6 बार भाग्य ने ‘सशक्त राष्ट्र’ बनने में भारत का साथ नहीं दिया परंतु एक बार वह हमारे साथ आया और…

मौजूदा समय में भारत के वर्चस्व के आगे शीश नवा रहा है विश्व!

India strength

Source- TFI

इतिहास भी बड़ा विचित्र है, यहां ऐसी ऐसी कथाएं हैं, जो कल्पना को भी मीलों पीछे छोड़ दें क्योंकि सत्य को समझ पाना सच में दुष्कर है। यूं ही नहीं कहते, ‘Truth is Stranger than Fiction’। आप भी कभी न कभी सोचते ही होंगे कि जो भारत कभी विश्वगुरु हुआ करता था, वह अचानक से एक विकृत, शोषित समाज की प्रतिमूर्ति कैसे बन गया? हम कारण तो कई गिना सकते हैं परंतु वास्तविकता यह भी है कि हमारे पास अनेक अवसर थे, जहां हमारे पास अवसर थे, बल था एवं समस्त संसाधन थे परंतु उसका सदुपयोग कभी नहीं किया। या तो भाग्य का फेर कहिए या फिर बुद्धिमता की कमी, परंतु हम पुनः विश्वगुरु बनने के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो पाए। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। आइए उन अवसरों पर प्रकाश डालें, जहां हमारे पास अवसर होते हुए भी हमने उन्हें हाथ से जाने दिया।

पुष्यमित्र शुंग –

कभी अखंड भारत की नींव जिस मौर्य साम्राज्य के माध्यम से स्थापित हुई थी, कालांतर में वह उसका अंश मात्र भी नहीं रहा। बौद्ध धर्म को बैसाखी बनाकर मौर्य साम्राज्य किसी भांति टिका हुआ था परंतु एक ओर यवन आक्रमण को उद्यत थे और वहां मौर्य वंश के अंतिम शासक राजा बृहद्रथ इन सब से अलग बौद्ध भक्ति में लीन थे। वो घनानन्द की प्रतिमूर्ति बन चुके थे, अंतर बस इतना था कि घनानन्द अत्याचारी होते हुए भी अपने शत्रुओं में त्राहिमाम मचाने के लिए पर्याप्त था परंतु बृहद्रथ अपने विरोधी तो छोड़िए, एक मक्खी भी नहीं मार सकते थे। ऐसे में इस अकर्मण्यता से तंग आकर एक ब्राह्मण ने अपने मूल कर्तव्यों के ठीक विपरीत शस्त्र उठाए और महर्षि परशुराम की भांति बृहद्रथ एवं उसके जैसे आततायियों से राष्ट्र को मुक्त कराने का संकल्प किया।

इसी बीच राजा के पास खबर आई कि कुछ ग्रीक शासक भारत पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं। इन ग्रीक शासकों ने भारत विजय के लिए बौद्ध मठों के धर्म गुरुओं को अपने साथ मिला लिया था। सरल शब्दों में कहा जाए तो बौद्ध धर्म गुरु राजद्रोह कर रहे थे। भारत विजय की तैयारी शुरू हो गई थी। वह ग्रीक सैनिकों को भिक्षुओं के वेश में अपने मठों में पनाह देने लगे और हथियार छिपाने लगे। यह ख़बर जब पुष्यमित्र शुंग तक पहुँची तो उन्होंने राजा से बौद्ध मठों की तलाशी लेने की आज्ञा मांगी मगर राजा ने ऐसी आज्ञा देने से मना कर दिया लेकिन समय को कुछ और ही मजूर था। सेनापति पुष्यमित्र शुंग राजा की आज्ञा के बिना ही अपने सैनिकों सहित मठों की जांच करने चले गए।

