कुछ इस तरह नेहरू और वीके कृष्ण मेनन ने भारतीय सैन्यबलों को समाप्त करने का प्रयास किया

नेहरू की गलत नीतियां सेना को ही ले डूबतीं

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“हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था”

ये शब्द थे उस व्यक्ति के, जिसने स्वतंत्र की सबसे शर्मनाक पराजय की नींव रखी थी। परंतु कितने लोग जानते हैं कि हमारी सेना का आज कोई अस्तित्व ही नहीं होता, यदि एक व्यक्ति की इच्छा सर्वोपरि रही होती। ये व्यक्ति थे भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिसने ये शब्द बोले थे, और जिनके कारण हमारी रक्षा नीति, हमारी विदेश नीति सबका सर्वनाश हुआ था। कैसे हमारी छवि स्वतंत्र भारत में नष्ट हुई, और कैसे भारत को पुनः स्थापित होने में वर्षों लगे, इस पर प्रकाश डालना अत्यंत आवश्यक है।

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कश्मीर का युद्ध

एक समय था जब कश्मीर के युद्ध ने भारतीय सेना को खत्म होने से बचाया था! जी हाँ, आज शायद  इस बात पर आपको यकीन न हो कि युद्ध के होने से सेना कैसे बची? लेकिन मेजर जनरल डीके ‘मोंटी’ पालित ने अपनी किताब ‘मेजर जनरल एए रुद्र: हिज सर्विस इन थ्री आर्मी एंड टू वर्ल्ड वार’ में इसका जिक्र किया है।

किताब के अनुसार, वह समय था जब भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ सर रॉब लॉकहार्ट देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास एक औपचारिक रक्षा दस्तावेज़ लेकर पहुँचे, जिसे पीएम के नीति-निर्देश की आवश्यकता थी। लेकिन नेहरू ने उस पर संज्ञान लेने की बजाय उन्हें डपटते हुए कहा –

“बकवास! पूरी बकवास! हमें रक्षा नीति की आवश्यकता ही नहीं है। हमारी नीति अहिंसा है। हम अपने सामने किसी भी प्रकार का सैन्य ख़तरा नहीं देखते। जहाँ तक मेरा सवाल है, आप सेना को भंग कर सकते हैं। हमारी सुरक्षा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पुलिस काफ़ी अच्छी तरह सक्षम है।”

जिन लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, उनकी सूची काफ़ी लंबी है. लेकिन शीर्ष पर जो दो नाम होने चाहिए, उनमें पहले हैं कृष्ण मेनन, जो 1957 से ही रक्षा मंत्री थे.

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दूसरा नाम लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल का है, जिन पर कृष्ण मेनन की छत्रछाया थी. लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल को पूर्वोत्तर के पूरे युद्धक्षेत्र का कमांडर बनाया गया था. उस समय वो पूर्वोत्तर फ्रंटियर कहलाता था और अब इसे अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है। बीएम कौल पहले दर्जे के सैनिक नौकरशाह थे. साथ ही वे गजब के जोश के कारण भी जाने जाते थे, जो उनकी महत्वाकांक्षा के कारण और बढ़ गया था. लेकिन उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था.

ऐसी ग़लत नियुक्ति कृष्ण मेनन के कारण संभव हो पाई. प्रधानमंत्री की अंध श्रद्धा के कारण वे जो भी चाहते थे, वो करने के लिए स्वतंत्र थे. एक प्रतिभाशाली और चिड़चिड़े व्यक्ति के रूप में उन्हें सेना प्रमुखों को उनके जूनियरों के सामने अपमान करते मज़ा आता था. वे सैनिक नियुक्तियों और प्रोमोशंस में अपने चहेतों पर काफ़ी मेहरबान रहते थे.

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अड़ियल मंत्री और चर्चित सेना प्रमुख

निश्चित रूप से इन्हीं वजहों से एक अड़ियल मंत्री और चर्चित सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया के बीच बड़ी बकझक हुई. मामले ने इतना तूल पकड़ा कि उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन उन्हें अपना इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए मना लिया गया। लेकिन उसके बाद सेना वास्तविक रूप में मेनन की अर्दली बन गई। उन्होंने कौल को युद्ध कमांडर बनाने की अपनी नादानी को अपनी असाधारण सनक से और जटिल बना दिया। सेनाध्यक्ष जनरल पी एन थापर केवल नाम के आर्मी जनरल थे, वास्तव में बी एम कौल ही सारा कार्यभार संभाल रहे थे।

