पाश्चात्य संस्कृति के खोखलेपन का नंगा नाच है हैलोवीन

प्रत्येक वर्ष हैलोवीन के नाम पर जो नौटंकी होती है, उससे घटिया और कुछ हो ही नहीं सकता। मुंबईया सिनेमा के कथित स्टार्स के बेटे-बेटियां मुंह पर कद्दू बांधकर, काला लेप लगाकर बेशर्मी के साथ कमर हिलाते हैं।

हेलोवीन क्या है

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हेलोवीन क्या है?: ट्रिक एंड ट्रीट! बूझे? आढ़े तिरछे कपड़े पहन कर, कद्दू को और भयानक रूप देकर, लोग यह दिखाते हैं कि आखिर क्यों पाश्चात्य जगत केवल नाम का समृद्ध है, उनका वैज्ञानिकता और व्यावहारिकता से उतना ही नाता है जितना एडोल्फ़ हिटलर का धैर्य और संयम से था। जो पाश्चात्य जगत अपने तकनीकी और सांस्कृतिक रूप से ‘एडवांस्ड’ होने का दंभ भरता है, उसकी सारी हवा 31 अक्टूबर को निकल जाती है, जब हैलोवीन के नाम पर ये नाना प्रकार की नौटंकी करते हैं और सिद्ध करते हैं कि कोई चाहे कुछ भी कर ले, पाश्चात्य जगत गंवार था और वही रहेगा।

हेलोवीन क्या है और क्यों मनाया जाता है?

परंतु ये हैलोवीन नाम की बला है क्या और यह प्रथा प्रारंभ कैसे हुई? हैलोवीन का आयोजन 31 अक्टूबर को होता है। ईसाई समुदाय में सेल्टिक कैंलेंडर के आखिरी दिन यानी 31 अक्टूबर को हैलोवीन फेस्टिवल मनाया जाता है। अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोपीय देशों के कई राज्यों में इसे नए वर्ष की शुरुआत के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन लोग डरावने या यूं कहें कि भूतिया गेटअप के साथ सड़क पर निकलते हैं। हैलोवीन पार्टी सदियों से मनाया जा रहा है और अब धीरे-धीरे भारत में भी इसका क्रेज बढ़ता जा रहा है। हैलोवीन की शुरुआत सबसे पहले आयरलैंड और स्‍कॉटलैंड से हुई थी। ईसाई समुदाय के लोगों की ऐसी मान्यता रहती है कि हैलोवीन डे के दिन भूतों का गेटअप करने से पूर्वजों की आत्‍माओं को शांति मिलती है।

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हेलोवीन क्या है? क्यों कद्दू को दफनाते हैं ‘गोरे लंगूर’

हैलोवीन के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो इसका मतलब होता है-आत्माओं का दिन। यह पश्चिमी देशों का एक त्योहार है, जिसका मकसद पूर्वजों की आत्मा को शांति पहुंचाना होता है। पहले इस त्योहार को देखना किसी बड़े टास्क से कम नहीं होता था क्योंकि डरावने कपड़ों और गेटअप के साथ लोगों को देख कर माहौल काफी डरावना रहता था। हालांकि, अब इसका आयोजन काफी आसान हो गया है और इस दिन पहने जाने वाली ड्रेस की वजह से यह काफी चर्चा में रहता है। इसे लेकर कई तरह की कहानियां भी प्रचलित हैं। हैलोवीन डे के दिन त्योहार के आखिर में कद्दू को दफनाने की एक परंपरा भी खास है। इसे पूर्वजों का प्रतीक माना जाता है। इस दिन लोग कद्दू को खोखला करके उसमें जलती हुई मोमबत्तियां डाल देते हैं फिर उसमें डरावनी आकृतियां बनाते हैं। कई लोग इसे अपने घर के बाहर अंधेरे में पेड़ों पर टांग देते हैं। वाह जी वाह, मतलब गोरे लंगूर ये सब उपद्रव करे तो ठीक, हम अगर सूर्यदेव को अर्घ्य भी दे तो अंधविश्वास! इस हिपोक्रेसी के लिए तालियां नहीं बजाएंगे आप?

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देखिए, हमारा देश तो सहिष्णुता का प्रतीक रहा है, इसके गुणगान के लिए संसार की समस्त सामग्री कम है। परंतु पाश्चात्य जगत को इसी बात से घृणा रही है, चाहे वे स्वयं उद्दंडता का प्रतीक ही क्यों न हो। ऐसे में वे भारत को नीचा दिखाने के लिए नाना प्रकार के झूठे आरोप लगाते आए हैं, चाहे पितृसत्ता हो या जाति व्यवस्था। पर इस बारे में फिर कभी। अब प्रश्न यह उठता है, जिस देश में विविधता अनंत हो, भूतों तक को पूजे जाने की परंपरा विद्यमान हो, महादेव का एक नाम भूतनाथ भी हो, उसे आप हैलोवीन का पाठ पढ़ाओगे?

ऐसे कैसे चलेगा?

इतना ही नहीं, अभी हाल ही में प्रदर्शित ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘कांतारा’ की कहानी वनवासियों के जमीनों को सरकार और जमींदारों द्वारा कब्जाने के इर्द-गिर्द घूमती है। क्या किसी जंगल क्षेत्र को रिजर्व घोषित करने से पहले सरकारें वहां के वनवासी समाज की संस्कृति और परंपराओं को ठेस पहुंचाए बिना उनके लिए वैकल्पिक व्यवस्थाएं करती हैं? क्या दबंगों के अत्याचार से वनवासी समाज आज भी मुक्त है? ये वो प्रश्न हैं, जो इस फिल्म को देखने के बाद उठेंगे। इसमें ये भी दिखाया गया है कि कैसे आस्था के मामले में वनवासी समाज से पूरे हिन्दुओं को सीखना चाहिए और इससे कई वामपंथियों के स्थान विशेष में जबरदस्त ज्वाला भी सुलगी है!

तो इसका हैलोवीन और भारतीयता से क्या लेना देना? लेना देना है, क्योंकि कांतारा में एक अभिन्न अंग है ‘भूत कोला’। कर्नाटक स्थित तुलु नाडु के जंगलों में ‘भूत कोला’ पर्व के इर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है। इसे ‘दैव कोला’ या फिर ‘नेमा’ भी कहते हैं। इसमें जो मुख्य नर्तक होता है, उसे वराह का रूप धारण करना होता है। इसके लिए एक खास मास्क तैयार किया जाता है। वराह के चेहरे वाले इस देवता का नाम ‘पंजूरी’ है। वराह अवतार भगवान विष्णु का तीसरा अवतार था, जब उन्होंने पृथ्वी को प्रलय से बचाया था। जगंली सूअर का वेश धारण कर उन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया था। वेदों और पुराणों में भी वराह का जिक्र मिलता है और अभी हमने अघोर पंथ पर चर्चा भी प्रारंभ नहीं की है। तो ये बताइए, ये हैलोवीन किस खेत की मूली है जिसे भारत में इतना भाव मिल रहा है? यह सच में पाश्चात्य नंगई का सार्वजनिक प्रदर्शन है और कुछ भी नहीं!

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