डाकू रत्नाकर के आदिकवि वाल्मीकि जी बनने की कथा

रामायण के रचयिता की अद्भुत कहानी!

Maharishi Valmiki Jayanti

Maharishi Valmiki Jayanti 2022: एक व्यक्ति ने देवर्षि नारद जी से प्रश्न किया, “सम्प्रति इस लोक में ऐसा कौन मनुष्य है जो गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी और दृढ़व्रत होने के साथ-साथ सदाचार से युक्त हो। जो सब प्राणियों का हितकारक हो, साथ ही विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन हो?” आज Maharishi Valmiki Jayanti है, आईये जानते है वाल्मीकि महर्षि वाल्मीकि कैसे बने? 

कोऽन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।

धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः॥१-१-२

चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः।

विद्वान् कः कस्समर्थश्च कैश्चैकप्रियदर्शनः॥१-१-३

आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयकः।

कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे॥१-१-४

देवर्षि नारद ने उत्तर दिया,

“इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न, अयोध्यापति श्री रामचन्द्र में ये सभी गुण हैं।

श्रीराम के सोलह गुण, जो आदर्श पुरुष में होने चाहिए-

  1. गुणवान्
  2. वीर्यवान् ( वीर )
  3. धर्मज्ञ ( धर्म को जानने वाला)
  4. कृतज्ञ ( दूसरों द्वारा किये हुए अच्छे कार्य को न भूलने वाला)
  5. सत्यवाक्य ( सत्य बोलने वाला)
  6. दृढव्रत ( दृढ व्रती )
  7. चरित्रवान्
  8. सर्वभूतहितः ( सभी प्राणियों के हित करने वाला)
  9. विद्वान्
  10. समर्थ
  11. सदैक प्रियदर्शन ( सदा प्रियदर्शी )
  12. आत्मवान् ( धैर्यवान )
  13. जितक्रोध (जिसने क्रोध को जीत लिया हो)
  14. द्युतिमान् (कान्तियुक्त )
  15. अनसूयक (ईर्ष्या को दूर रखने वाला)
  16. बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ( जिसके रुष्ट होने पर युद्ध में देवता भी भयभीत हो जाते हैं)

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क्या आपको ज्ञात है कि प्रश्न करने वाला यह व्यक्ति कौन था? कोई परम प्रतापी, पराक्रमी योद्धा? नहीं! कोई महाज्ञानी पंडित? नहीं! कोई निर्मोही साधु? नहीं! कोई धनवान व्यापारी? कदापि नहीं! एक तुच्छ, पिछड़े वर्ग से आने वाला डकैत, जिसका नाम था रत्नाकर। अब आप सोच रहे होंगे, एक दस्यु पुरुष एवं देवर्षि में कैसा संवाद? परंतु यदि मैं आपसे कहूं, कि इसी दस्यु ने एक ऐसे महाकाव्य को रचा जो सृष्टि और भारत की संस्कृति का आधार है, तो?

आप सोचेंगे, ऐसा सोचने का दुस्साहस भी कैसे किया? परंतु, यही एक आदिकवि का आधार है, जिन्होंने हमारे परम पूज्य महाकाव्य, रामायण की रचना की। जी हां, ये कथा है उस दस्युराज रत्नाकर की जिसे इतिहास और भारतवर्ष आज महर्षि वाल्मीकि के नाम से जानता है और उनकी पूजा भी करता है।

सनातन वर्ष के शरद पूर्णिमा को जन्मे महर्षि वाल्मीकि प्रारंभ में रत्नाकर नामक दस्यु थे, जिन्हें लोगों को सताने एवं उनका हरण करने में बड़ा आनंद आता था। परंतु उस समय भी उनके कुछ आदर्श थे, जो उन्हें अन्य अपराधियों से अलग करते थे। वे अपराधी कम, कला के प्रति अधिक रुचि रखते थे और इस बात की ओर वे स्वयं भी ध्यान नहीं देते थे।

जनश्रुतियों एवं स्कन्द पुराण की माने तो इन्होंने एक ऐसे ही किसी ऋषि को लूटने का प्रयास किया, परंतु वह उससे विचलित नहीं हुआ, उलटे उसे सन्मार्ग पर चलने का सुझाव दिया। रत्नाकर यूं तो किसी की एक न सुनता था, परंतु न जाने क्यों उस महर्षि की बातों से बहुत प्रभावित हुआ। अब यह पुष्ट नहीं हुआ है कि वह ऋषि कौन थे। कोई कहते हैं कि वह देवर्षि नारद थे, कोई कहते हैं कि वह महर्षि पुलह थे, परंतु इतना तो स्पष्ट था कि इसके पश्चात उन्होंने घोर तपस्या प्रारंभ कर दी। इन्होंने इतनी घोर तपस्या की कि उनके देह पर चींटियां विचरण करने लगीं और उन्हें तनिक भी आभास नहीं हुआ, न कोई कष्ट हुआ और इसलिए इनका नाम रत्नाकर से ‘वाल्मीकि’ हो गया।

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परंतु वाल्मीकि महर्षि वाल्मीकि (Maharishi Valmiki) कैसे बने?

