कुछ तो बात होगी ऐसे शासक में, जिनके अपने राज्य लौट आने के उत्सव को युगों-युगों बाद भी वैभव और भव्यता से मनाया जाता है। दीपावली जो ‘अंधकार पर प्रकाश की जीत’ को दर्शाता है। परंतु दीपावली का एक और पक्ष भी है– ये उत्सव है एक शासक के घर लौट आने का, जिन्हें उनके राज्य से भाग्य के चक्र ने वंचित कर दिया और जिसके नगर आगमन पर सम्पूर्ण नगरवासियों ने ऐसा उत्सव मनाया कि आज भी युगों-युगों के बाद इस उत्सव को उतनी ही भव्यता के साथ मनाया जाता है जितना उस समय मनाया जाता था। कोई तो अद्भुत बात थी उन शासक में…
स्वागत है आपका TFI प्रीमियम में, इस लेख में हम आपको अवगत कराएंगे एक कथा से, कथा अयोध्या के राजकुमार, सियावर रामचन्द्र की, जो इक्ष्वाकु वंश का पदभार ग्रहण करने, 14 वर्ष का कष्टदायक वनवास झेलकर और एक धर्मयुद्ध में विजयी होकर अपने नगर अयोध्या लौट आए थे।
श्रीराम के लौटने पर अयोध्यावासियों का उत्साह
अपने प्रभु श्रीराम के लोटने पर उनके स्वागत के लिए अयोध्यावासियों ने सुबह से ही तैयारियां शुरू कर दी थी। साफ-सफाई और स्नान-ध्यान के बाद लोगों ने अपनी दुकानों और घरों के आगे रंगोली बनानी शुरू कर दी थी। हालांकि दीपावली के एक दिन बाद अन्नकूट का आयोजन होता है, फिर भी प्रभु श्रीराम के लिए अयोध्यावासियों ने अपने घरों में विशेष पकवान तैयार किए। साथ ही हाटों में भी मिठाई के दुकानों में लगातार मिष्ठान क्रय करने वालों की भीड़ लगी रही।
लोगों ने शाम को दिए जलाने के लिए दीयों को धोकर साफ किया। शाम होते ही महिलाएं और पुरुष नये वस्त्र पहनकर घरों के बाहर दीप प्रज्वलित करते दिखे। प्रभु श्रीराम के लंका विजय और उनके अयोध्या आगमन का उल्लास लोगों के चेहरों पर देखते ही बन रहा था।
परंतु ऐसा भी क्या किया था श्रीराम ने? वे केवल एक प्रांत के शासक ही तो थे या फिर ये कथा इससे भी आगे की थी? अयोध्यापति, सियावर रामचन्द्र केवल एक मानव मात्र होते तो उनके नगर लौटने पर ऐसा हर्षोल्लास क्यों? कुछ तो बात अवश्य थी जो केवल उस समय ही नहीं, त्रेता युग से लेकर आज भी, 2022 तक लगभग 8 लाख वर्षों से निरंतर उनके घर लोटने के दिवस को हम बड़े भव्यता से मनाते हैं, और ये मंगल ध्वनि चहुंओर गूंजती है, ‘जय रघुवंशी अयोध्यापति रामचन्द्र की जय, सियावर रामचन्द्र की जय!’
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एक परमप्रतापी योद्धा
जिस परमप्रतापी योद्धा को दीक्षा देने में स्वयं इतिहास के दो सबसे कट्टर शत्रुओं में से एक, महर्षि विश्वामित्र एवं महर्षि वशिष्ठ दोनों समक्ष आए, उसमें कुछ तो बात रही होगी। गुरुकुल में महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को पाठ पढ़ाया, तो युद्धकला की दीक्षा महर्षि विश्वामित्र ने दी, अन्यथा ताड़का जैसी राक्षसी का वध दो नन्हें किशोर कैसे करते?
