“हिंदी फिल्मों में हिंदी ही नहीं है”, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अजय देवगन के बाद अब मनोज वाजपेयी ने उठाए सवाल

बॉलीवुड जब तक स्वयं को "हॉलीवुड अल्ट्रा-प्रो-मैक्स" समझना बंद नहीं करेगा, तब तक ऐसा ही रहेगा!

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हम हिन्दी सनीमा में हिन्दी ढूंढ रिये हैं। मिल नहीं रही है भाई। कहीं है तो दिखा दो। हिन्दुस्तानी मिल जाएगी, पंजाबी मिल जाएगी, उर्दू मिल जाएगी, संसार भर का कबाड़ा मिल जाएगा परंतु हिन्दी, हिन्दी नहीं मिलेगी बंधु।

गजब समस्या है, समाधान है क्या?

अब ये सुनो, तमिल फिलम ‘पोन्नियन सेल्वन’ के हिन्दी संस्करण के लेखक दिव्य प्रकाश द्विवेदी बताते हैं कि कैसे वे बी आर चोपड़ा की चर्चित ‘महाभारत’ से प्रेरित होकर इसकी पटकथा की प्रेरणा मिली, और कैसे जिस कालखंड में उर्दू का कतई प्रयोग नहीं होता था, इसलिए उन्होंने सुनिश्चित किया है कि यहां भी इसका कम से कम प्रयोग हो। बताओ, एक तमिल आधारित फिल्म को हिन्दी फिल्म उद्योग को समझाना पड़ रहा है कि अपनी भाषा का सम्मान करें।

इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे हिन्दी सिनेमा से हिन्दी लगभग गायब हो चुकी है, और कैसे इसे अब पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।

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हिन्दी के गिरते स्तर पर चिंता

हाल ही में चर्चित अभिनेता मनोज बाजपेयी ने बॉलीवुड में हिन्दी के गिरते स्तर एवं उसकी अनुपस्थिति पर चिंता जताते हुए एक चर्चा में बोला, “इसमें सिर्फ एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की ही गलती नहीं है। बल्कि हम सभी अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजना पसंद करते हैं, फिर चाहे वो अच्छे हों, बुरे हों या फिर औसत। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे पहले इंग्लिश बोलना सीखें। और फिर समय और एनर्जी बची तो फिर कोई और भाषा सीखें। तो हम पैरेंट्स के तौर पर असफल हो रहे हैं। हम शिक्षक के तौर पर असफल हो रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हम न तो अपनी भाषा का महत्व जानते हैं और न ही अपने बच्चों को सिखा पाते हैं”।

परंतु बंधु वहीं पे नहीं रुके। उन्होंने आगे बॉलीवुड में अंग्रेज़ी एवं अन्य भाषाओं के बढ़ते प्रदूषण पर प्रकाश डालते हुए बोला, “एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री भी हमारे समाज से इस मामले में कुछ अलग नहीं है। इंडस्ट्री में आजकल जो नये लोग आ रहे हैं, उनमें से 90 से 95 फीसदी सिर्फ इंग्लिश में लिखते हैं। यह बहुत ही दुख की बात है। लेकिन मैं स्क्रिप्ट सिर्फ देवनागरी में पढ़ता हूं। हममें से बहुत ही कम ऐसे हैं जो डिमांड करते हैं कि भई स्क्रिप्ट देवनागरी लिपि में लिखी जानी चाहिए। मैं ऐसी कोई स्क्रिप्ट नहीं पढ़ता जिसकी लिपि देवनागरी में न हो”।

वैसे तो इनके नखरे भी कम नहीं है, और मनोज बाजपेयी ने स्वयं वैचारिक रूप से हिन्दी के उत्थान में कितना योगदान दिया है हिन्दी उद्योग के माध्यम से, ये सब जानते हैं, परंतु जाने अनजाने इन्होंने इस बार एक गंभीर विषय पर प्रकाश अवश्य डाला है, जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते है।

