भारतवर्ष की प्यारी मांडणा कला विलुप्त हो रही है

मांडणा कला को बचाने के प्रयास हम सभी को करने होंगे!

mandana art

भारत हमेशा ही अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के लिए जाना जाता है। हमारी अनूठी संस्कृति विश्वभर में प्रसिद्ध रही हैं। परंतु देखा जाए तो बदलते समय और आधुनिकता की होड़ में आज हम सांस्कृतिक परंपराओं को पीछे छोड़ते चले जा रहे हैं। इन्हीं में से एक है लोक कला। भारत में लोक संस्कृति का एक अलग महत्व रहा है। बदलते वक्त के साथ आज ऐसी बहुत सारी प्राचीन लोक कलाएं जो लुप्त होने की कगार पर है। शायद कुछ लोक कला तो काफी समय पहले ही समाज से गुम तक हो चुकी है। वहीं कुछ के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। इन्हीं में से एक है मांडणा चित्रकारी (Mandana Art)।

मांडणा चित्रकारी मुख्य रूप से राजस्थान की एक प्राचीन लोक कलाओं में से एक है। इसके साथ ही मध्य प्रदेश के मालवा और निमाड़ क्षेत्र में भी यह कला प्रचलित है। मांडणा एक प्राचीन लोक कला है, जो ग्रामीण इलाकों में बहुत प्रचलन में हुआ करती थी, परंतु अब समय के साथ यह विलुप्त होती जा रही है। आज इस आधुनिक युग कुछ लोग शायद इसका नाम तक नहीं जानते होंगे। हालांकि ग्रामीण अंचलों में यह आज भी जीवित है। बस इसका थोड़ा बदला है, लेकिन मूल रूप वही बना हुआ है।

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मांडणा चित्रकला है बेहद खास

सदियों से घरों को सजाने के लिए लोग इस कला का उपयोग करते आ रहे हैं। यदि सरल शब्दों में समझा जाए तो विभिन्न मांगलिक अवसरों और त्योहारों पर घर को सजाने के लिए बनाई गई कलात्मक आकृतियों को ‘मांडणा’ कहते है। इसे शुभ अवसरों पर ज़मीन अथवा दीवारों पर चित्रित किया जाता है। साथ ही मांडणा बनाते समय यह कामना की जाती है कि जिस जगह भी इसे बनाया जा रहा है, वहां पर खुशियों का आगमन हो।

उदाहरण के लिए जैसे किसी भी खास त्योहार जैसे दिवाली के आने से पहले महिलाएं घर की साफ-सफाई करके रंगोली (मांडणे) बनाती है। अलग-अलग क्षेत्रों में इसे भिन्न-भिन्न नामों से बुलाया जाता है और अलग अलग प्रकार से बनाया जाता है। जैसे कि मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात में ‘रंगोली’, राजस्थान में ‘मांडणा’, उत्तर-प्रदेश में ‘चौक पूरना’, आंध्र प्रदेश में ‘मुग्गु’, पश्चिम बंगाल में ‘अल्पना’, हिमाचल प्रदेश में ‘अदूपना’, तमिनलाडु में ‘कोलम’ और बिहार में ‘ऐपन’ के नाम से जाना जाता है।

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प्राचीन समय में गांवों के इलाकों में कच्चे घर हुआ करते थे। किसी भी त्योहार या फिर अन्य मांगलिक अवसरों पर शुद्धिकरण करने के लिए फर्श और दीवारों पर गोबरों से लिपाई की जाती थी। उसके साथ उस लिपाई को और भी अधिक सुंदर दिखने के लिए स्त्रियां उन पर भिन्न-भिन्न प्रकार के मांडणे बनाती थी। महिलाएं अपनी उंगलियों के द्वारा अलग-अलग आकृतियां से मांडणा बनाती हैं।

मांडना के चित्र को एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक बनाया जाता है। इनका आकार ज्यामितीय होता है जैसे- गोल, चौकोर, आयताकार एवं त्रिकोणीय। साथ ही कुछ महिलाएं स्वास्तिक चिन्ह भी बनाती हैं। हिंदू धर्म में स्वास्तिक चिह्न को बहुत ही शुभ माना जाता है। इसे सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इसके साथ ही पगल्या, दड़ी-गेडिया, सात ढकणी का चौक, सात कलश का चौक आदि मांडे जाते हैं।

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कैसे बनते हैं मांडणे?

मांडणा बनाने के मुख्य रूप से खड़िया (चौक) का घोल और लाल रंग का गेरू का प्रयोग किया जाता है। इसको बनाने के लिए महिलाएं सूती कपड़े, खजूर की लकड़ी की कूची और उंगलियों का प्रयोग करती हैं। मांडणा कला की सबसे खास बात ये है कि इसे तीन ऋतुओं के आधार पर विभाजित किया जाता है।  ग्रीष्मऋतु के लिए लाल रंग, गीष्मकाल में भूरे रंग तथा वर्षाॠतु में हरे रंग की जमीन को रंगा जाता है।

अगर इस मांडणा कला के उद्गम के इतिहास के बारे में बात करें तो इससे संबंधित आपको कई सारी कथाएं सुनने को मिल जाएगी, लेकिन उनमें से कौन से सही है इस बारे में कोई भी प्रमाण नहीं है। माना जाता है कि  मांडना चित्रों से इसकी उत्पत्ति वैदिक युग, 1500 से 500 ईसा पूर्व में हुई थी। महर्षि वात्स्यायन की कामसूत्र कृति में 64 कलाएं हैं, जिसमें मांडणा छठवीं कला  को बताया गया है, जिसका अर्थ है फर्श को सुंदर रूप में सजाना।

दिवाली के अवसर पर महालक्ष्मी और गणेश जी का आह्वान करने के लिए गृह के मुख्य द्वार  के दोनों ओर स्वास्तिक का चिन्ह या फिर ‘शुभ’ और ‘लाभ’ लिखा जाता है, जिससे घर में ऋद्धि-सिद्धि का वास हो। यह भी एक तरह की मांडणा कला का रूप है।

राजस्थान के कई गांवों में कच्चे घर और झोपड़ियां आज भी मौजूद हैं, वहीं कस्बों में बड़ी-बड़ी हवेलियां भी है। चुरू जिले और शेखावाटी अंचल में स्थित हवेलियां अपनी पुरानी कला और उत्कृष्ट शिल्पकारी के लिए जानी जाती हैं। इनके अंदर दीवारों पर बने हुए भित्तिचित्र आज भी वहां आने वाले पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं।

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लोक कलाओं को सहेजने की जरूरत

इस आधुनिक युग में हम इतने ज्यादा लीन हो चुके है कि हम अपनी लोक कलाओं और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। आज हम घड़े की जगह फ्रीज , मिट्टी के बर्तनों की जगह फ़ैन्सी क्रॉकरी और लोक कलाओं की जगह बाज़ार में बिकने वाली रंगोली का उपयोग कर रहे हैं। शहरी क्षेत्रों में रहने वाली स्त्रियों को तो इसके बारे में ज्ञान तक नहीं होता है। यह लोग कलाएं हमारे भारत देश की शान रही है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हमें मांडणा जैसे अपनी अन्य लोक कलाओं को भी लुप्त होने से बचाएं, तभी हम भविष्य में अपनी सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रख पाएंगे और भावी पीढ़ी को इससे रूबरू कराएंगे।

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