हमारे वृद्धजन यूं ही नहीं कहते हैं कि “आधी को छोड़ सारी को धावे, न आधी मिले न पूरी पावे”। कुछ व्यक्ति ऐसे ही होते हैं जिनके भाग्य आवश्यक नहीं कि सदैव उनके साथ रहें, परंतु कुछ ऐसे भी हैं कि अपने ही हाथों से अपना भाग्य लिखते हैं। एक समय था जब गोविंद अरुण आहूजा यानी गोविंदा अकेले अपने दम पर तीनों खानों की हवा टाइट करने के लिए पर्याप्त थे और उनके पास एक अवसर आया भी परंतु उन्होंने ये अवसर रेत की भांति अपने हाथों से फिसल जाने दिया, यही कारण है कि आज कोई उन्हें पानी भी नहीं पूछता। इस लेख में जानेंगे कि कैसे गोविंदा ने अपने हाथों से अपने ही करियर के विनाश की नींव रखी, और कैसे उनके हाथ से गंवाए गए अवसर का लाभ सन्नी देओल ने गदर के माध्यम से भरपूर उठाया।
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गोविंदा का अभिनय
आज आप बॉलीवुड को जो चाहे कहें वो आपका अधिकार है, परंतु एक समय ऐसा भी था जब बॉलीवुड का प्रभुत्व भारतीय सिनेमा पर सबसे अधिक था। इसमें भी खान तिकड़ी का वर्चस्व सबको दिखाई दे रहा था परंतु उसे चुनौती भी बराबर मिल रही थी। 21वीं सदी आ चुकी थी और बॉलीवुड दो धड़ों में बंट चुका था। एक तरफ थे तीन खान– शाहरुख, सलमान और आमिर, तो दूसरी ओर थे गोविंदा जो अपने अभिनय के दम पर लोगों को सिनेमाघरों तक खींच सकते थे। परंतु गोविंदा केवल रोमांटिक या कॉमिक रोल्स के लिए चर्चित नहीं थे। वे गंभीर भूमिकाएं भी बड़े अच्छे से निभा सकते थे। ‘जैसी करनी वैसी भरनी’, ‘शोला और शबनम’, ‘स्वर्ग’ और ‘नसीब’ में इन्होंने इस बात को सिद्ध भी किया है।
जिस समय गोविंदा सफलता के शिखर पर थे, उन्होंने ‘शिकारी’ जैसी फिल्में भी की थीं, जहां उन्होंने अपनी छवि से एकदम उलट डार्क ग्रे रोल किया। फिल्म बहुत अधिक सफल नहीं हुई परंतु गोविंदा की भूमिका की सबने बहुत प्रशंसा की।
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गोविंदा और गदर
परंतु गोविंदा आज उस सफल अभिनेता का अंश मात्र भी नहीं है, जानते है ऐसा क्यों? इसकी नींव 2000 के प्रारम्भिक दशक में ही पड़ चुकी थी जब सफलता उनके सिर चढ़ने लगी थी। तब उनके साथ काम कर चुके एक निर्देशक एक फिल्म का प्रस्ताव लेकर उनके समक्ष आए। इससे पूर्व इन निर्देशक महोदय ने इनके साथ ‘महाराजा’ बनायी थी जो बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों के अनुसार ठीक ठाक चली थी। अब इस निर्देशक को एक लेखक ने बड़ी रोचक कथा सुनाई, जो विभाजन के आसपास केंद्रित थी। परंतु गोविंदा को न कथा भाई, न किरदार, और इस तरह भाईसाहब ने फिल्म को ही ठुकरा दिया। पता है उन्होंने किस ऐतिहासिक किरदार को ठुकराया था? गदर फिल्म के तारा सिंह का किरदार।
सही समझे आप, वो निर्देशक थे अनिल शर्मा और लेखक थे शक्तिमान तलवार, जो लेकर आए थे ‘गदर – एक प्रेम कथा’ की पटकथा, परंतु इसे गोविंदा ने ठुकरा दिया क्योंकि ये उनके कद के अनुरूप नहीं था और इनके अनुसार किरदार काफी हिंसक था। वैसे इस फिल्म को ऐश्वर्या राय और काजोल ने भी ठुकराया, परंतु उस बारे में फिर कभी।
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सन्नी देओल बन गए तारा सिंह
ऐसे में अनिल शर्मा को सन्नी देओल को बनाना पड़ा अपना तारा सिंह। यूं तो सन्नी देओल ठहरे एक विशुद्ध एक्शन हीरो, जिन्होंने गिने चुने वैकल्पिक श्रेणी के रोल किये थे परंतु एक विशुद्ध रोमांटिक या फैमिली ड्रामा करना, जिसमें भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण भाग दिखाना हो, अपने आप में एक भिन्न कार्य था। परंतु जो सन्नी देओल ने तारा सिंह के माध्यम से किया उसे आज भी कोई नहीं दोहरा सकता।
‘गदर’ 15 जून 2001 को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई, ठीक उसी दिन जिस दिन आमिर खान की बहुप्रतीक्षित ‘लगान’ सिनेमाघरों में आई। आमिर खान के पास सब कुछ था – धन, यश, पावर, सिस्टम, यहां तक कि क्रिटिक्स भी उसकी जेब में थे, परंतु जो गदर तारा सिंह और उसके हैंडपंप ने मचाई उसके सामने लगान को भी बजट बचाने के लाले पड़ गए। काश, इतनी सी बात गोविंदा के पल्ले पड़ गई होती तो आज बॉलीवुड का यह हाल न हुआ होता।
परंतु यह पहला ऐसा मामला नहीं था। जिस ताल में अक्षय खन्ना पर अनिल कपूर भारी पड़ते हुए प्रतीत हुए, वो भी पहले इन्हीं महोदय को ऑफर हुई थी। परंतु बंधु को वो फिल्म भी नहीं जची, और इन्होंने इसका नाम भी बदलने का सुझाव दिया था जो सुभाष घई को पसंद नहीं आया। ठीक इसी भांति ‘देवदास’ का चुन्नी बाबू का किरदार भी इन्हें ही ऑफर हुआ था, परंतु इन्होंने कहा था कि हम तो स्टार है भैया, स्वयं शाहरुख को यह फिल्म मुझे ऑफर करनी चाहिए। इन फिल्मों को ठुकराने के बाद गोविंदा ने क्या खोया इस बारे में आज वो जब भी सोचते होंगे तो स्वयं के निर्णयों पर उनके मन में क्रोध और खींज जैसे भाव तो आते ही होंगे।
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