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हिन्दी के नाम पर उर्दू या पंजाबी

अंतिम बार कोई चलचित्र बताइए, जहां भर-भर के उर्दू या पंजाबी हिन्दी के नाम पर न ठूंसी गई हो, अथवा पोस्टर में हिन्दी के स्थान पर अंग्रेज़ी न आई हो। इन भाषाओं का मोह कुछ ऐसा चढ़ चुका है कि हिन्दी फिल्म उद्योग अब नाम का हिन्दी फिल्म उद्योग रह चुका, इसमें हिन्दी तो नाम मात्र की भी नहीं रही।

एक समय था जब ‘रामचंद्र कह गए सिया से’ गीत होते थे, कालजयी भी एवं मधुर भी। आज बात बात पर अली, मौला, थोक के भाव निकलते हैं गानों में। वहीं दूसरी ओर हाल ही में प्रदर्शित बहुचर्चित तमिल फिल्म ‘पोन्नियन सेल्वन’ को लेकर अधिकतम देशवासी उत्सुक हैं जो मणि रत्नम की बहुप्रतीक्षित फिल्म है और कल्कि कृष्णमूर्ति की बहुचर्चित पुस्तक पर आधारित है। यह तमिल इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय पर आधारित एक रोमांचकारी उपन्यास है, जिसमें चियान विक्रम, जयम रवि, कार्ति सिवाकुमार, ऐश्वर्या राय, तृषा कृष्णन, सोभिता धूलिपाला इत्यादि प्रमुख भूमिकाओं में है।

इसी फिल्म के प्रोमोशनल कार्यक्रम में इसके हिन्दी लेखक दिव्य प्रकाश द्विवेदी ने बताया कि उन्हें कैसे बी आर चोपड़ा की चर्चित ‘महाभारत’ से प्रेरणा मिली और कैसे उन्हें KGF और RRR के चर्चित संवादों को ध्यान में रखकर अपनी पटकथा मिली। चूंकि उस कालखंड में उर्दू का कतई प्रयोग नहीं होता था, इसलिए उन्होंने सुनिश्चित किया है कि यहां भी इसका कम से कम प्रयोग हो।

दिव्य प्रकाश द्विवेदी ने बताया कि यदि पटकथा का उर्दूकरण होता है तो वह अपना मूल अर्थ खो देता है। उनके अनुसार, “आज जो 20 साल का यूथ है, ‘पोन्नियिन सेल्वन’ देखने के बाद उनके पॉपुलर कल्चर में ऐसे भूले-बिसरे शब्द, फिल्म के कुछ डायलॉग चले जाएं और उनको ऐसे लाया जाए कि वो टीवी सीरियल जैसे न लगें. वहां की भाषा तो हम पकड़ नहीं सकते थे, वो लगें कि हम दसवीं शताब्दी में पहुंच के, यहां से उसे एक हिंदी फिल्म की तरह देख रहे हैं. वो कैसे किए जाएंगे ये आपको फिल्म देखकर पता चलेगा”।

यहां पर दिव्य प्रकाश द्विवेदी के व्याख्यान का महत्व बढ़ जाता है। वो इसलिए क्योंकि हिन्दी और उर्दू में उतना ही अंतर है जितना आकाश और पाताल में। इसका सबसे प्रमुख कारण है – अस्तित्व। एक भाषा का अपना मूल अस्तित्व होना चाहिए, उसकी स्पष्ट व्यवस्था, नियमावली, शब्दकोश, पांडुलिपि इत्यादि। हिन्दी में हमें ये सभी तत्व प्राप्त हैं, चाहे वो व्यवस्था हो, नियमावली, शब्दकोश अथवा पांडुलिपि। हिन्दी एक प्रकार से देवभाषा संस्कृत का सरल उच्चारण ही है, जिसे अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो कई क्षेत्रीय भाषाएं, जैसे तेलुगु, मलयालम, मराठी इत्यादि को समझने, उनका पाठ करने और उनका अनुसरण करने में भी सरलता प्राप्त होगी।

