दक्षिण का क्षेत्रीय सिनेमा कमाल कर रहा है, उत्तर का क्षेत्रीय सिनेमा अश्लीलता से आगे नहीं बढ़ पा रहा

'कांतारा' ने दिखा दिया कि किसकी प्राथमिकता क्या है?

भोजपुरी सिनेमा

सत्य ही कहा गया है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिससे लोगों को जागरूक तो किया ही जा सकता है। इसके अतिरिक्त सिनेमा के माध्यम से अपने गौरवशाली इतिहास को लोगों के सामने प्रदर्शित भी किया जा सकता है। सिनेमा के माध्यम से विलुप्त होती सांस्कृतिक परंपराओं को संजोया जा सकता है। आज आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि उत्तर और दक्षिण भारतीय सिनेमा में काफी अंतर पाएंगे। जहां एक तरफ तो उत्तर भारतीय सिनेमा जैसे बॉलीवुड को ले लीजिए जिसका जीवन रीमेक और फिर फ्लॉप पर टिका है या भोजपुरी सिनेमा को देख लें. इन्हें अश्लीलता, फूहड़ता से भरा पाएंगे। जिस कारण लोगों का इनसे मोह भंग होता स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगा है। तो दूसरी तरफ दक्षिण भारतीय सिनेमा हैं, जो अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को संजोने और उन्हें पुनर्जीवित करने के प्रयास में जुटा है और यही कारण है कि लोग इसकी ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं।

अब आप हाल में ही प्रदर्शित हुई फिल्म कांतारा को ही देख लीजिए। यह फिल्म हमारे देश की एक ऐसी संस्कृति पर प्रकाश डालती है, जिस पर हम सबको गर्व करना चाहिए परंतु वास्तविकता यह है कि इससे हम सभी अनभिज्ञ हैं।

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इतिहास रच रही है कांतारा 

दरअसल, दक्षिण कन्नड़ संस्कृति के तुलुवा जनजातियों की लोकरीतियों पर आधारित है ‘कांतारा’ जिसे ऋषभ शेट्टी ने लिखा, निर्देशित किया एवं प्रमुख भूमिका भी उन्होंने ही निभाई है। ‘कांतारा’ की कहानी वनवासियों के जमीनों को सरकार और जमींदारों द्वारा कब्जाने के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें ये भी दिखाया गया है कि कैसे आस्था के मामले में वनवासी समाज से पूरे हिन्दुओं को सीखना चाहिए। इस फिल्म की कहानी जल्लीकट्टू जैसे दक्षिण भारत के खेल पर आधारित है, जो आधुनिक और सांस्कृतिक विरासत के बीच एक टकराव को दिखाती है। कांतारा में एक अभिन्न अंग है ‘भूत कोला’।  कर्नाटक स्थित तुलु नाडु के जंगलों में ‘भूत कोला’ पर्व के इर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है। इसे ‘दैव कोला’ या फिर ‘नेमा’ भी कहते हैं। इसमें जो मुख्य नर्तक होता है, उसे वराह का चेहरा धारण करना होता है। इसके लिए एक खास मास्क तैयार किया जाता है। वराह के चेहरे वाले इस देवता का नाम ‘पंजूरी’ है। वराह अवतार भगवान विष्णु का तीसरा अवतार था, जब उन्होंने पृथ्वी को प्रलय से बचाया था।

कांतारा जैसी फिल्म सांस्कृतिक विरासत को समर्पित है इसलिए इसका जादू भी दर्शकों के सिर चढ़कर बोल रहा है। यह कन्नड़ फिल्म के इतिहास की दूसरी सबसे बड़ी फिल्म साबित हुई है। लोग इसे देखने के लिए सिनेमाघरों की तरफ खींचे चले जा रहे है, यही कारण है कि गुरुवार तक फिल्म कमाई के मामले में 250 करोड़ के आंकड़े तक को छू चुकी है। यह फिल्म महज 15 करोड़ के छोटे से बजट में बनाई गई है।

