क्यों 36 वर्षों तक वीरप्पन को पकड़ने में असफल रही कर्नाटक पुलिस?

184 लोग, 2000 हाथियों को मारने वाला वीरप्पन पुलिस को चकमा देता रहा और फिर...

वीरप्पन

लोग अक्सर यह कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति जन्म से ही अपराधी नहीं होता। कुछ हालत लोगों को अपराधी बनने के लिए मजबूर कर देते हैं। परंतु आवश्यक तो नहीं कि यह बात हर किसी के लिए सही ही बैठे। कुछ अपवाद भी होते हैं। अपराध की दुनिया में ऐसा ही एक नाम था कूज मुनिस्वामी वीरप्पन का, जो वीरप्पन के नाम से लोकप्रिय है। उसने यह साबित किया था कि एक व्यक्ति जन्म से ही अपराधी हो सकता हैं।

वीरप्पन की कहानी कुछ ऐसी है जिसे सुनकर हर किसी के रूंह कांप उठे। 18 जनवरी 1952 को कर्नाटक के गोपीनाथम परिवार में वीरप्पन का जन्म हुआ था। उसका पूरा परिवार शिकार और तस्करी के लिए जाना जाता था। कहते हैं कि जिस माहौल में हम पले-बढ़े होते है उसका प्रभाव हम पर पड़ता ही है। ऐसा ही कुछ वीरप्पन के साथ भी था। बचपन से ही उसका दिमाग एक शिकारी, डकैत और तस्कर की तरह काम करने लगा था। वीरप्पन जब महज 10 वर्ष का था, तब उसने अपना पहला शिकार किया था। 17 साल की आयु में उसने अपनी पहली हत्या की घटना को अंजाम दिया था। तब उसने एक वन सुरक्षा कर्मी की गोली मारकर हत्या कर दी थीं।

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मारे गए 184 लोगों के खून से रंगे हैं हाथ

18 साल की उम्र तक आते आते तक तो वह अवैध कामों में इतना पारंगत हो गया कि रास्ते में जो भी आता वीरप्पन उसे सीधा ही बंदूक से उड़ा देता था। फिर चाहे वो कोई भी हो, एक पुलिस अधिकारी, एक वन अधिकारी या कोई और। बताया जाता है कि वीरप्पन के हाथ केवल एक-दो, पांच या दस नहीं बल्कि पूरे 184 लोगों के खून से रंगे हुए हैं। उस पर तकरीबन 184 लोगों की हत्या को अंजाम देने का आरोप लगा है। इसके अतिरिक्त कहा तो यह तक जाता है कि वीरप्पन ने हाथियों की दांतों की तस्करी के लिए कुल दो हजार हाथी मारे। साथ ही हजारों चंदन के पेड़ तक काट दिए थे।

वैसे तो अपने कारनामों के लिए वीरप्पन चर्चाओं में रहता था और उसने नाम से ही लोग दहशत में आ जाते थे। परंतु कई घटनाओं के कारण वो पूरे देश में लोकप्रिय हो गया था। ऐसी ही एक घटना थी वर्ष 1987 की, जब वीरप्पन ने स्तयमंगलम जिले के वन अधिकारी चिदंबरम का अपहरण कर उन्हें मार दिया था। इस घटना ने दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक सबका ध्यान उसकी तरफ खींचा था। इसके बाद साल 1991 में वीरप्पन ने एक वरिष्ठ आईएफएस अधिकारी पंडिल्लापल्ली श्रीनिवास को मारा था। 1992 में उसने पुलिस दल पर घात लगाकर हमले किए थे, जिसके बाद उसका नाम और भी चर्चा में आ गया।

90 के दशक की बात की जाये तो इसे वीरप्पन की दहशत से जाना जाने लगा था। वह आम लोगों तक को निशाना बनाने लगा। पुलिस का खबरी होने के शक में ही वीरप्पन ने कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।