जहां जांच के दौरान मठों से ग्रीक सैनिक पकड़े गए, उन्हें देखते ही मौत के घाट उतार दिया गया और उनका साथ देने वाले बौद्ध गुरुओं को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर राज दरबार में पेश किया गया। बृहद्रथ चूंकि राजा था और सेनापति पुष्यमित्र ने उसकी आज्ञा का पालन नहीं किया, जो उसे बहुत बुरा लगा। एक सैनिक परेड के दौरान ही राजा और सेनापति के बीच बहस छिड़ गई। बहस इतनी बढ़ गई कि राजा ने पुष्यमित्र पर हमला कर दिया, जिसके पलटवार में सेनापति पुष्यमित्र ने बृहद्रथ का वध कर दिया। अब पुष्यमित्र चाहते तो वो एक सशक्त और स्पष्ट वंश की स्थापना कर सकते थे, जैसे गुप्त साम्राज्य के समय हुई। इस दिशा में उन्हें एक योग्य पुत्र अग्निमित्र भी हुआ परंतु अग्निमित्र के पुत्र वासु ज्येष्ठ अपने पूर्वजों के संकल्पों को पूर्ण करने में असफल सिद्ध हुए और शुंग वंश के अंत के साथ ही भारत के सशक्त राष्ट्र बनने के स्वप्न पर कुछ समय के लिए विराम लग गया, जब तक श्री गुप्त ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना नहीं की।

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पृथ्वीराज चौहान –

हमारे पुरखों ने यूं ही नहीं कहा है, अति सर्वत्र वर्जयेत्। किसी भी वस्तु की अति घातक होती है, आदर्शवाद की भी। हमारा दूसरा अवसर जो हमारे हाथ से फिसला था, वह था 12वीं शताब्दी के अंत में, जब सुल्तान शिहाब मुईजुद्दीन मुहम्मद गोरी ने उत्तर पश्चिमी छोर से भारत पर पुनः आक्रमण किया। ऐसा नहीं है कि महोदय ने भारत पर आक्रमण नहीं किया था परंतु सन् 1178 में पंजाब पर आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात जब उसने गुजरात पर विजयी होने का प्रयास किया तो चालुक्य वंश की वीरांगना नायकी देवी और उनकी सेना ने उसे पटक पटक कर धो दिया। ऐसे में उसने दिल्ली को केंद्र बनाकर आक्रमण करने का दूसरा मार्ग अपनाया। उस समय दिल्ली के सम्राट थे पृथ्वीराज चौहान, जो मूल रूप से अजयमेरु (वर्तमान अजमेर) के तोमर राजपूतों से संबंधित थे।

अब पृथ्वीराज और मुहम्मद गोरी के बीच कितने युद्ध हुए, इसमें आज भी मतभेद है। मध्यवर्ती इतिहासकारों, विशेषकर मुस्लिम लेखकों ने दोनों शासकों के बीच केवल एक या दो लड़ाइयों का उल्लेख किया है। तबक़ात-ए-नासिरी और तारिख-ए-फ़िरिश्ता में तराइन की दो लड़ाइयों का ज़िक्र है। जमी-उल-हिकाया और ताज-उल-मासीर ने तराइन की केवल दूसरी लड़ाई का उल्लेख किया है, जिसमें पृथ्वीराज की हार हुई थी। परंतु हिन्दू और जैन लेखकों का कहना है कि पृथ्वीराज ने मारे जाने से पहले कई बार मोहम्मद गोरी को हराया था। हम्मीर महाकाव्य दावा करता है कि दोनों के बीच 9 लड़ाइयां हुई, पृथ्वीराज प्रबन्ध में 8 का जिक्र है, प्रबन्ध कोष 21 लड़ाइयों का दावा करता है जबकि प्रबन्ध चिंतामणि 22 बतलाता है। अब यह लेखक संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, यह संभव है कि पृथ्वीराज के शासनकाल के दौरान ग़ोरियों और चौहानों के बीच दो से अधिक मुठभेड़ हुईं।

इसी बीच 1190-1191 के समय मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज के एक प्रांत पर आक्रमण किया एवं तबरहिन्दा या तबर-ए-हिन्द (बठिंडा) पर कब्जा कर लिया। उसने इसे 1200 घुड़सवारों के समर्थन वाले ज़िया-उद-दीन, तुलक़ के क़ाज़ी के अधीन रखा। जब पृथ्वीराज को इस बारे में पता चला तो उन्होंने दिल्ली के गोविंदराजा सहित अपने सामंतों के साथ तबरहिन्दा की ओर प्रस्थान किया। इस कारण से तराईन का प्रथम युद्ध प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में मुहम्मद गोरी की मूल योजना अपने घर लौटने की थी लेकिन जब उसने पृथ्वीराज के बारे में सुना तो उसने लड़ाई का फैसला किया। वो एक सेना के साथ चल पड़ा और तराईन में पृथ्वीराज की सेना का सामना किया। आगामी लड़ाई में, सम्राट पृथ्वीराज की सेना ने निर्णायक रूप से ग़ोरियों को हरा दिया।

