सुबह उठो एक फैसला ले लो। फिर अगले दिन उसे बदल दो। फिर उसके अगले दिन एक और नया फैसला ले लो। अरे भैया पिछले 17 सालों में बिहार में यही सब चल रहा है। कुछ लोग बात तो ऐसे बदलते हैं जैसे कपड़े। हम यहां बात कर रहे हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की। अब वही नीतीश कुमार छह सालों तक गहरी नींद में सोने के बाद आखिरकार जाग गये हैं और अपनी शराबबंदी नीति को सफल बनाने के लिए कदम उठाने की उन्हें याद आयी हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे नीतीश कुमार भारतीय राजनीति के मुहम्मद बिन तुगलक बनते जा रहे हैं, जिनके जो मन में आता हैं वो करते जा रहे हैं।
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छह सालों बाद नींद से जागे नीतीश कुमार
नीतीश कुमार से उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि के बारे में पूछा जाए तो वो जाहिर तौर पर शराबबंदी नीति को ही बताएंगे। जी हां, वही शराबबंदी नीति जिसका वो हर समय ढ़िंढोरा पीटते रहते हैं, जिसको लेकर अपनी खूब वाह-वाही करते हैं और वोट भी बटोरते आये हैं। वर्ष 2016 में नीतीश कुमार ने बिहार में शराबबंदी लागू की थी, जो पूरी तरह से फ्लॉप हो गयी थी। क्योंकि बिहार में शराब बंद तो नहीं हुई वहीं यहां माफियाओं का राज आ गया। ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार किसी भी नियम को लागू करने के बाद जमीनी स्तर पर इसका प्रभाव पड़ रहा है, यह देखना शायद भूल जाते हैं।
खैर, अब शराब बंदी को लेकर अब छह सालों बाद उनकी नींद खुली है और उन्होंने इसे लेकर फिर से एक बड़ा नियम लागू करने का निर्णय लिया है। दरअसल, हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री ने एक फैसला लिया है। अभी कुछ दिनों पहले ही बिहार में नशा मुक्ति दिवस मनाया गया था। इस दौरान ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बड़ा ऐलान हुए कहा कि शराब का धंधा छोड़ देने वालों को बिहार सरकार एक लाख रुपये की जीविकोपार्जन के लिए देगी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह भी कहा है कि केवल शराब ही नहीं बल्कि ताड़ी बेचने वालों पर भी ये नियम लागू होगा कि अगर वो ताड़ी का धंधा छोड़कर नीरा बनाने का धंधा करते हैं।
इस फैसले का ऐलान करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि बिहार में शराब के मामले में गिरफ्तारी तो होती दिख रही है, लेकिन उनकी गिरफ्तारी हो रही है जो शराब पीते हैं। उनकी गिरफ्तारी कम हो रही है जो शराब का धंधा करते हैं। नीतीश कुमार ने कहा कि असली धंधेबाज कहां पकड़ा जाता है? वो तो बाहर ही नहीं निकलता है। गरीब लोगों को बाहर भेजकर होम डिलीवरी कराता है। गरीब गुरबा को पकड़ने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है, जो गरीब थोड़ा बहुत शराब या ताड़ी बेचते हैं उनके लिए हम ये स्कीम लेकर आए हैं।
मुख्यमंत्री की इन भरी-भरकम बातें सुनकर मेरा तो गला ही भर आया। लेकिन यहां पर मुख्यमंत्री जी से मेरा एक प्रश्न है कि आखिर ये बात समझने में उनको सात सालों का लंबा समय कैसा लग गया? या उनको लगा चलो जैसे वो अब तक शराबबंदी के अपने फैसले के जरिए अपनी प्रशंसा और सहानुभूति बटरोते आये हैं, वो एक बार फिर कर लिया जाये। शायद इसलिए ही नीतीश ने यह फैसला लिया हो। वैसे ऐसा पहली बार नहीं है जब नीतीश कुमार कोई फैसला तो ले देते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर उसका क्या प्रभाव पड़ रहा है, उसका लाभ जनता को हो रहा है या नहीं, इससे उनको कुछ भी लेना देना नहीं होता।
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सात निश्चय योजना में घोटाले
उदाहरण के लिए आप सात निश्चित योजना को ही ले लीजिए, जिसे नीतीश कुमार ने वर्ष 2015 में आरंभ किया था। यह नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक थी और इसका उद्देश्य बिहार को बेहतर राज्य बनाना था। सात निश्चय योजना का लक्ष्य युवा पीढ़ी को शिक्षा प्रदान करना, कौशल विकास, शिक्षा के लिए ऋण, सभी गांवों में बिजली कनेक्शन, हर परिवार को पाइप वाले पानी की आपूर्ति प्रदान कर, शहरी क्षेत्रों में सड़क और निकास व्यवस्था के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाना था। परंतु नीतीश की इसी योजना से एक के बाद एक घोटालों में घिरी रही। हर घर नल के जल को लेकर कई बड़े घोटाले की भी बात सामने आ चुकी है। पानी के लिए लगाई गईं टंकियां किस प्रकार टूटी, इसकी भी कई खबरें अब तक आ चुकी हैं।
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अपने फैसलों से पलटते रहते हैं नीतीश
अगर हम सूची बनाए तो ऐसे और भी कई मामले है जहां नीतीश कुमार ने बिना कुछ सोचे समझे ऐसे निर्णय तो लिए जिससे सबका ध्यान आकर्षित हो लेकिन फिर खुद ही उसे बक्से में बंद कर दिया। नीतीश कुमार को यूं ही पलटूराम नहीं कहा जाता। वो कभी द्वारा लिए गए फैसले पलट जाते हैं, तो बार-बार हर थोड़े समय में पल्टी मारकर अपना पाला बदलते रहते हैं। कभी नीतीश आरजेडी के खेमे में चले आते हैं, तो वो कभी भाजपा के साथ आ जाते हैं।
नीतीश कुमार के स्वभाव को अगर हम मुहम्मद बिन तुगलक से मिलाए तो हमें इसमें काफी समानता देखने को मिलेगी। वहीं मुहम्मद बिन तुगलक जो हर समय अपनी ही सनक में रहता था। मध्यकालीन के सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुगलक सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। अपनी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण उसे ‘स्वप्नशील’, ‘पागल’ एवं ‘रक्त-पिपासु’ जैसे नामों से बुलाया जाता था। कुछ ऐसे ही हमारे नीतीश कुमार भी हैं। खैर, देखा जाये तो नीतीश कुमार का राजनीतिक सफर अपने अंत की ओर जाता दिख रहा है। वो कहते हैं न कि दिया बुझने से पहले थोड़ा फड़फड़ाता है, वहीं हाल नीतीश कुमार का भी है।
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