1993 में हुए पालर ब्लास्ट के बाद तो वीरप्पन को लेकर लोगों के मन में डर और बढ़ गया था। तब हुआ कुछ यूं था कि 8 अप्रैल 1993 को मेट्टूर के गोविंदपडी गांव में एक बंडारी की पुलिस खबरी होने के संदेह में हत्या कर दी। साथ ही उसने अपने गिरोह को ट्रैक करने और गिरफ्तार करने के लिए पुलिस बल को खुले तौर पर चुनौती भी दी थीं। इसकी जांच के लिए 41 लोगों की एक टीम को भेजा गया, जिसमें पुलिस और वन अधिकारी शामिल थे। परंतु वीरप्पन पहले ही इन सबके बारे में जान गया था और उसने पुलिस के रास्ते में बारूंदी सुरंग बिछा दी। जैसे ही टीम मलाई महादेश्वरा हिल्स पहुंची इस दौरान एक जोरदार धमाका हुआ और 22 अधिकारियों की मौत हो गई। साल 1992 में तो वीरप्पन को पकड़ने के लिए उस पर 5 करोड़ तक का इनाम रखा गया था।

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अभिनेता राजकुमार को कर लिया था अगवा

साल 1997 में वीरप्पन ने 9 वन अधिकारियों को अगवा किया था। वर्ष 2000 में तो उसने लोकप्रिय दक्षिण भारतीय अभिनेता राजकुमार का ही अपहरण कर लिया। राजकुमार जब एक गृह प्रवेश कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए गये थे, तब वीरप्पन ने उनका अपरहरण किया था। उनको छोड़ने के बदले में उसने यह मांग रखी कि तमिल को कर्नाटक की दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया जाये। साथ ही कुछ तमिल चरमपंथियों को भी छोड़ने के लिए उसने कहा था। बताया जाता है कि 20 करोड़ रुपये की फिरौती लेने के बाद उसने 108 दिनों में राजकुमार को छोड़ा था। वहीं अगस्त 2002 में कर्नाटक के पूर्व मंत्री एच नागप्पा को उनके गांव के घर से किडनैप किया गया था। कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल तीन राज्यों की पुलिस मिलकर भी नगप्पा को बचा नहीं सकीं। मांग पूरी नहीं होने पर वीरप्पन ने उन्हें मार दिया था।

अवैध तस्करी के माध्यम से वीरप्पन ने ढेर सारा पैसा कमा लिया था और जैसा कि कहते हैं कि पैसे के साथ पावर अपने आप ही आ जाती है। वैसा ही वीरप्पन के साथ भी था उसने बड़े बड़े लोगों में अपनी पहचान बनाने लगा और बच निकलने लगा। उसका नाम कई बड़ी हस्तियों के अपहरण में भी आ चुका है।

वीरप्पन के नाम का खौफ तमिलनाडु के साथ केरल और कर्नाटक में भी था। विदेशों में भी वह अपने कारनामे के लिए लोकप्रिय रहा है। हाथी दांत के लिए उस पर सैकड़ों हाथियों की हत्या और चंदन तस्करी के लिए 150 से अधिक लोगों की  हत्या का आरोप वीरप्पन था। पुलिस की आंखों में धूल झोंकना तो उसके मानो बाएं हाथ का खेल था। 20 सालों तक पुलिस वीरप्पन की तलाश में जुटी रहीं और इसके लिए करोड़ों रुपये भी खर्च किये गये। कई अभियान भी चले, परंतु पुलिस को सफलता हासिल नहीं हो पायीं।