हिमालय की ऊँचाइयों पर कौल गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्हें दिल्ली लाया गया। मेनन ने आदेश दिया कि वे अपनी कमान बरकरार रखेंगे और दिल्ली के मोतीलाल नेहरू मार्ग के अपने घर से वे युद्ध का संचालन करेंगे। इन परिस्थितियों में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि नेहरू के 19 नवंबर को राष्ट्रपति कैनेडी को लिखे उन भावनात्मक पत्रों से काफी पहले मेनन और कौल पूरे देश में नफरत के पात्र बन चुके थे। परंतु नेहरू का मेनन के प्रति मोह नहीं छूटा। छूटेगा क्यों, तुष्टीकरण जो अधिक प्रिय था। जवाहरलाल नेहरू के लिए अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि अधिक प्रिय थी, राष्ट्रीय अस्मिता और सुरक्षा जाए भाड़ में। ये बात सरदार वल्लभभाई पटेल से बेहतर कोई नहीं जानते थे, जिनके साथ उनकी सबसे भीषण झड़पें होती थी।

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नेहरू पर दबाव

उदाहरण के लिए जब हैदराबाद के लिए संघर्ष अपने चरमोत्कर्ष पर था, तो इसके अलावा हैदराबादी रजाकार भारतीय सीमाओं में भी उपद्रव मचाते थे। इसको रोकने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबैटन ने ‘स्टैंडस्टिल अग्रीमेंट’ का विकल्प सुझाया, जिसके अंतर्गत भारतीय सेनाएँ हैदराबाद की सीमाओं पर तैनात तो रहेंगी, परंतु कोई एक्शन नहीं लेंगी, लेकिन सरदार पटेल को ऐसी पंगुता उचित नहीं लगी। जब उन्होंने हैदराबाद के बढ़ते अत्याचारों को लेकर नेहरू पर दबाव बनाया, तो नेहरू ने अपने असली रंग दिखाते हुए कहा, “तुम एक सांप्रदायिक व्यक्ति हो और मैं तुम्हारे घटिया सोच का साथ कभी नहीं दूंगा!”

अर्थात हिंदुओं की रक्षा करना, उनके अधिकारों की बात करना सांप्रदायिक सोच का परिचायक थी, और उन्हें मरने देते रहना, उनके हत्यारों को संरक्षण देना ‘धर्मनिरपेक्षता’। जवाहरलाल नेहरू की इसी घृणित सोच से सरदार पटेल बुरी तरह रुष्ट हो गए और उन्होंने मरते दम तक किसी कैबिनेट मीटिंग में कदम नहीं रखने की शपथ ली।

इसी बीच खबर आई कि निज़ाम शाही कुछ बड़ा कर सकती है, और 1946 के खतरनाक बादल फिर मंडराने लगे। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल रॉय बूचर सेना को नियुक्त करने को तैयार नहीं थे, पीएम नेहरू अपनी जिम्मेदारियों को त्यागकर विदेशी टूर कर रहे थे, परंतु सरदार पटेल दृढ़ निश्चयी थे – कुछ भी हो जाए, 1947 की भूल नहीं दोहराई जाएगी। आखिरकार सरदार पटेल की स्वीकृति से एक सैन्य ऑपरेशन की रूपरेखा तय हुई और नाम दिया गया ‘ऑपरेशन पोलो’, क्योंकि हैदराबाद में पोलो के मैदानों की कोई कमी नहीं थी।

फिर दिन आया ऑपरेशन पोलो का 13 सितंबर 1948, जब माँ भवानी के पावन तीर्थ तुलजापुर को स्वतंत्र करने के लिए भारतीय सेना पहुंची। ये वही तुलजापुर है जहां कभी छत्रपति शिवाजी महाराज तुलजा भवानी के दर्शन करने आते थे। इस विजय के पश्चात फिर भारतीय सेना ने मुड़कर नहीं देखा। लेफ्टिनेंट जनरल राजेन्द्र सिंह जी जडेजा, लेफ्टिनेंट जनरल एरिक एन गॉडर्ड और मेजर जनरल जयंतो नाथ चौधरी के संयुक्त नेतृत्व का ही परिणाम था कि भारतीय सेना ने केवल पाँच दिनों में निज़ाम शाही के आतंकी शासन को घुटने टेकने पर विवश कर दिया।

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ऑपरेशन पोलो की जीत

धर्म की विजय हुई, भारत की विजय हुई और ऑपरेशन पोलो की जीत हुई और स्वतंत्र भारत की सेना भारत को पूर्णतया इस्लामिक बनने से रोक लिया था। परंतु इससे एक गुट को बड़ी पीड़ा हुई और वे थे वामपंथी। निज़ाम शाही से भिड़ने के नाम पर पीठ दिखाने वाले कम्युनिस्ट अब भारतीय सेना पर मुसलमानों के नरसंहार के झूठे आरोप लगाने लगे, जिनकी जांच के लिए जवाहरलाल नेहरू ने ‘सुंदरलाल कमेटी’ तक गठित की। परंतु सरदार पटेल ने उनकी मंशा भांप ली और इस रिपोर्ट को कभी कार्रवाई की मेज़ तक पहुँचने ही नहीं दिया।