अब यहीं पर अगर पृथ्वीराज, सम्राट ललितादित्य की भांति मुहम्मद गोरी का वध कर उनके चेलों को ग़ज़नी तक दौड़ा दौड़ा कर मारते या कुछ नहीं करके केवल वीर सुहेलदेव की भांति मुहम्मद गोरी का वध कर देते, तो भारतवर्ष की दशा और दिशा कुछ और ही होती। पर उन्होंने क्या किया? ऐसे दुशाचर को महोदय ने जाने दिया क्योंकि महोदय के लिए उनकी नीति, उनके आदर्श अधिक महत्वपूर्ण थे। परिणाम? मुहम्मद गोरी ने पुनर्गठन करते हुए अगले कुछ माह में 1,20,000 चुनिंदा अफ़गानताजिक और तुर्क घुड़सवारों की एक सुसज्जित सेना इकट्ठी की। तत्पश्चात तराईन के द्वितीय युद्ध में उसने पृथ्वीराज को निर्णायक रूप से बंदी बनाते हुए मृत्युलोक भेज दिया।

हेमचन्द्र विक्रमादित्य –

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके हाथ में उनके भाग्य नहीं होते। सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य उन्हीं में से एक हैं। कभी अफ़गान वंश में वज़ीर रहे हेमू शीघ्र ही बल और बुद्धि का प्रयोग करते हुए दिल्ली के सिंहासन पर आधिपत्य जमा बैठे थे। अब शताब्दियों बाद कोई सनातनी शासक हुआ हो तो दिल्ली में वह निस्संदेह अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास करेगा ही, और हेमू ने भी वही किया। राज्याभिषेक के पश्चात उनका नाम राष्ट्र में सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य के रूप में गूंजने लगा। परंतु यह बात राजगद्दी से अपदस्थ हुए मुगलों को खटकने लगी, सो हो गया पानीपत का द्वितीय युद्ध।

अब यदि हेमचन्द्र विक्रमादित्य चाहते तो मुगलों को अपने बल और बुद्धि की रणनीति से यहां परास्त कर सकते थे और जो कथा बाबर से प्रारंभ हुई थी, वह बैरम खान पर समाप्त हो जाती। परंतु पानीपत के युद्ध में भाग्य और रणनीति, दोनों ही उनके विपरीत रहे। 5 नवंबर 1556 को पानीपत के ऐतिहासिक युद्ध के मैदान में मुगल सेना हेमू की सेना से मिली। अकबर और बैरम खान युद्ध के मैदान से आठ मील की दूरी पर पीछे रहे। मुगल सेना का नेतृत्व अली कुली खान शैबानी ने केंद्र में, सिकंदर खान उज़्बक ने दाईं ओर, अब्दुल्ला खान उज़्बक ने बाईं ओर तथा मोहरा हुसैन कुली बेग और शाह कुली महरम के नेतृत्व में किया था। हेमू ने हवाई नाम के एक हाथी के ऊपर अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं युद्ध में किया।

उनके बाएं का नेतृत्व उनकी बहन के बेटे राम्या ने किया था और दाहिनी ओर नेतृत्व शादी खान कक्कड़ ने किया था। यह एक बेहद कठिन लड़ाई थी परंतु युद्ध हेमू के पक्ष में झुक गया। मुगल सेना को पीछे खदेड़ दिया गया था और हेमू ने युद्ध के हाथियों और घुड़सवारों के अपने दल को उनके केंद्र को कुचलने के लिए आगे बढ़ाया। हेमू जीत के शिखर पर थे, जब मुगल तीर से उसकी आंख में चोट लग गई और वह बेहोश हो गए। इससे उनकी सेना में खलबली मच गई। नतीजा यह हुआ कि उनकी सेना जीता हुआ युद्ध हार गई। उस समय ५००० मरे हुए सैनिक युद्ध के मैदान में पड़े थे और बहुत से लोग भागते समय मारे गए थे।