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कांतारा का प्रभाव

फिल्म केवल बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे नहीं गाड़ रही, इसका प्रभाव जमीनी स्तर पर भी पड़ता दिख रहा है। कर्नाटक सरकार ने फिल्म से प्रभावित होकर 60 वर्ष से अधिक उम्र के दैव नर्तकों के लिए मासिक भत्ते की घोषणा की है। वही कांतारा का असर इतना हो रहा है कि लोगों में भी अपनी संस्कृति के प्रति रुचि बढ़ रही है। इसका हालिया उदाहरण तब देखने को मिला जब ‘गुलिगा दैवा’ पर एक नाटक भी हाउसफुल देखने को मिला। विजय कुमार कोडियलबेल के नाटक ‘शिवादूत गुलिगे’ ने शनिवार को मुदिपु में अपना 307वां शो प्रस्तुत किया था। नाटक के लिए पहले से ही 127 शो बुक किए जा चुके हैं, जो 2 घंटे 15 मिनट लंबा है। वैसे तो यह नाटक 2 जनवरी 2020 को रिलीज किया गया था, परन्तु फिर कोरोना महामारी के कारण इसके मंचन पर असर पड़ा। हालांकि गणेश चतुर्थी के बाद से ही टीम लगातार नाटक के शो प्रस्तुत कर रही है। नाटक जल्द ही कन्नड़ में प्रस्तुत किया जाएगा। इसके अलावा टीम दुबई में भी शो प्रस्तुत करेगी। इस नाटक को मराठी और हिंदी में प्रस्तुत किया जाएगा।

यह साफ तौर पर कांतारा जैसी फिल्म का ही प्रभाव है कि दर्शक अपनी संस्कृति से अधिक जुड़ पा रहे है और इसकी तरफ आकर्षित भी हो रहे हैं। केवल दक्षिण भारत ही नहीं उत्तर भारत में भी फिल्म धमाल मचा रही है। फिल्म हिंदी संस्करण में जबरदस्त कमाई करती नजर आ रही है। कुछ फिल्मों की कहानी भारतीय संस्कृति, इतिहास के बारे में बताती है जो भारतीयों को फिल्म से जोड़ती है। यदि जनता कुछ तत्वों को देखना चाहती है जो उनकी भावनाओं, संस्कृति, इतिहास से संबंधित हैं, तो निश्चित रूप से वे इस कहानी से जुड़ जाते है, एक अच्छी कहानी अच्छे मनोरंजन के साथ फिल्म देखने के लिए दर्शकों को अधिक आकर्षित करती है। इसी कारण है कि दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरफ उनका झुकाव बढ़ने लगा है, क्योंकि वहां ऐसी कई फिल्में बनाई जा रही है, जो हमारे गौरवशाली इतिहास और संस्कृति के बारे में बात करती हैं।

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फिल्मों के नाम पर अश्लीलता 

इसके इतर हम यदि उत्तर भारतीय सिनेमा को देखें को क्या यह सब पाएंगे? यहां बॉलीवुड की तो बात ही करना बेकार है। क्योंकि बॉलीवुड के लिए अपनी संस्कृति को गर्व से दिखाना तो दूर की बात रही, हिंदू धर्म का उपहास उड़ाने में सबसे आगे है। हालांकि अब दर्शक भी ऐसे लोगों को नकारते नजर आते हैं।

भोजपुरी सिनेमा ही देख लें तो वहां अश्लीलता के कुछ और पाएंगे? नहीं न। भोजपुरी सिनेमा पूरी तरह से अश्लीलता से भरा पड़ा है या यूं कहें भोजपुरी सिनेमा अश्लीलता का पर्याय ही बन गया है। गानों से लेकर भोजपुरी फिल्मों में आज केवल यही सब देखने को मिलता है। परंतु हमेशा से भोजपुरी सिनेमा ऐसा था नहीं। भिखारी ठाकुर, महेंद्र मिश्र और शारदा सिन्हा जैसे कलाकार भी रहे हैं। परंतु आज क्षेत्रीय कला और साहित्य के निहित उद्देश्यों से इतर भोजपुरी सिनेमा का मूल उद्देश्य केवल आर्थिक फायदे तक सीमित रह गया है और यह मनोरंजन के नाम पर आपके सामने यह बेफिजूल की चीज़े परोस रहे है। यही कारण है कि आज के समय में लोग दक्षिण भारतीय सिनेमा को अधिक पसंद करते नजर आते हैं, क्योंकि दर्शकों को कुछ नया और अपनी संस्कृति से जुड़ा कुछ अद्भुत देखने को मिल रहा है। जबकि उत्तर भारतीय सिनेमा अश्लीलता के आगे ही नहीं बढ़ पा रहा।

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