परंतु जवाहरलाल ठहरे जवाहरलाल, सरदार पटेल की मृत्यु के पश्चात तो उन्हे मानो अपने मन की मर्जी करने के लिए असीमित शक्ति मिल गई। वी के कृष्ण मेनन के साथ उन्होंने भारतीय सैन्य बलों को जो अपनी निजी संपत्ति बनाने का घृणित प्रयास किया, उसके लिए उन्हे जितना भी बोला जाए, कम पड़ेगा।

लेकिन वीके कृष्ण मेनन तो सीधे भारतीय सेना से ही भिड़ गए। तत्कालीन सेनाध्यक्ष थिमैया ने एक नियुक्ति को लेकर अपनी सिफारिश सीधे सर्वोच्च कमांडर राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को भेज दी, क्योंकि उन्हे मेनन के विश्वसनीयता पर संदेह था उन्होंने तुरंत इस पर अपनी स्वीकृति भी दे दी। भारतीय गणतंत्र की निर्माण प्रक्रिया अभी खत्म भी नहीं हुई थी, और किसी को भी राष्ट्रपति की शक्तियों की पर्याप्त समझ नहीं थी।  खुद प्रसाद को भी नहीं।  नेहरू और मेनन ने एकजुटता दिखाते हुए सिफारिश को ठुकरा दिया।

यदि इस प्रकरण के बाद भी युद्ध से पहले सेना के बंटे होने पर कोई संदेह रह जाता हो, तो अभी और भी साजिशें सामने आ रही थीं। पहले, थिमैया ने चिट्ठी लिखकर शिकायत की कि उन्हें एक अन्य ले. जन. एसडी वर्मा के बारे में कतिपय ‘संदेहास्पद’ सूचनाएं मिली हैं। फिर, जब वर्मा पर दंडात्मक कार्रवाई हो गई तो थिमैया ने मेनन को आकर बताया कि उनसे भूल हो गई थी। वर्मा के बारे में एकमात्र ‘संदेह’ ये था कि वह अधिक लोकप्रिय नहीं थे। मेनन ने इसे नेहरू को लिखे अपने नोटों में दर्ज किया है।

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शीर्ष अधिकारी सैम मानेकशॉ

अगली बारी एक और शीर्ष अधिकारी सैम मानेकशॉ की थी। वह तब वेलिंगटन, तमिलनाडु स्थित डिफेंस सर्विसेज़ स्टाफ कॉलेज के प्रमुख थे. यहां भी बात ‘कच्ची ज़बान’ की, और अंग्रेजपरस्ती की थी, इस हद तक कि मानेकशॉ ने अपने कार्यालय में ‘वॉरेन हेस्टिंग्स और रॉबर्ट क्लाइव की तस्वीरें टांग रखी थी’। उनका करिअर भी लगभग खत्म ही होने वाला था क्योंकि मेनन ने उन्हें हाशिये पर डालते हुए जांच का आदेश दे दिया था, सिर्फ इसलिए क्योंकि मेजर जनरल मानेकशॉ ने जनरल थिमैया के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणियाँ सुनने पर वीके कृष्ण मेनन को खूब खरी खोटी सुनाई। यदि वे निर्दोष नहीं सिद्ध होते, तो 1971 का परिणाम न जाने क्या होता।

अब एक बात बताइए, 1948, 1962 और 1965 में एक समान बात क्या है? सभी में भारत पर आक्रमण हुआ, और सभी में हमारी इंटेलिजेंस एजेंसियों बगलें झाँकती हुई पाई गई, विशेषकर हमारी आईबी, यानि इंटेलिजेंस ब्यूरो, क्योंकि उस समय वह देश की कम, तीन मूर्ति भवन की सेवा अधिक कर रही थी। स्वयं IB के कई अफसरों को बाद में स्वीकरना पड़ा कि राजनीतिक गुटबाजी के कारण भारत को कई युद्धों में उनके कारण दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

1962 में भी आईबी पूर्णत्या भारत सरकार के नियंत्रण में था। राष्ट्रीय सुरक्षा पर फ़ैसला लेना इतना अव्यवस्थित था कि मेनन और कौल के अलावा सिर्फ़ तीन लोग विदेश सचिव एमजे देसाई, ख़ुफ़िया ज़ार बीएन मलिक और रक्षा मंत्रालय के शक्तिशाली संयुक्त सचिव एचसी सरीन की नीति बनाने में चलती थी.

