सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” – हिन्दी साहित्य के आधारस्तंभ

हिंदी साहित्य में "निराला" के योगदान को भुलाया नहीं किया जा सकता!

Suryakant tripathi Nirala

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मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,

मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;
अभी न होगा मेरा अन्त”।

विपत्ति से किसे दो चार नहीं होना पड़ता परंतु विपत्ति में जो तपकर स्वर्णकलश के रूप में दमके, वही असली रत्न समान है। ऐसे ही रत्न थे हिन्दी साहित्य के पुरोधा श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जो चुनौतियों से वैसे ही भिड़ते थे, जैसे तूफ़ानों से चट्टान भिड़ जाता है।

इनका जन्म अखंड बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में माघ मास के शुक्ल पक्ष के ११वें दिन, संवत् 1955, तद्नुसार 21 फ़रवरी, सन् 1897 में हुआ था। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा १९३० में प्रारंभ हुई। उनका जन्म मंगलवार के शुभ दिन पर हुआ था। जन्म-कुण्डली बनाने वाले पंडित के कहने से उनका नाम सुर्यकुमार रखा गया। उनके पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वो मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गांव के निवासी थे।

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बहुत विशेष सुविधाएं न होने के बाद भी सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के लालन पालन में कोई कमी नहीं हुई। परंतु विपत्ति और उनका नाता मानो बचपन से जुड़ा हुआ था। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष के होते-होते उनके पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का बोझ भी निराला पर पड़ा। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। वर्ष 1918 में स्पेनिश फ्लू इन्फ्लूएंजा के प्रकोप में निराला ने अपनी पत्नी और बेटी सहित अपने परिवार के आधे लोगों को खो दिया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता।

परंतु इतनी कठिनाइयों के बाद भी सूर्यकांत ने पराजय स्वीकार नहीं की। निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। उन्होंने १९१८ से १९२२ तक नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। १९२२ से १९२३ के दौरान कोलकाता से प्रकाशित ‘समन्वय’ का संपादन किया, १९२३ के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहां वो संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से १९३५ के मध्य तक संबद्ध रहे। १९३५ से १९४० तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद १९४२ से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता ‘जन्मभूमि’ प्रभा नामक मासिक पत्र में जून १९२० में, पहला कविता संग्रह १९२३ में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध ‘बंग भाषा का उच्चारण’ अक्टूबर १९२० में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ।

अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वो हिन्दी में मुक्तछन्द के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। १९३० में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में उन्होंने लिखा है, “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है।” मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य दूसरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं और फिर भी स्वतंत्र ही होते हैं। इसी तरह कविता का भी हाल है।

निराला ने १९२० ई॰ के आसपास से लेखन कार्य आरंभ किया। उनकी पहली रचना ‘जन्मभूमि’ पर लिखा गया एक गीत था। लंबे समय तक निराला की प्रथम रचना के रूप में प्रसिद्ध ‘जूही की कली’ शीर्षक कविता, जिसका रचनाकाल निराला ने स्वयं १९१६ ई. बताया था वस्तुतः १९२१ ई. के आसपास लिखी गयी थी तथा १९२२ ई॰ में पहली बार प्रकाशित हुई थी। कविता के अतिरिक्त कथा साहित्य तथा गद्य की अन्य विधाओं में भी निराला ने निम्नलिखित कृतियाँ रची है –

काव्यसंग्रह

अनामिका (१९२३), परिमल (१९३०), गीतिका (१९३६), अनामिका (द्वितीय) (१९३९) (इसी संग्रह में सरोज स्मृति और राम की शक्तिपूजा जैसी प्रसिद्ध कविताओं का संकलन है।), तुलसीदास (१९३९), कुकुरमुत्ता (१९४२), अणिमा (१९४३), बेला (१९४६), नये पत्ते (१९४६), अर्चना(१९५०), आराधना (१९५३), गीत कुंज (१९५४), सांध्य काकली, अपरा (संचयन)

उपन्यास

अप्सरा (१९३१), अलका (१९३३), प्रभावती (१९३६), निरुपमा (१९३६), कुल्ली भाट (१९३८-३९), बिल्लेसुर बकरिहा (१९४२), चोटी की पकड़ (१९४६), काले कारनामे (१९५०) {अपूर्ण}, चमेली (अपूर्ण), इन्दुलेखा, तकनीकी

