तेन धार का युद्ध – जब 2000 पाकिस्तानियों पर भारी पड़े थे केवल 11 राजूपत सिपाही

जदुनाथ सिंह राठौड़ के शूरवीरों ने पाकिस्तानी सैनिकों पर ऐसा कहर बरपाया कि उनके हाड़ कांप गए. 2000 में से एक भी नहीं बचा लेकिन इस युद्ध को भी 'विस्मृत' कर दिया गया.

Battle of Tain Dhar

Source- TFI

Battle of Tain Dhar – थर्मोपायली, लोंगेवाला, सारागढ़ी, इन सबके बारे में आपने बहुत सुना होगा पर तेन धार की पवित्र भूमि का उल्लेख कभी सुना है? नौशेरा का नाम सुना है? नहीं? कैसे सुनेंगे, असली इतिहास आपको बताया ही कहां गया है, परंतु एक युग वो भी था, जब केवल 11 राजपूत रेजिमेंट के जवान, जिनमें से एक तो विशुद्ध सैनिक भी नहीं था, 2000 से अधिक पाकिस्तानी जिहादियों पर राजा रामचन्द्र और बजरंग बली को स्मरण करते हुए टूट पड़े। कोई नहीं बचा परंतु उनका रौद्र रूप देखकर इन ‘असुरों’ के हाड़ कांप गए और फिर नौशेरा में एक अलग इतिहास रचा गया, जिससे आज तक हमसे अनभिज्ञ रखा गया है। इस लेख में हम विस्तार से तेन धार के युद्ध से अवगत होंगे, जिसमें मात्र 11 राजपूत सिपाही 2000 से अधिक पाकिस्तानियों पर भारी पड़े थे और उनका नेतृत्व नायक जदुनाथ सिंह राठौड़ जैसे योद्धा ने किया था।

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कश्मीर युद्ध में काम आया उनका हठी स्वभाव

21 नवंबर 1916, शाहजहांपुर के खजूरी ग्राम में बीरबल सिंह राठौड़ और यमुना कुंवर को एक पुत्र हुआ था। वह आठ बच्चों में तीसरा था। इनका नाम यदुनाथ था। हालांकि, ब्रिटिश रिकॉर्ड्स में इसे जदुनाथ भी लिखा जाता है। श्री सिंह ने अपने गांव के स्थानीय स्कूल में चौथी तक अध्ययन किया था लेकिन वह अपने परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण अपनी शिक्षा को आगे नहीं बढ़ा सके। उन्होंने अपना बचपन का अधिकांश समय अपने खेत में कृषि कार्य में अपने परिवार की मदद करने में बिताया। खेल क्रीड़ा में उन्होंने कुश्ती की और अंततः अपने गांव के कुश्ती चैंपियन बन गए। अपने चरित्र और कल्याण के लिए उन्हें “हनुमान भगत बाल ब्रह्मचारी” नाम से जाना जाता था। ‘संकट मोचन नाम तिहारो’ जपते जपते उन्होंने ब्रह्मचर्य को आत्मसात कर लिया और उसी को अपने जीवन का मूल मंत्र मान लिया था।

प्रारंभ में जदुनाथ सिंह केवल कुश्ती में लीन थे परंतु शीघ्र अपने आप को सिद्ध करने हेतु उन्होंने सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया। संयोगवश ये वो समय था जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था। एक लोककथा इनके बारे में बड़ी चर्चित है, जिसे बहुचर्चित सीरीज़ ‘परमवीर चक्र’ में भी बड़े अच्छे से चित्रित किया गया है। जदुनाथ हृष्ट पुष्ट थे और मांसाहार के विरुद्ध थे और ये बात उनके ब्रिटिश CO को नहीं भाई। उन्होंने जदुनाथ को वही भोजन खाने का आदेश तो जदुनाथ ने कहा कि वह उसके बिना भी बलशाली रह सकते हैं और उनके मांसाहार ग्रहण करने वाले पहलवानों को पराजित भी कर सकते हैं। जब जदुनाथ ने अपनी इसी चुनौती को सफलतापूर्वक पूरा करके दिखाया तो इससे प्रभावित होकर उनके CO को भी उनके दूध-दही भात के व्यंजनों को स्वीकृति देनी पड़ी।

यही हठी स्वभाव बाद में कश्मीर युद्ध में काम आया। जदुनाथ अब नायक पद पर पदोन्नत हो चुके थे और उन्हें नौशेरा सेक्टर की रक्षा करने भेजा गया था। खराब मौसम ने इस कार्रवाई पर प्रतिकूल असर डाला तथा 24 दिसंबर 1947 को झांगर पर पाकिस्तानियों द्वारा कब्जा कर लिया गया, जो रणनीतिक रूप से नौशेरा सेक्टर पर कब्ज़ा करने के लिए लाभप्रद था, जिससे उन्हें मीरपुर और पुंछ के बीच संचार लाइनों पर नियंत्रण मिल गया और एक शुरुआती बिंदु मिल गया जिससे हमला किया जा सके।

नौशेरा की लड़ाई – Battle of Tain Dhar

जदुनाथ सिंह उस समय नौ जवानों की एक टुकड़ी सहित एक पिकेट संभाल रहे थे। एक सेक्शन कमांडर होने के नाते उन्होंने “अनुकरणीय” नेतृत्व का प्रदर्शन किया और जब तक पूरी तरह घायल नहीं हो गए तब तक अपने जवानों को प्रेरित करते रहे। यह नौशेरा की लड़ाई के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण क्षण साबित हुआ। अचानक तेन धार की उक्त पिकेट पर 6 फरवरी 1948 की सुबह 6:40 बजे पाकिस्तानी सेना ने चौतरफा आक्रमण किया। धुंध और अंधेरे से हमलावर पाकिस्तानी सैनिकों को काफी सहायता मिली। जदुनाथ ने देखा कि बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिक उनकी ओर बढ़ रहे हैं।

अब उनके पास दो ही विकल्प थे या तो पोस्ट से हटकर मुख्य चौकी पर पहुंच जाए या फिर इस पिकेट पर रहकर इन लोगों को उलझाए ताकि रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण न नौशेरा जाए और न ही कश्मीर। जदुनाथ के पास मात्र 9 सिपाही और एक अतिरिक्त सहायक थे, सहायक को शायद ही शस्त्र विद्या का अनुभव था। परंतु सब इतनी वीरता से लड़े कि शत्रु, जो प्रारंभ में विजय का सेहरा बांधकर लहराने आए थे, तीसरे हमले की समाप्ति तक आधे से अधिक अपने साथी गंवा चुके थे। जिस सहायक को शस्त्र चलाना नहीं आता था, वह आयुध खत्म होने पर शत्रु की तलवार छीनकर उन्हें ही काटने दौड़ पड़ा और जब तक खुद गोलियों की बौछार से वीरगति को प्राप्त नहीं हुआ, तब तक लड़ता रहा।

परंतु दुर्भाग्य देखिए, इस वीर गाथा (Battle of Tain Dhar) को बताने वाला लगभग कोई नहीं बचा था और अगर बचा भी तो पर्याप्त साक्ष्य ही नहीं रहे। स्वयं इस कथा को संकलित करने वाली एक लेखिका रचना बिष्ट रावत बताती है, “इस युद्ध के प्रमाण जुटाना अर्थात् सुई में घास ढूँढने समान थे”। परंतु जदुनाथ का बलिदान बेकार नहीं गया था। पाकिस्तान वह मोर्चा तो हारा ही और साथ ही जदुनाथ को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। धन्य हैं ऐसे वीर।

Sources – The Brave, Rachna Bisht Rawat

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