परंतु भाग्य का फेर भी देखिए कि परिस्थितियां इनके पक्ष में होते हुए भी इन्हें राजगद्दी नहीं मिली। लोग राम को बहुत चाहते थे। उनकी मृदुल, जनसेवायुक्त भावना और न्यायप्रियता के कारण उनकी विशेष लोकप्रियता थी। राजा दशरथ वानप्रस्थ की ओर अग्रसर हो रहे थे। अत: उन्होंने राज्यभार राम को सौंपने का सोचा। जनता में भी सुखद लहर दौड़ गई की उनके प्रिय राजा, उनके प्रिय राजकुमार को राजा नियुक्त करने वाले हैं। राज्य नियमों के अनुसार राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनने का पात्र होता है अत: श्री राम का अयोध्या का राजा बनना निश्चित था। कैकेयी जिन्होंने दो बार राजा दशरथ की जान बचाई थी और दशरथ ने उन्हें यह वर दिया था कि वो जीवन के किसी भी पल में उनसे दो वर मांग सकती हैं। राम को राजा बनते हुए और भविष्य को देखते हुए कैकेयी चाहती थी कि उनका पुत्र भरत ही अयोध्या का राजा बने, इसलिए उन्होंने राजा दशरथ द्वारा राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया और अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य मांग लिया। वचनों में बंधे राजा दशरथ को विवश होकर यह स्वीकार करना पड़ा। श्री राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। श्री राम की पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण जी भी वनवास गये थे।
राम के पिता दशरथ ने रानी कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने प्रसन्न मन से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। अब लक्ष्मण क्रोध की प्रतिमूर्ति थे, परंतु वे अपने भ्राता के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। यहीं पर श्रीराम का प्रभाव देखिए। लोग कहते हैं कि श्रीराम नारीविरोधी थे, उन्हें कभी स्त्रियों के साथ न्याय नहीं किया, पर कोई ये उल्लेख नहीं करता कि वे कभी अपनी भार्या सीता को वन गमन का कष्ट नहीं देना चाहते थे, उसके बाद भी उन्होंने उनके साथ ये संकल्प पूर्ण करने का निर्णय किया। उनके लिए जहां उनके ‘आर्य’, वहीं वह जाएंगी।
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भावुक दृष्य
सोचिए कि वह कितना भावुक दृष्य रहा होगा कि एक ओर श्रीराम की ख्याति से प्रभावित और उनके बल से परिचित उनकी प्रजा अपने राम के राजतिलक के लिए उत्साहित हो और दूसरी ओर उनके राम अपने पिता के दिए वचनों के पालन हेतु वन प्रस्थान के लिए सज्ज हों। उनके राम जिन्होंने आयोध्या के इर्द-गिर्द के तपोवन को राक्षसों के उत्पात से मुक्त करवाया था, जिन्होंने असंख्य साधुओं को मार डालने वाली ताड़का जैसी राक्षसी का अंत किया, वो राम वन गमन के लिए प्रस्तुत थे, यह उनकी प्रजा के लिए अति दुखदायी था। अपने राम को तो प्रजा ने राजा मान ही लिया था, भला वो कैसे न दुखी होती। यह राम का प्रभाव ही था कि उन्हें अपना राजा मान चुकी प्रजा अपने राजा राम के साथ वन जाने तक को तैयार हो गयी और इसके लिए वो राम के पीछे-पीछे जाने लगी। अंत में राम को पूरी प्रजा को संबोधित करना पड़ा कि वे अयोध्या लोट जाएं, राम को राजा के रूप में स्वीकार चुकी प्रजा ने राम की बात तो मान ली लेकिन वनवासी हो चुके राम को ही अपना राजा मानती रही।
परंतु श्रीराम के कष्ट वहीं पर समाप्त नहीं हुए। अरण्यकांड के अनुसार, श्रीराम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पतिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहां से श्रीराम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहां निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया, और आगे बढ़ने पर राम को स्थान-स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियां हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में ये राक्षस आतंकी ही थे जिनका संहार राम करते जा रहे थे।
राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुए दण्डक वन में प्रवेश किया जहां पर वे जटायु से मिले। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। इसी बीच पंचवटी में विचरण करते हुए रावण की बहन शूर्पणखा की दृष्टि श्रीराम पर पड़ी और वह इतनी मोहित हुई कि उसने आकार राम से प्रणय निवेदन-किया। यहीं पर लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक और कान काटने का प्रसंग आता है।
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प्रतिशोध से भरी शूर्पणखा
प्रतिशोध से भरी शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिए आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। क्या आपको ज्ञात है कि श्रीराम ने केवल नाराच बाणों की सहायता से अपने से कई गुना शक्तिशाली खर, दूषण, त्रिशिरा एवं 14000 अन्य राक्षसों की सेना का विध्वंस करने में सफलता पायी, वो भी मात्र 72 मिनटों में? अद्भुत, अविश्वसनीय उपलब्धि थी ये, जय श्री राम!