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कहानी संग्रह

लिली (१९३४), सखी (१९३५), सुकुल की बीवी (१९४१), चतुरी चमार (१९४५) (‘सखी’ संग्रह की कहानियों का ही इस नये नाम से पुनर्प्रकाशन), देवी (१९४८) (यह संग्रह वस्तुतः पूर्व प्रकाशित संग्रहों से संचयन है। इसमें एकमात्र नयी कहानी ‘जान की !’ संकलित है।)

निबन्ध-आलोचना

रवीन्द्र कविता कानन (१९२९)

प्रबंध पद्म (१९३४)

प्रबंध प्रतिमा (१९४०)

चाबुक (१९४२)

चयन (१९५७)

संग्रह (१९६३)

पुराण कथा

महाभारत (१९३९)

रामायण की अन्तर्कथाएँ (१९५६)

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बालोपयोगी साहित्य

भक्त ध्रुव (१९२६)

भक्त प्रहलाद (१९२६)

भीष्म (१९२६)

महाराणा प्रताप (१९२७)

सीखभरी कहानियाँ (ईसप की नीतिकथाएँ) [१९६९]

परंतु सूर्यकांत जितना अपने साहित्य की रचनाओं के लिए प्रसिद्ध थे, उतना ही उसके सम्मान के लिए भी, चाहे उसके लिए किसी से भी भिड़ना पड़े। एक समय की बात है, वो  अपने प्रकाशक के यहां से रॉयल्टी लेकर इक्के पर चले आ रहे थे। रास्ते में एक बुढ़िया भिखारिन ने तीव्र स्वर में पुकारा- ‘बेटा, भीख दे दो।’ निराला जी ने इक्का रुकवाया और उतरकर बुढ़िया की ओर बढ़े। बुढ़िया ने समझा कि कोई बड़ी भीख मिलने वाली है किन्तु निराला जी ने बुढ़िया का गला पकड़ लिया और पूछना शुरू किया- ‘तुम निराला की मां बनकर भीख मांग रही हो? बोलो यदि तुम्हें पांच रुपए दूं तो कब तक भीख नहीं मांगोगी?’ बुढ़िया ने कहा, ‘आज भर।’ निराला जी ने पूछा- ‘यदि दस?’, ‘तो दो रोज। ‘यदि सौ दूं तो?’ बुढ़िया हतप्रभ हो गई। निराला जी की जेब में कई सौ रुपए थे। सभी रुपए निकालकर उन्होंने बुढ़िया की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘निराला की मां होकर यदि आज से तुमने कभी भीख मांगी तो गला दबा दूंगा।’ यह कहकर रिक्तहस्त हो निराला अपने निवास स्थान चले गए। बुढ़िया ने दानी बेटे को लाख आशीष दिए।

यूं तो महात्मा गांधी के विरुद्ध एक शब्द कहना किसी के लिए आज अशोभनीय माना जाता है परंतु जब बात भाषा के सम्मान की हो तो सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ इनसे भी भिड़ने से पूर्व एक बार नहीं सोचते थे। एक बार गांधी जी ने कह दिया कि हिन्दी में एक भी रवीन्द्रनाथ टैगोर नहीं हुआ तो निराला जी ने ललकारते हुए कहा, ‘आपको हिन्दी का क्या पता? उसको तो हम जानते हैं। आपने मेरी रचनाएं पढ़ी हैं?’ उन्होंने जब शास्त्रार्थ की चुनौती दी तो गांधी निरुत्तर हो गए और पतली गली से खिसकते बने। ऐसे ही राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर नेहरू जी से निराला जी की भिड़ंत रेलगाड़ी में हुई थी। बातचीत के दौरान नेहरू जी ने हिन्दी शब्द भण्डार पर कुछ छींटाकशी की तो निराला जी ने पूछ दिया, ‘क्या आप ‘ओउम्’ का अर्थ बता सकते हैं?’ नेहरू जी निरुत्तर रह गए थे। आज सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हमारे बीच नहीं हैं परंतु हिन्दी भाषा और उसके लिए उनका योगदान अद्वितीय है, जिसके कभी भी विस्मृत नहीं किया जाता।

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