

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ट्रूडो को खालिस्तानियों का समर्थन

भारत ने अपने विरोधियों में उठने वाली आवाजों को विदेशों में भी चुप कराया, परंतु कोई इनके विरुद्ध कोई कार्रवाई तो नहीं कर पाया है। इसकी वजह यह है कि खालिस्तान की मांग करने वाले और सिख अधिकारों की बात करने वाले इन लोगों की संख्या कनाडा और फ्लोरिडा के इलाकों में कुछ ज्यादा ही है। साथ ही कनाडा में तो इन्हें  जस्टिन ट्रूडो की पार्टी को समर्थन भी मिलता है।

खालिस्तानी सोच रखने वाले लोग ट्रूडो की कैबिनेट तक में शामिल हैं। यदि यह मंत्री और राजनेता समर्थन वापस ले लें तो कनाडा में जस्टिन ट्रूडो की सरकार तक गिर सकती है। यही कारण है कि ट्रूडो भी पर्दे के पीछे से खालिस्तानी संगठनों का समर्थन करते हैं।

हालांकि जिस तरह से जनमत संग्रह कराकर भारत के बाहर खालिस्तानी ताकतों को मजबूत करने का पूरा खेल चल रहा है, उसको लेकर सरकार की तरफ से विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अब स्पष्ट कर दिया है कि जस्टिन ट्रूडो अपनी सत्ता चलाने के लिए या राजनीतिक दांव पेंच के लिए भारत की संप्रभुता से खिलवाड़ करने वाले लोगों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल न करें और यदि वे करते भी हैं तो इसे कनाडा तक ही सीमित रखें। एस जयशंकर का यही बयान कनाडा में मौजूद खालिस्तानी ताकतों में उथल-पुथल मचा रहा है।

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