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दारा शिकोह –

एक अन्य अवसर जो हमारे हाथ से चला गया, वह था मुगलकाल का वो युग, जब औरंगज़ेब एवं दारा शिकोह के बीच तनातनी अपने चरमोत्कर्ष पर थी। अन्य मुगलों की तुलना में दारा आश्चर्यजनक रूप से काफी दार्शनिक था एवं वह विस्तारवादी सोच के साथ-साथ एक जिज्ञासु दृष्टिकोण भी रखता था। यह इस बात से स्पष्ट होता है कि दारा सूफी पंथ के साथ-साथ सनातन शास्त्रों एवं उपनिषदों में भी रुचि रखता था, जो दारा के अन्य भाइयों, विशेषकर औरंगज़ेब को स्वीकार नहीं था। शाहजहां के बीमार पड़ने पर औरंगजेब और मुराद ने दारा पर काफ़ि़र (धर्मद्रोही) होने का आरोप लगाया और स्वाभाविक तौर पर युद्ध हुआ। दारा दो बार, पहले आगरे के निकट सामूगढ़ में (जून, 1658) फिर अजमेर के निकट देवराई में (मार्च, 1659), पराजित हुआ। अंत में 10 सितंबर 1659 को भीषण यातना के पश्चात दिल्ली में औरंगजेब ने उसकी हत्या करवा दी। दारा का बड़ा पुत्र औरंगजेब की क्रूरता का भाजन बना और छोटा पुत्र ग्वालियर में कैद कर दिया गया।

अब आप सोच रहे होंगे, इसमें कैसा अवसर? असल में दारा ने सभी हिन्दू और मुसलमान संतों से सदैव संपर्क रखा। ऐसे कई चित्र उपलब्ध हैं जिनमें दारा को हिंदू संन्यासियों और मुसलमान संतों के संपर्क में दिखाया गया है। वह कुशल लेखक भी था। हसनात अल आरिफीन और मुकाम ए बाबूलाल ओ दारा-शिकोह में धर्म और वैराग्य का विवेचन हुआ है। इसके अतिरिक्त हिंदू दर्शन और पुराणशास्त्र से उसके सम्पर्क का परिचय उसकी अनेक कृतियों से मिलता है। उसके विचार ईश्वर का पक्ष, द्रव्य में आत्मा का अवतरण और निर्माण तथा संहार का चक्र जैसे सिद्धांतों के निकट परिलक्षित होते हैं। दारा को विश्वास था कि वेदांत और इस्लाम में सत्यान्वेषण के सबंध में शाब्दिक के अतिरिक्त और कोई अंतर नहीं है। दारा कृत उपनिषदों का अनुवाद दो विश्वासपथों- इस्लाम और वेदांत के एकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान है।

इस समय मुगल शासन केवल विस्तारवाद में ही नहीं अपितु अपने पतन की ओर बढ़ने लगा और यही अवसर था, जब भारत अपना भाग्य बदल सकता था यदि दारा मुगल शासक बनते परंतु औरंगज़ेब ने मुगल बादशाह बनकर वह कार्य अपने करतबों से अधिक सरलता से किया, पर उस बारे में बाद में।

जनता पार्टी –

“सिंहासन खाली करो, के जनता आती है”!

ये नारा आपने सुना है न? यह स्वतंत्र भारत के सबसे विशाल आंदोलनों में से एक का सबसे प्रभावशाली नारा था। यह एक पार्टी के अकड़ और अकर्मण्यता के विरुद्ध जनता के विद्रोह का प्रतीक था। परिणामस्वरूप स्वतंत्र भारत को लोकतंत्र के इतिहास का सबसे दर्दनाक युग देखना पड़ा औऱ वो था- इमरजेंसी। परंतु इसमें भी कुछ लोग थे, जो न थके, न थमे और न ही झुके। इन्हीं के अगुआ थे ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण, जिन्हें आज भी लोग सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। उनके प्रयास विफल भी नहीं गए क्योंकि 1977 में जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस को अपदस्थ करते हुए चुनाव में विजय प्राप्त की। परंतु जो दिखता है, आवश्यक नहीं कि वही हो। यहां भी अवसर था कि भारत फर्श से अर्श पर पहुंचे परंतु ऐसा नहीं हुआ। जानते हैं क्यों, क्योंकि लोकनायक जेपी वास्तव में लोकनायक वाला दृष्टिकोण ही नहीं रख सके।