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चोरी के मामले में अंग्रेजी भी उर्दू से भिन्न नहीं

इसकी तुलना में उर्दू का न अपना कोई अस्तित्व है, न कोई नियमावली, न कोई स्पष्ट पांडुलिपि और न ही कोई शब्दकोश। वैसे चोरी के मामले में अंग्रेजी भी उर्दू से भिन्न नहीं है, लेकिन उसने फिर भी अपने लिए विशिष्ट प्रणाली स्थापित की है, अपने व्याकरण की अलग पद्धति स्थापित की, परंतु उर्दू तो ये भी करने में असफल रही। ‘उर्दू’ का मूल अर्थ जानते हैं क्या है? ‘छावनी की भाषा’, यानी वो भाषा, जो अधिकतम उस समय के [तुर्की आक्रांता] सैनिक बोलते थे। अरबी, फारसी, खड़ी बोली और हिन्दुस्तानी की अधपकी खिचड़ी का परिणाम है उर्दू। इसे भाषा बोलना ही भाषा शब्द का घोर अपमान होगा, क्योंकि भाषा की सबसे मूल आवश्यकता है मौलिकता यानी originality, जो उर्दू में दूर-दूर तक नहीं है।

विडंबना देखिए, यह वो उद्योग कर रहा है, जिसकी नींव कभी हिन्दी को अपशब्द कहने और भारत को छिन्न-भिन्न करने के लिए पड़ी थी। विश्वास नहीं होता तो इतिहास के पन्ने पलट लीजिए। तमिलनाडु के जो प्रणेता थे, सी एन अन्नादुरई एवं मुथुवेल करुणानिधि, कौन थे? तमिल फिल्म उद्योग के आधारस्तम्भ। आज जो रायता बॉलीवुड में सलीम जावेद की जोड़ी ने फैलाया है ना, ये कार्य युगों पूर्व इन कलमधारियों ने बिना एक गोली चलाए तमिलनाडु में कर दिया था।

परंतु यह तो कुछ भी नहीं है। वहीं ‘पोन्नियन सेल्वन’ के एक प्रोमोशनल कार्यक्रम में जनता को संबोधित करते समय चियान विक्रम ने तंजावुर के विश्वप्रसिद्ध भगवान शिव को समर्पित बृहदेश्वर मंदिर के बारे में बात की। इस साक्षात्कार के अनुसार, “किसी ने बड़ा सही बोल कि हां उधर तो इमारत हैं, उधर तो ऐसे भवन जो सीधे खड़े भी नहीं हैं, पर हमारे भवन तो विद्यमान हैं और वे 6 भूकंप झेल चुके हैं। जानते हैं क्यों? क्योंकि जिस पद्धति से उन्हें बनाया गया है, उसमें तब न कोई प्लास्टर था, न सहायता के लिए कोई क्रेन अथवा बुलडोज़र। असल में उनकी एक बाहरी दीवार थी, फिर एक कॉरीडोर था, और फिर एक ढांचा था जो काफी ऊंचा था, जिसके कारण वह इतनी आपदाएं झेलने में सक्षम था। इस सम्राट ने 5000 बांध अपने समय में बनाए एवं अपने समय में जल प्रबंधन मंत्रालय भी बनाया”।

परंतु वे इतने पर नहीं रुके। उन्होंने आगे ये भी कहा, “ये सब 9वीं शताब्दी में हो रहा था, जब उस समय हमारे नौसेना का प्रभुत्व समूचे जगत में व्याप्त था, और अमेरिका का अस्तित्व भी नहीं था। इंग्लैंड को बड़ा मानते हैं, पर उस पर तो वाईकिंग्स ने चढ़ाई कर रखी थी और यूरोप तो इस समय डार्क एज में था, तो आपको नहीं लगता हमें अपने इतिहास का उत्सव मनाना चाहिए?” –