इनमें से सभी मेनन के सहायक थे. मलिक की भूमिका बड़ी थी. मलिक नीतियाँ बनाने में अव्यवस्था फैलाते थे, जो एक खुफिया प्रमुख का काम नहीं था। अगर मलिक अपने काम पर ध्यान देते और ये पता लगाते कि चीन वास्तव में क्या कर रहा है, तो हम उस शर्मनाक और अपमानजनक स्थिति से बच सकते थे.

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भारत पूरी तरह संतुष्ट

लेकिन इसके लिए उन्हें चीन की रणनीतियों का पता लगाना होता. लेकिन भारत पूरी तरह संतुष्ट था कि चीन की ओर से कोई बड़ा हमला नहीं होगा। लेकिन माओ, उनके शीर्ष सैनिक और राजनीतिक सलाहकार सतर्कतापूर्वक ये योजना बनाने में व्यस्त थे कि कैसे भारत के ख़िलाफ़ सावधानीपूर्वक प्रहार किया जाए, जो उन्होंने किया भी। नेहरू ने ये सोचा था कि भारत-चीन संघर्ष के पीछे चीन-सोवियत फूट महत्वपूर्ण था और इससे चीन थोड़ा भयभीत रहेगा, परंतु ऐसा हुआ नहीं।

1962 की शर्मनाक पराजय के पश्चात ऐसे ही 1965 में पाकिस्तान भारत में रक्तपात करने आया था। ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ नामक इस ऑपरेशन के अंतर्गत कश्मीर को रक्तरंजित करने की पूरी प्लानिंग हो चुकी थी। कश्मीर पर आधिपत्य स्थापित कर भारत को एक ऐसा घाव देना चाहता था, जिससे वह कभी न उबर सके। यही कारण था कि इस ऑपरेशन का नाम ऑपरेशन जिब्राल्टर रखा गया, जिसके अंतर्गत कश्मीरियों को ‘जिहाद’ के नाम उकसाया जाता, और उन्हें भारतीय फौजों का सर्वनाश करने के लिए प्रेरित किया जाता।

वह तो भला हो भारतीय सैन्याबलों के पराक्रम का, जिन्होंने अपने दम पर इस संकट से निपटने का निर्णय किया, और इस बार कोई नेहरू या मेनन उनकी राह में रोड़ा डालने के लिए नहीं थे। जब पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमला किया, तो परंपरानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला ली जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मंत्रिमंडल के सदस्य शामिल थे। प्रधानमंत्री उस बैठक में कुछ देर से पहुंचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ।

जब प्रधानमंत्री को स्थिति का आभास हुआ, तो उन्होंने आपातकालीन बैठक बुलाई। उन्होंने स्पष्ट कहा, “भारत केवल घुसपैठियों [पाकिस्तानियों] को अपने भूमि से हटा नहीं सकता। घुसपैठ यदि जारी रहती है, तो हमें भी अपनी लड़ाई दूसरी ओर मोड़नी होगी।” शेखर कपूर और एबीपी न्यूज द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित वेब सीरीज़ ‘प्रधानमंत्री’ में लालबहादुर शास्त्री के किरदार इसी बात को स्पष्टता से रेखांकित करते हैं।

https://twitter.com/LaffajPanditIND/status/1426877337375698948

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पाकिस्तान की योजना

इसके अलावा कश्मीरियों ने भी पाकिस्तान की योजना में उनका कोई साथ नहीं दिया, और उलटे वे जहां भी गए, उन्होंने खुलकर भारतीय सेनाओं की सहायता की और उन्हें पाकिस्तानी सेनाओं एवं मुजाहिद्दीनों के बारे में आवश्यक जानकारी दी। अब ये कैसे संभव होता, यदि भारतीय सैनिक ने अपना इन्फॉर्मैशन नेटवर्क न तैयार किया होता?

प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मेजर मेघ सिंह के ‘मेघदूतों’ ने इस जगह एक महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य निभाई होगी, जिसके कारण ऑपरेशन जिब्राल्टर न केवल असफल हुआ, अपितु भारत एक बार फिर एक बहुत बड़ी त्रासदी का शिकार होने से बच गया। अपने वचन अनुसार लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह ने मेजर मेघ सिंह को न केवल उनका खोया गौरव वापस दिया, अपितु उन्हे पुनः पदोन्नत भी किया, और उन्हे युद्ध में उन्हे अपने पराक्रम के लिए वीर चक्र से सम्मानित भी किया गया। इसके पश्चात उन्होंने 1973 में सेवानिर्वृत्ति लेते हुए बीएसएफ़ जॉइन की, और डीआईजी के पद पर रिटायर हुए –

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ऐसे में नेहरू और मेनन केवल अभिशाप नहीं, अपितु वो कलंक है, जिनके लिए जितना भी कहा जाए, वो कम है। इन्होंने भारतीय सैन्यबलों को नष्ट करने के अनेक प्रयास किए, अब वो अलग बात है कि ये स्वयं ही नष्ट हो गए।

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