केवल राजस्थान ही नहीं संपूर्ण भारतवर्ष से जुड़ी है ‘कठपुतली’ की जड़ें

कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है, जो देश के पुरातात्विक इतिहास से जुड़ा हुआ है.

कठपुतली

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भारत की पहचान सनातन से है, वो सनातन जो लोगों को जीवन जीना सिखाती है. यह सनातन सिखाता है कि कैसे अपने जीवन को सुगम बनाना है. सनातन की इसी संस्कृति ने राष्ट्र के तौर पर भारत को नई ऊंचाइयां दी है. भारत सांस्कृतिक और कला के तौर पर इतना विराट है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं. इन्हीं कलाओं में एक कठपुतली भी है और यह कला आज की नहीं बल्कि वर्षों पुरानी है. एक अहम बात यह है कि कठपुतली को मुख्यतौर पर राजस्थान से जोड़ा जाता है लेकिन आज हम आपको यह बताएंगे कि कैसे कठपुतली का इतिहास भारत में विराटता का प्रतीक है. टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है.

दरअसल, देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ कठपुतली प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है. कठपुतली एक ऐसी कला है जो कि इंसानों की सबसे उल्लेखनीय और सरल आविष्कारों में से एक है. इस कला का इतिहास बहुत पुराना है. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में ‘नटसूत्र’ में ‘कठपुतली नाटक’ का उल्लेख मिलता है. इसके अलावा ‘सिंहासन बत्तीसी’ में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की ‘बत्तीस पुतलियों’ का उल्लेख है, जो दिखाता है कि कठपुतली का इतिहास देश के पुरातत्विक इतिहास से जुड़ा है.

जानकारी के मुताबिक ‘कठपुतली इतिहास’ के बारे में कहा जाता है कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाकवि पाणिनी के अष्टाध्यायी ग्रंथ में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है. इसकी शुरूआत को लेकर कुछ पौराणिक मत इस प्रकार भी मिलते हैं कि भगवान शिव जी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर माता पार्वती का मन बहला कर इस कला को प्रारंभ किया था. वहीं, इसी प्रकार उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य के सिंहासन में जड़ित 32 पुतलियों का उल्लेख सिंहासन बत्तीसी नामक कथा में भी मिलता है.

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4 प्रकार की होती हैं कठपुतलियां

आपको बता दें कि यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुंच चुकी है लेकिन खास बात यह है कि कठपुतली का इतिहास सीधे तौर पर भारत से ही है. इन देशों ने इस विद्या का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया. वहां मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में भी कठपुतली का इस्तेमाल किया जा रहा है. कठपुतली के प्रकारों के बात करें तो यह मुख्य तौर पर चार प्रकार के हैं-

धागा कठपुतली: यह शैली अत्‍यंत समृद्ध और प्राचीन है. इसमें कठपुलती को अनेक जोड़ युक्‍त अंग तथा धागों द्धारा संचालित किया जाता है. राजस्‍थान, उड़ीसा, कर्नाटक और तमिलनाडु में यह शैली बहुत लोकप्रिय है.

छाया कठपुतली: इस शैली में कठपुतलियां चपटी होती हैं, अधिकांशत: वे चमड़े से बनाई जाती हैं. इन्‍हें पारभासी बनाने के लिए संशोधित किया जाता है. इन्हें पर्दे को पीछे से प्रदीप्‍त किया जाता है और पुतली का संचालन प्रकाश स्रोत तथा पर्दे के बीच से किया जाता है. दर्शक पर्दे के दूसरे तरफ से छायाकृतियों को देखते हैं. ये छायाकृतियां रंगीन भी हो जाती हैं. यह शैली उड़ीसा, केरल, आन्‍ध्र प्रदेश, कनार्टक, महाराष्‍ट्र और तमिलनाडु में लोकप्रिय है.

दस्‍ताना कठपुतली: इस शैली को भुजा, कर या हथेली पुतली भी कहा जाता है. इन पुतलियों का मस्‍तक पेपर मेशे (कुट्टी), कपड़े या लकड़ी का बना होता है तथा गर्दन के नीचे से दोनों हाथ बाहर निकलते हैं. शेष शरीर के नाम पर केवल एक लहराता घाघरा होता है. इस शैली में अंगूठे और दो अंगुलियों की सहायता से कठपुतलियां सजीव हो उठती हैं. उत्‍तर प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल और केरल में यह कला लोकप्रिय है.

छड़ कठपुतली: यह शैली वैसे तो दस्‍ताना कठपुतली का अगला चरण है लेकिन यह उससे काफी बड़ी होती है तथा नीचे स्थित छड़ों पर आधारित रहती है और उसी से संचालित होती है. यह कला पश्चिमी बंगाल तथा उड़ीसा में बहुत लोकप्रिय है.

इन राज्यों में काफी प्रचलित है यह कला

कठपुतली के राज्यों से जुड़ाव की बात करें तो यह आंध्र प्रदेश में थोलु बोम्मालता (छाया कठपुतली) और कोय्या बोम्मालता (धागा कठपुतली) नाम से है. इसके अलावा असम में पुतल नाच होता है. बिहार में यमपुरी (छड़ कठपुतली) काफी लोकप्रिय है. दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक में गोम्बा अट्टा (धागा कठपुतली) और तोगालु (छाया कठपुतली) की भी लोकप्रियता है. केरल में ओअवा ज्यत्गेर (दस्‍ताना कठपुतली) और तोल पब्वाकुथू (छाया कठपुतली) काफी लोकप्रिय है. महाराष्ट्र में कलासुत्री बहुल्य (धागा कठपुतली) और चम्माद्याचे बहुल्य (छाया कठपुतली) का काफी प्रचलन है.

इसके अलावा उड़ीसा की बात करें तो वहां कंडी नाच (दस्‍ताना कठपुतली), रबाना छाया (छाया कठपुतली), काठी कुण्डी (छड़ कठपुतली) और गोपलीला कमधेरी (धागा कठपुतली) का उपयोग होता है. राजस्थान में धागा कठपुतली काफी प्रचलन में है. तमिलनाडु में बोम्मालात्तम (धागा कठपुतली) और छाया कठपुतली का अस्तित्व है. इसके अलावा पश्चिम बंगाल में इसे पुतल नाच (छड़), तरेर या सुतोर पुतुल  (धागा) और बनेर पुतुल (दस्‍ताना) कहा जाता है. अलग-अलग राज्यों में अलग अलग नाम की कठपुतली कला है लेकिन यह सीधे तौर पर पूरे देश में कठपुतली की कला का विस्तार करती है.

कठपुतली कला विश्व के प्राचीनतम कलाओं में से एक है. इस कला में विभिन्न प्रकार के गुड्डे-गुड़ियों, जोकर आदि पात्रों को कठपुतलियों के रूप में बनाया जाता है. कठपुतली के जरिए आसानी से लोक कथाओं को दिखाया जाता है. इसके अलावा यह भी सामने आया है कि राजनीतिक से लेकर तमाम मुद्दों पर कठपुतलियों के नाटकों के जरिए लोगों को जागरूक किया जाता रहा है. ऐसे में यह कहना एकदम से गलत होगा कि कठपुतली कला सिर्फ और सिर्फ राजस्थान से संबंधित है क्योंकि इसकी जड़ें संपूर्ण भारतवर्ष में फैली हुई है.

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