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बॉलीवुड एक्टर को नहीं होता है गर्व

अब बताइए, ये आपने अंतिम बार तमिल फिल्म उद्योग में कब सुना था? ये कभी आप बॉलीवुड के मुख से सुनेंगे? कभी आप किसी बॉलीवुड एक्टर को गर्व से बोलते सुनेंगे, “मैं रणबीर कपूर, प्रयागराज से” इतना बोलने पर कब्ज हो जाएगा, खून की उल्टियां करने लगेंगे। एक बार को दुलकर सलमान बोल देगा कि मैं भाग्यनगर आऊंगा, परंतु बॉलीवुड और सनातन संस्कृति का सम्मान करे, न बाबा न! क्या मतलब दुलकर सलमान ने ‘सीतारामम’ में सत्य में हैदराबाद को भाग्यनगर के रूप में संबोधित किया था?

वैसे भी उर्दू की वास्तविकता क्या है, यह ‘हैपी भाग जाएगी’ के एक संवाद से बेहतर कोई नहीं समझा सकता। या तो भूलवश या जानबूझकर, परंतु एक दृश्य ऐसा आता है, जहां फिल्म का अभिनेता शराब के नशे में धुत होकर बताता है कि उर्दू कितनी द्विअर्थी बोली है, जो दिखाती कुछ और है, और वास्तव में होती कुछ और है।

निस्संदेह, फिल्म में पाकिस्तानियों का जबरदस्त महिमामंडन हुआ, परंतु उस एक क्षण के लिए अनजाने में सही, परंतु सत्य सामने आ ही गया। अब वहीं दूसरी ओर जब अजय देवगन ने हिन्दी के महत्व को रेखांकित करते हुए एक अति उत्साहित किच्चा सुदीप को मुंहतोड़ जवाब देते हुए ट्वीट किया, “किच्चा सुदीप मेरे भाई, आपके अनुसार अगर हिन्दी हमारी राष्ट्रीय भाषा नहीं है तो आप अपनी मातृभाषा की फिल्मों को हिन्दी में डब करके क्यों रिलीज़ करते हैं? हिन्दी हमारी मातृभाषा और राष्ट्रीय भाषा थी, है और रहेगी। जन गण मन” –

उनके बयान से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि उन्हें अपनी मातृभाषा के लिए पूरा सम्मान भी है और वे इसके लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। आजकल कई ऐसे अभिनेता भी हैं जो कहने को तो हिन्दी फिल्म उद्योग में काम करते हैं लेकिन अपने आप को हिन्दी भाषी कहलाने में भी शर्म महसूस करते हैं। उनके लिए ये कूल नहीं है, ये फैशनेबल नहीं है।

परंतु अजय देवगन ट्रेंड के अनुसार नहीं चलते। अपनी धुन के अनुसार चलने के लिए चर्चा में रहने वाले अजय देवगन ने हिन्दी बनाम अन्य भाषा पर चर्चा का द्वार खोलकर एक बार फिर सिद्ध किया है कि वे हिन्दी को कितना सम्मान देते हैं और अपने फिल्म उद्योग के उत्थान के लिए वे किस हद तक जा सकते हैं। अजय देवगन वह अभिनेता हैं जिन्हें न प्रयोग से समस्या हैं और न ही क्षेत्रीय सिनेमा के राष्ट्रीय सिनेमा में विकसित होने से कोई असहजता, और अब मनोज बाजपेयी सहित धीरे-धीरे अन्य अभिनेता भी मान रहे हैं कि बिन हिन्दी, हिन्दी सिनेमा का कोई अर्थ नहीं। ये तो वही बात है कि बिन चावल की बिरयानी, जो वैसे भी अधपका मांस है जिसे आदि मानव भी खाते थे।

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