प्रिय ललन पासवान, आइए आपको भक्ति मार्ग से अवगत कराते हैं

अज्ञानता की कोई सीमा नहीं हो सकती है

ललन पासवान

“ऐसी मान्यता है कि बजरंग बली ताकत के देवता हैं, लेकिन मुस्लिम और दूसरे धर्म के लोग बजरंग बली की पूजा नहीं करते हैं। अमेरिका में बजरंग बली का मंदिर नहीं है, वहां बजरंग बली की पूजा नहीं होती है तो क्या अमेरिका शक्तिशाली राष्ट्र नहीं है। सब कुछ मानने पर है, मानो तो देव, नहीं तो पत्थर। जैसे-जैसे मानना छोड़ देंगे, वैसे ही वह खत्म हो जाएगा। इसलिए तर्क की शक्ति के आधार पर सोचना होगा।” ये बात एक निरा मूर्ख, सांस्कृतिक रूप से उजड्ड गंवार ही बोल सकता है परंतु यदि हम कहें कि यदि ये बिहार के एक भाजपा विधायक ललन पासवान के बिगड़े बोल हैं, तो? चकित न हों, परंतु यही सत्य है, पर कथा यहां तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। जो व्यक्ति न अपने शास्त्रों से परिचित है, न अपने संस्कृति से, वो सेवा क्या खाक करेगा? इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे भक्ति मार्ग न केवल सरल है, अपितु तार्किक और वैज्ञानिक भी है।

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ललन पासवान का बयान

हाल ही में भागलपुर के पीरपैंती से भाजपा विधायक ललन पासवान ने  हिंदू धर्म की मान्यताओं पर मीडिया से बातचीत करते हुए कहा, “सब कुछ मानने पर है। जब मान्यता को छोड़कर उसे तर्क की कसौटी से जोड़ेंगे, जब वैज्ञानिक-सामाजिक सोच होगी तो वे लोग भी हमारे जैसे हो जाएंगे।” परंतु वे इतने पर नहीं रुके। वो आगे बकते हैं, “अगर हमें केवल देवी लक्ष्मी की पूजा करने से धन मिलता है, तो मुसलमानों में अरबपति और खरबपति नहीं होते? मुसलमान देवी लक्ष्मी की पूजा नहीं करते हैं, क्या वे अमीर नहीं हैं? मुसलमान देवी सरस्वती की पूजा नहीं करते हैं. क्या मुसलमानों में कोई विद्वान नहीं है? क्या वे आईएएस या आईपीएस नहीं बनते?”

इतना ही नहीं, ललन पासवान ने कहा कि “आत्मा और परमात्मा” की अवधारणा सिर्फ लोगों की मान्यता है। उन्होंने कहा, “यदि आप मानते हैं तो देव हैं, वरना पत्थर। यह हम पर निर्भर है कि हम देवी-देवताओं को मानते हैं या नहीं। तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए हमें वैज्ञानिक आधार पर सोचना होगा। यदि आप विश्वास करना बंद कर देते हैं, तो आपकी बौद्धिक क्षमता में इजाफा होगा”।

मूलभूत संस्कार

इस अज्ञानी सोच को तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का नाम देने के लिए तालियां बजती रहनी चाहिए बंधुवर। जो बात, जो ज्ञान समझ में न आए वो ढकोसला, ये कहां का तर्क है, तनिक कोई समझाएगा? जब बात इन्होंने पूजा पद्धति की कर ही दी है तो सबसे मूलभूत संस्कार से प्रारंभ कर देते हैं, पांव छूने से, अथवा चरण स्पर्श से। जब युवा सदस्य अपने परिवार के सदस्यों एवं गुरुजनों के चरण छूते हैं, तो सम्पूर्ण शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार तो होता ही है इसके साथ ही पूर्ण तंत्रिका तंत्र यानी नर्वस सिस्टम को अत्यंत लाभ मिलता है।

अब आप इस बात से भी परिचित होंगे कि कैसे तुलसी पूजन हर भारतीय घर की पहचान है। गृहणी द्वारा सुबह सवेरे तुलसी में पानी देने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। तुलसी एक आयुर्वेदिक औषधि भी है और इसी कारण इसके पत्ते शरीर के हर छोटे बड़े रोग को दूर करने में कारगर सिद्ध होते हैं। यह बात वैज्ञानिक रूप से भी प्रमाणित है कि तुलसी का पौधा अपने आस-पास की हवा को भी शुद्ध करता है।

ठीक इसी भांति सुबह स्नान के बाद सूर्य को जल चढ़ाने का प्रावधान हिन्दू धर्म में है लेकिन इसके पीछे के वैज्ञानिक सत्य यह है कि सूर्योदय की किरणें स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी होती हैं। अभी तो हमने योगाभ्यास और सूर्य नमस्कार पर चर्चा प्रारंभ भी नहीं की है।

घंटी और शंख

ऐसे ही पूजा की घंटी का महत्व शायद कुछ ही लोग जानते हैं। वैज्ञानिक तथ्य है कि मंदिर या किसी भी अर्चनास्थल पर पूजा की घंटी और शंख बजाने से वातावरण कीटाणु मुक्त और पवित्र होता है। ये भी कहा जाता है कि शंख की ध्वनि से मलेरिया के मच्छर भी खत्म हो जाते हैं।

