इतिहास में जय उसी की होती है, जो अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकें। परंतु कई ऐसे भी होते हैं, जिनकी प्रतिभा को उनके जीते जी कभी उचित सम्मान नहीं मिल पाता। निकोला टेस्ला की कथा से हम सभी परिचित हैं, जिनके द्वारा ऊर्जा को मुफ़्त में पहुंचाने के प्रयासों को कुचल दिया गया। परंतु एक और व्यक्ति भी थे जिन्होंने इस संसार को एक अद्वितीय खोज दी, लेकिन इसका श्रेय उन्हें कभी नहीं मिला। इस व्यक्ति का नाम था जगदीश चंद्र बसु (Jagadish Chandra Bose) और ये उन्हीं की कथा है।
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जगदीश चंद्र बसु का जन्म
जगदीश चंद्र बसु का जन्म 30 नवंबर 1858 को ढाका जिले के फरीदपुर क्षेत्र के मेमनसिंह ग्राम में एक प्रख्यात बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता भगवान चन्द्र बसु, ब्रह्म समाज के अनुयायी अवश्य थे परंतु अंधभक्त नहीं थे। वे फरीदपुर, बर्धमान एवं अन्य जगहों पर उप-मैजिस्ट्रेट या सहायक कमिश्नर थे। इनका परिवार रारीखाल गांव विक्रमपुर से आया था, जो आजकल बांग्लादेश के मुंशीगंज जिले में है।
जगदीश चंद्र बसु के परिवार की विशेषता यह थी कि वे जितने ही आधुनिक थे, उतने ही अपने संस्कृति से जुड़ाव भी रखते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा एक बांग्ला विद्यालय में प्रारंभ हुई क्योंकि उनके पिता मानते थे कि अंग्रेजी सीखने से पहले अपनी मातृभाषा अच्छे से आनी चाहिए। विक्रमपुर में 1915 में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए बसु ने कहा- “उस समय पर बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेजना हैसियत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बांग्ला विद्यालय में भेजा गया वहां पर मेरे दायीं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम परिचारक का बेटा बैठा करता था और मेरी बाईं ओर एक मछुआरे का बेटा। ये ही मेरे खेल के साथी भी थे। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियों को मैं कान लगाकर सुनता था। शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।”
विद्यालयी शिक्षा के बाद वे कलकत्ता आ गये और सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश लिया। जगदीश चंद्र बसु की जीव विज्ञान में बहुत रुचि थी और 22 वर्ष की आयु में वे चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए थे। मगर स्वास्थ्य खराब रहने की वजह से इन्होंने चिकित्सक (डॉक्टर) बनने का विचार त्यागकर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट महाविद्यालय चले गये और वहां भौतिकी के एक विख्यात प्रो. फादर लाफोंट ने बसु को भौतिकशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया।
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वायरलेस तकनीक पर शोध
अब वायरलेस तकनीक पर शोध तो बहुत हो रहा था परंतु इसे निष्कर्ष तक यानि यथार्थ में कोई परिवर्तित नहीं कर पाया। जर्मन भौतिकशास्त्री हेनरिक हर्ट्ज ने 1888 में मुक्त अंतरिक्ष में विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व को प्रयोग करके दिखाया। इसके बाद ओलिवर लॉज ने हर्ट्ज का काम जारी रखा और जून 1894 में एक स्मरणीय व्याख्यान दिया (हर्ट्ज की मृत्यु के बाद) और उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। लॉज के काम ने भारत के बसु सहित विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया।
इसी दिशा में जगदीश चंद्र बसु का काम अनुकरणीय था, जिनके माइक्रोवेव अनुसंधान का उल्लेखनीय पहलू यह था कि उन्होंने तरंग दैर्ध्य को मिलीमीटर स्तर पर ला दिया (लगभग 5 मिमी तरंग दैर्ध्य)। वे प्रकाश के गुणों के अध्ययन के लिए लंबी तरंग दैर्ध्य की प्रकाश तरंगों के नुकसान को समझ गए।
इसी बीच 1893 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक निकोला टेस्ला ने पहले सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन किया। एक साल बाद कोलकाता में नवंबर 1894 के एक (या 1895) सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान जगदीश चंद्र बसु ने एक मिलीमीटर रेंज माइक्रोवेव तरंग का उपयोग बारूद दूरी पर प्रज्वलित करने और घंटी बजाने में किया। लेफ्टिनेंट गवर्नर सर विलियम मैकेंजी ने कलकत्ता टाउन हॉल में बसु का प्रदर्शन देखा। बसु ने स्वयं एक बंगाली निबंध ‘अदृश्य आलोक’ में लिखा था, “अदृश्य प्रकाश आसानी से ईंट की दीवारों, भवनों आदि के भीतर से जा सकती है, इसलिए तार की बिना प्रकाश के माध्यम से संदेश संचारित हो सकता है।”
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खोज का पेटेंट नहीं कराया
इस विषय पर बसु ने “डबल अपवर्तक क्रिस्टल द्वारा बिजली की किरणों के ध्रुवीकरण पर” पहला वैज्ञानिक लेख, लॉज के लेख एक साल के भीतर मई 1895 में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को भेजा गया था। उस समय अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया में लॉज द्वारा गढ़े गए शब्द ‘कोहिरर’ का प्रयोग हर्ट्ज़ के तरंग रिसीवर या डिटेक्टर के लिए किया जाता था। इलेक्ट्रीशियन ने तत्काल बसु के ‘कोहिरर’ पर टिप्पणी की: “यदि प्रोफेसर बसु अपने कोहिरर को बेहतरीन बनाने में और पेटेंट सफल होते हैं, हम शीघ्र ही एक बंगाली वैज्ञानिक के प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रयोगशाला में अकेले शोध के कारण नौ-परिवहन की तट प्रकाश व्यवस्था में नयी क्रांति देखेंगे।”
बसु “अपने कोहिरर” को बेहतर करने की योजना बनाई लेकिन यह पेटेंट के बारे में कभी नहीं सोचा और कहीं न कहीं यही निर्णय उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।
बसु ने अपने प्रयोग उस समय किये थे जब रेडियो एक संपर्क माध्यम के तौर पर विकसित हो रहा था। रेडियो माइक्रोवेव ऑप्टिक्स पर बसु ने जो काम किया था वो रेडियो कम्युनिकेशन से पूर्णत्या नहीं जुड़ा था, परंतु उनके इसी पद्वति पर आगे काम करते हुए 1894 तक गुल्येल्मो मार्कोनी (Guglielmo Marconi) ने संसार का प्रथम कामचलाऊ रेडियो तैयार किया। मतलब परिश्रम किया जगदीश बाबू ने और तालियां लूट ले गए मार्कोनी महोदय। कलियुग इसी का नाम है।
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