वैसे ऐसा नहीं है कि वीरप्पन कभी पुलिस की गिरफ्त में ही नहीं आया। वो गिरफ्तार हुआ, परंतु हर बार चकमा देने में भी कामयाब रहा। पहली बार उसकी गिरफ्तारी वर्ष 1972 में हुई थी। वहीं दूसरी बार वीरप्पन साल 1986 में गिरफ्तार हुआ। उस दौरान उसे बूडीपाडा फॉरेस्ट गेस्ट हाउस में रखा गया था जहां से वह संदिग्ध परिस्थितियों में फरार हो गया था। कहा तो यह तक जाता है कि एक बार की बात है जब वीरप्पन स्पेशल टास्क फोर्स की पकड़ में आ गया था और अधिकारियों के द्वारा उसे गन प्वॉइंट पर भी ले लिया था। परंतु इस दौरान वीरप्पन ने एक फोन करने की मांग रखी और तब उसने किसी बड़े मंत्री को फोन मिलाया। तब उसे छोड़ दिया गया था। हालांकि यह तो एक कहानी है, इसमें सच्चाई कितनी है यह किसी को नहीं मालूम।

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बेटी तक को मार दिया था

वीरप्पन कितना क्रूर था, इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि उसने अपनी ही बेटी को मार दिया था। उसकी तलाश में पुलिस जुटी हुई थी। एक बात की बात है जब उसे डर था कि बेटी की रोने की आवाज से पुलिस को उसके ठिकाने का लग जाएगा। तब वह अपनी बेटी को तो चुप कराने में कामयाब नहीं हो पाया, परंतु उसने अपनी बच्ची का ही गला घोंटकर उसे मार दिया।

परंतु कहते हैं कि पाप का घड़ा एक न एक दिन भर ही जाता हैं और ऐसा ही कुछ वीरप्पन के साथ भी था। उसके पापों का घड़ा भर गया, जिसके बाद वर्ष 2004 में वह पुलिस के हत्थे चढ़ा और एनकाउंटर में वह ढेर हो गया। वीरप्पन को पकड़ना कई राज्यों की पुलिस के लिए चुनौती बन गया था। तभी तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने एक स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया। वीरप्पन के खात्मे लिए विजय कुमार को 2003 में एसटीएफ का चीफ बनाया गया था। इसके लिए अंडरकवर ऑपरेशन चलाया गया था, जिसे नाम दिया गया था “ऑपरेशन कोकून”। जब वीरप्पन की गैंग लगातार छोटी होती चली जा रही थी तो इसी का फायदा उठाकर विजय कुमार ने वीरप्पन की गैंग में अपने आदमी भर्ती करा दिए।

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मूंछ ही बनी मौत का कारण

18 अक्टूबर 2004 को इनपुट मिला कि वीरप्पन अपनी आंखों के इलाज के लिए जंगल से बाहर आ रहा है। यह वही दिन था जिसके इंतेजार में एसटीएफ चीफ विजय कुमार थे। उन्होंने वीरप्पन के लिए एक एंबुलेंस का इंतजाम किया। इस एंबुलेंस को एसटीएफ का ही आदमी चला रहा था। कुछ इस तरह वीरप्पन घिर गया और करीब 20 मिनट तक चली फायरिंग में वह मारा गया था।

वीरप्पन की कहानी, उसने दहशत भरे कारनामों को लेकर अब तक कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। इसके अलावा निर्देशक राम गोपाल वर्मा ने फिल्म भी बनायी हैं। वीरप्पन अपने कारनामों के लिए जितना लोकप्रिय रहा था, उतना ही मशहूर वह अपनी मूंछों के लिए भी था। उसकी मूंछें 1857 की क्रांति के एक हीरो कट्टाबोमन के जैसी थीं। भले ही वह मूछें वीरप्पन की पहचान बन गयी हो, परंतु यही उसकी मौत का कारण भी बनी थीं। वीरप्पन अपनी मूंछों पर डाई लगा रहा था, इसी दौरान उसकी कुछ बूंदें छिटककर उसकी आंख में जा गिरी थीं, जिस कारण ही उसकी आंखों में तकलीफ हुई। इसका इलाज कराने के लिए वीरप्पन को जंगल के बाहर जाना पड़ा और उसका अंत हो गया था।

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