गायत्री मंत्र या अन्य किसी भी मंत्र का उच्चारण जहां एक ओर पूजा को पूर्णता प्रदान करता है वहीं मन को केंद्रित करके शारीरिक ऊर्जा का विकास करता है।

व्रत/उपवास के पीछे का शास्त्र क्या है? इससे हमारे देह को क्या लाभ मिलता है, यानी हमारा शरीर किस प्रकार से स्वस्थ रहता है? असल में व्रत रहने से देह में इंसुलिन के प्रति प्रतिक्रिया बढ़ जाती है। इंसुलिन की मात्रा ऊपर नीचे होना ही डाइअबीटीज़ से हमारे शरीर को मुक्त रहने या न रहने का अंतर तय कराती है। यह हार्मोन तब निकलता है जब व्यक्ति भोजन करते हैं और ये लिवर, मसल, एवं फैट सेल को ग्लूकोज़ स्टोर करने के लिए बाध्य करता है। जब आप व्रत करते हैं, तो आपके शरीर में उपलब्ध कार्बोहाइड्रेट खर्च होने के बाद बाकी के फैट सेट की उपयोगिता को भी प्रयोग में लाता है।

तो व्रत और Intermittent Fasting में अंतर क्या है? वैसे तो कोई विशेष अंतर नहीं, परंतु हमारे सनातन शस्त्र शरीर के सम्पूर्ण विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं और इसीलिए सम्पूर्ण व्रत पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे अधिक से अधिक ग्लूकोज़ खर्च हो और फैट भी उपयोग में लाई जाए, ताकि वजन नियंत्रण में रहे।

नवरात्रि, सोलह सोमवार इत्यादि जैसे व्रत के बारे में भी यदि आपको ज्ञात न हो, तो आप वास्तव में सनातनी कहलाने योग्य नहीं हो। नवरात्रि तो सनातन धर्म का गौरव है, और 16 सोमवार तो श्रावण मास का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो विगत वर्षों में अपनी पहचान खो रहा है। हमारा शरीर ऐसा नहीं जिसे निरंतर भोजन की आवश्यकता पड़े। इसे ऐसा रचाया गया है कि वह ऊर्जा का उत्सर्जन करे। परंतु आधुनिक जीवन ने सारा खेल उलटपलट कर रख दिया है। चर्बी घटाना तो छोड़िए, हम अत्यधिक शुगर से भी अपने शरीर को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। वैसे भी, जो राष्ट्र युगों युगों से एक दो घंटे नहीं, नौ नौ दिन, तक फलों और जल पर जीवनयापन करने की कला पर निपुण हो, जिस राष्ट्र की संस्कृति में अन्न मुक्त भोजन भी व्रत का एक हिस्सा हो, उसे आप ‘Intermittent Fasting’ बताओगे?

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व्रत उपवास और Intermittent Fasting

हम भारतीय क्यों इस सिद्धांत के लिए इतने लालायित हो रहे हैं? Intermittent Fasting में ऐसी कौन सी ब्रह्म सिद्धि है जो हमें ज्ञात नहीं है। आप माने या नहीं, परंतु Intermittent Fasting एक ऐसा ढोंग, जो भारत के व्रत उपवास की संस्कृति से चुराकर पाश्चात्य जगत ने एक अलग चोगे के साथ पेश करने का प्रयास किया है।

हैं, यह कैसे? व्रत उपवास और Intermittent Fasting में क्या संबंध? व्रत/उपवास सनातन धर्म का एक अभिन्न अंग है, और ईसाईयत अथवा इस्लाम की भांति, इसमें कट्टरता का कोई स्थान नहीं है। इसमें आप भिन्न-भिन्न प्रकार के व्रत रख सकते हैं और यहां जल का सेवन करना न केवल उचित है, अपितु प्रशंसनीय भी।

सनातन धर्म में लगभग हर तिथि व्रत रखने के योग्य है, लेकिन अधिकतम व्रत एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी [दोनों प्रदोष की श्रेणी में वैध है], चतुर्दशी, अमावस्या अथवा पूर्णिमा की तिथि पर रखे जाते हैं। इसी भांति हर सनातनी मास में एक मासिक शिवरात्रि एवं कृष्ण जन्माष्टमी भी होती है, जिस दिन व्रत का अनुसरण किया जा सकता है। हर सनातनी मास में व्रत का अनुसरण, यानी 10 से 15 दिन का उपवास तो निश्चित है।

ऐसे में ललन पासवान जैसे अज्ञानी चाहे जिस पंथ या विचारधारा से संबंध रखें, ये उस विचारधारा के प्रतीक हैं जो अपनी अज्ञानता को ‘लॉजिकल थिंकिंग’ का नाम देकर भारत के वास्तविक संस्कृति का उपहास उड़ाते हैं और उसका नाश करना चाहते हैं, जो वास्तव में कहीं अधिक तार्किक और कहीं अधिक प्रैक्टिकल है। लोग कहते हैं प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं, परंतु आज की दुनिया दिखावे की भी है, तो भई करते रहो दिखावा!

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