ध्यान देने योग्य यह है कि राम अपने वनगमन के बाद अलग-अलग वनों में निवास करते रहे अनेक वीरतापूर्ण कार्य किए। उनकी कीर्ति चहुंओर फैलती रही, अयोध्यावासियों तक उनके कार्य और उनकी कीर्ति अलग-अलग माध्यमों से पहुंचती रही, चाहे वो माध्यम भाट चारण हो, कवि और लेखक हों जो गा गाकर अयोध्यावासियों को राम की वीरता के किस्से बताते रहे। ऐसे में प्रजा अपने राम से और अधिक प्रभावित होती रही।
तद्पश्चात शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिए मारीच को स्वर्णमृग बनाकर भेजा, देवी सीता ने इस स्वर्णमृग को पाने की इच्छा राम के सामने रखी। लक्ष्मण को सीता की रक्षा की आज्ञा देकर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिए उसके पीछे चले गये। मारीच राम के हाथों मारा गया पर मरते-मरते मारीच ने राम की ध्वनि निकालकर ‘हा लक्ष्मण’ का क्रन्दन किया जिसे सुनकर सीता ने आशंकावश लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली देवी सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण किया और उन्हें लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिए रावण से युद्ध भी किया और रावण ने तलवार के प्रहार से उसे अधमरा कर दिया।
सीताहरण से श्रीराम अत्यन्त दुःखी हुए और विलाप करने लगे। रावण ने सीता का हरणकर एक महापाप किया था। श्रीराम और लक्ष्मण देवी सीता की खोज में निकल पड़े। इनका मिलन सुग्रीव के मंत्री, और रुद्रावतार, हनुमान जी से हुआ, जिन्होंने माता सीता की रक्षा में अपना सर्वस्व अर्पण करने का संकल्प ले लिया। जब जाम्बवनजी ने हनुमान को उसकी अद्वितीय शक्तियों का आभास कराया, तो वह तुरंत लंका की ओर प्रस्थान किया। जब हनुमान अशोकवाटिका में पहुंचे तो रावण सीता को धमका रहा था। रावण के जाने पर त्रिजटा ने सीता को सान्तवना दी। एकान्त होने पर हनुमान जी ने सीता माता से भेंट करके उन्हें राम की मुद्रिका दी। हनुमान ने अशोकवाटिका का विध्वंस करके रावण के पुत्र अक्षय कुमार का वध कर दिया। मेघनाथ हनुमान को नागपाश में बांध कर रावण की सभा में ले गया। रावण के प्रश्न के उत्तर में हनुमान ने अपना परिचय राम के दूत के रूप में दिया। रावण ने हनुमान की पूँछ में तेल में डूबा हुआ कपड़ा बांध कर आग लगा दिया इस पर हनुमान ने लंका का दहन कर दिया।
हनुमान सीता के पास पहुंचे। सीता ने अपनी चूड़ामणि दे कर उन्हें विदा किया। वे लौटकर समुद्र पार आकर सभी वानरों से मिले और सभी वापस सुग्रीव के पास चले गये। हनुमान के कार्य से राम अत्यन्त प्रसन्न हुये। राम वानरों की सेना के साथ समुद्रतट पर पहुँचे। उधर विभीषण ने रावण को समझाया कि राम से बैर न लें इस पर रावण ने विभीषण को अपमानित कर लंका से निकाल दिया। विभीषण राम के शरण में आ गया और राम ने उसे लंका का राजा घोषित कर दिया। राम ने समुद्र से रास्ता देने की विनती की। विनती न मानने पर राम ने क्रोध किया और उनके क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने स्वयं आकर राम की विनती करने के पश्चात् नल और नील के द्वारा पुल बनाने का उपाय बताया।
जाम्बवन्त जी के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने रामेश्वरम की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यन्त व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के द्वारा राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ मेरु पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना।
शान्ति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बैठा कर लंका भेज दिया। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये।
रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी रावण को राम की शरण में जाने की मन्त्रणा दी, जिसमें वे निष्फल रहे, जिसके पश्चात युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य भयंकर युद्ध हुआ और अन्त में अधर्मी रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर रामजी ने, सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया।
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युगों-युगों के बाद भी दीपावली की धूम
ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि श्रीराम केवल एक कुशल योद्धा नहीं, अपितु पुरुषत्व का प्रतीक रहे हैं, प्रेम के पर्याय, और न्याय के स्तम्भ रहे हैं, जिनका पुनः अयोध्या आगमन उनकी विजय का प्रतीक तो था ही, उनकी प्रजा के लिए महाउत्सव था। उनके अयोध्या आने से उनके नगरवासी को विश्वास हो चुका था कि उनके वर्षों की तपस्या सुफल रही है, तभी तो आज भी युगों-युगों के बाद दीपावली धूम धाम से मनाई जाती है।
बोलो सियावर रामचन्द्र की जय!
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लक्ष्मी पूजा
अब लक्ष्मी पूजा के बारे में भी बात कर लेते हैं, जिसके घर स्वच्छता हो, सुंदरता हो जिसका घर प्रकाशमय हो वैभव की देवी लक्ष्मी वहीं रुकती हैं, इस तरह कार्तिक अमावस्या को माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है और अंधेरी रात को दीप जलाकर प्रकाशमय कर दिया जाता है। ध्यान दिया होगा आपने कि माता लक्ष्मी के साथ गणेश जी की भी पूजा की जाती है। देवी लक्ष्मी अगर किसी पर प्रसन्न हो जाएं तो उसे वैभव से परिपूर्ण कर सकती हैं लेकिन प्रश्न यह है कि कोई व्यक्ति कितना धन वैभव प्राप्त कर सकता है और कितने धन से वह संतुष्ट हो सकता है, कहीं उस पर और अधिक धन पाने की इच्छा हावी न होए। यहीं पर गणेश जी की पूजा देवी लक्ष्मी के साथ किए जाने की सार्थकता दिखती है। गणेशजी बुद्धि के देवता हैं, और बिना बुद्धि के धन रखना घातक भी हो सकता है, इसके साथ ही गणेश जी संतुष्टि को दर्शाते हैं, अथाह धन अर्जित करने की धुन न सवार हो जाए इसके लिए देवी लक्ष्मी के साथ गणेशजी की पूजा की जाती है।
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