सम्पूर्ण क्रांति वास्तव में जेपी द्वारा अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए एक विरोध प्रदर्शन मात्र था। इन्दिरा शासन के खिलाफ द्रवित जनता और सत्तलोलुप राजनेताओं से इसे समर्थन मिला और यह विरोध धीरे-धीरे इन्दिरा शासन के खिलाफ जयप्रकाश नारायण की व्यक्तिगत लड़ाई में परिवर्तित हो गया। जेपी, इन्दिरा को पुत्री समान मानते थे परंतु इन्दिरा गांधी द्वारा उन्हें स्वतंत्र भारत के “गांधी” सम सम्मान न मिलने के कारण, उन्होंने पूरे देश को रोक दिया।

उनमें भारतीय राजनीति का शिखर पुरुष बनने की बड़ी ही तीव्र अभिलाषा थी। लोगों में भ्रम है कि उन्हें पद का मोह नहीं था परंतु वास्तविकता तो यह है कि वो तो बिना किसी पद के शासन का संचालन करना चाहते थे क्योंकि पद ज़िम्मेदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करता है। भारतीय राजनीति के “भीष्म” ने अपनी इस व्यक्तिगत लड़ाई में कौरवों का खूब साथ लिया और दिया भी। आज इसी के कारण भारत में नीतीश कुमार, लालू यादव और हाल ही में मृत्यु को प्राप्त हुए मुलायम सिंह यादव जैसे लोगों की भरमार है, जो न खुद किसी योग्य बने, न दूसरे को बनने दिया।

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अटल बिहारी वाजपेयी –

बाजीराव मस्तानी में एक संवाद काफी अनोखा और महत्वपूर्ण है, “परायों से क्या शिकायत करना, घाव तो अपनों के ज़्यादा चुभते हैं”। यह बात अटल बिहारी वाजपेयी से अधिक बेहतर कोई नहीं जानता क्योंकि वर्ष 2004 में जो हुआ, उसे शब्दों में पिरो पाना काफी कठिन होगा। हमारे पास संसाधन भी था, अवसर भी था और एक संकल्प भी, परंतु एक योग्य प्रशासक को चंद सुविधाओं और कुछ मनमुटावों के पीछे भारत ने ठुकरा दिया।

हां जी, स्मरण है ‘इंडिया शाइनिंग’ का वो समय, जब भारत के विकास, उसके अद्भुत छवि को अपना अस्त्र बनाकर अटल बिहारी वाजपेयी ने एक ऐसे सरकार को पुनः सत्ता में लाने का प्रयास किया था, जो तुष्टीकरण के बल पर नहीं अपितु अपने सांस्कृतिक मूल्यों के बल पर आया था। परंतु भारतीय जनता पार्टी के इस आह्वान को जनता ने ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें सस्ता राशन, मुफ़्त बिजली इत्यादि चाहिए थी और उस समय सोशल मीडिया का अस्तित्व लगभग न के बराबर था तो प्रोपगैंडा की जो बाढ़ विपक्षियों ने फैला रखी थी, उसकी काट तब इनके पास नहीं थी।

परंतु वो कहते हैं न, सबै दिन न होत एक समान। हमारे देश का भाग्य भी बदला और सब कुछ हमारे पक्ष में पुनः आया। यूं तो ऐसा कई बार हुआ है परंतु आधुनिक इतिहास में 2019 में प्रथम बार हुआ, जब भारत ने अपने भाग्य को बदलने का निर्णय लिया। हमारे यहां एक अजीब बीमारी है, जल्दी ही किसी भी वस्तु से ऊबने की परंतु मोदी सरकार ने वर्ष 2019 में जिस प्रकार से प्रचंड बहुमत प्राप्त किया, उससे स्पष्ट हो गया कि अब भारत के निवासियों ने भी तय कर लिया है कि वे अपने भाग्य को अपने ही हाथों से नष्ट नहीं होने देंगे।

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