ऐसा वर्णन है कि एक समय वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के एक जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि बहेलिये ने प्रेम-मग्न क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया। इस पर मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुनकर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥

[अर्थात हे मूर्ख, तुमने प्रेम में मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पाएगी और तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा।]

उसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य “रामायण” (जिसे “वाल्मीकि रामायण” के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और “आदिकवि वाल्मीकि” के नाम से अमर हो गये। अपने महाकाव्य “रामायण” में उन्होंने अनेक घटनाओं के समय सूर्यचंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञानी थे। महर्षि वाल्मीकि जी ने पवित्र ग्रंथ रामायण की रचना की परंतु वे आदिराम से अनभिज्ञ रहे।

ऐतिहासिक शिलालेखों के मान्यतानुसार रामायण का समय त्रेतायुग का माना जाता है। गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र, श्रीराघवेंद्रचरितम् के रचनाकार श्रीभागवतानंद गुरु आदि के अनुसार श्रीराम अवतार श्वेतवाराह कल्प के सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेता युग में हुआ था जिसके अनुसार श्री रामचंद्र जी का काल लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व का है। इसके सन्दर्भ में विचार पीयूष, भुशुण्डि रामायण, पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, संजीवनी रामायण एवं पुराणों से प्रमाण दिया जाता है।

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Maharishi Valmiki Jayanti 2022: वाल्मीकि जी को प्रत्येक घटना का पूर्ण ज्ञान था

इस महाकाव्य के ऐतिहासिक विकास और संरचनागत परतों को जानने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। आधुनिक विद्वान इसका रचनाकाल 7वीं से 4वीं शताब्दी ईसा पूर्व मानते हैं। कुछ भारतीय कहते हैं कि यह ६०० ईपू से पहले लिखा गया। उसके पीछे तर्क यह है कि महाभारतबौद्ध धर्म के बारे में नहीं लिखा है, जबकि उसमें जैनशैवपाशुपत आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है। महाभारत, रामायण के पश्चात रचित है, अतः रामायण गौतम बुद्ध के काल के पूर्व का होना चाहिए। भाषा-शैली के अनुसार भी रामायण, पाणिनि के समय से पहले का होना चाहिए।

आज जो भी आप रामायण के नाम पर बकवास/अनर्गल प्रलाप पढ़ रहे हैं, वह सब मूल रामायण से कोसों दूर हैं, क्योंकि इनमें वाल्मीकि जी द्वारा रचे रामायण की आत्मा नहीं है। वाल्मीकि जी को “श्रीराम” के जीवन में घटित प्रत्येक घटना का पूर्ण ज्ञान था। सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है इसलिए भगवान वाल्मीकि को सृष्टिकर्ता भी कहते हैं। रामचरितमानस के अनुसार जब श्रीराम वाल्मीकि आश्रम आए थे तो आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने के लिए वे जमीन पर डंडे की भांति लेट गए थे और उनके मुख से निकला था “तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विस्व बदर जिमि तुमरे हाथा।” अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हैं। ये संसार आपके हाथ में एक बैर के समान प्रतीत होता है।

महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है। जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं तो द्रौपदी यज्ञ रखती है, जिसके सफल होने के लिये शंख का बजना जरूरी था परन्तु कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी यज्ञ सफल नहीं होता तो कृष्ण के कहने पर सभी वाल्मीकि जी से प्रार्थना करते हैं। जब वाल्मीकि जी वहां प्रकट होते हैं तो शंख स्वयं बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण हो जाता है। इस घटना को कबीर ने भी स्पष्ट किया है “सुपच रूप धार सतगुरु आए। पांडवों के यज्ञ में शंख बजाए।”

ये सनातन धर्म की महिमा है कि हमारे सबसे महत्वपूर्ण महाकाव्य की रचना किसी ब्राह्मण या ठाकुर ने नहीं, एक पिछड़े वर्ग के व्यक्ति ने की, जो अपने कर्मों से संत बना, और जिनकी पूजा आज भी की जाती है, जिनके लिए आज भी लोग श्री राम के मंदिर में एक सम्मानजनक और विशिष्ट स्थान रखते हैं। कुछ स्थान आपको बने बनाए मिलते हैं, और कुछ स्थान एवं पद आपको कमाने पड़ते हैं। रत्नाकर/महर्षि वाल्मीकि (Maharishi Valmiki) ने यही सम्मान अपने कर्मों से कमाया है और आज वे भारतीय संस्कृति के ‘आदिकवि’ हैं एवं व्यक्तित्व में परिवर्तन कैसे होता है, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी। tfi की ओर से आपको Maharishi Valmiki Jayanti की ढेरों शुभकामनाएं।

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