इस चित्र को हजार बार देखा होगा, लेकिन क्या इसकी कहानी जानते हैं आप?

बणी-ठणी चित्र के पीछे की कहानी के साथ-साथ इस लेख में विस्तार से समझिए किशनगढ़ चित्रशैली के बारे में।

बणी-ठणी चित्र

अपनी अभिव्यक्ति को कुछ निश्चित आड़ी तिरछी रेखाओं और रंगों के द्वारा अगर आप किरमिच यानी कैनवास पर कुछ बहुत सुंदर रूप में उकेर लेते हैं और उस कृति को देखने वालों का मन आनंदित हो जाता है तो समझ लीजिए कि आप में अद्भुत कला है। चित्रकला को लेकर जब-जब चर्चा की जाएगी तब-तब राजस्थान की बात भी उभर आएगी और बात यदि राजस्थान की हो रही होगी तो किशनगढ़ चित्रशैली के बिना बात पूरी नहीं हो सकेगी।

किशनगढ़ की ख्याति का एक बड़ा कारण है किशनगढ़ चित्रशैली और उस पर भी इस कला के अतर्गत आने वाली विश्व प्रसिद्ध कृति बणी-ठणी के चित्र। वैसे तो इंटरनेट पर कहीं न कहीं कभी न कभी आपने बणी-ठणी कृति को अवश्य देखा होगा। नीचे अंकित किए गए चित्र को देखिए-

इस चित्र के पीछे की कहानी के बारे में हम इस लेख में विस्तार से बताएंगे लेकिन बणी-ठणी चित्र के बारे में जानने से पहले इसके मूल किशनगढ़ चित्रशैली को जानना होगा।

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किशनगढ़ चित्रशैली का विकास

लगभग 300 वर्ष से भी अधिक पुरानी इस किशनगढ़ चित्रशैली का समय-समय पर विकास हुआ लेकिन इस चित्रशैली के प्रारंभ के विकास की बात करें तो महाराजा रूप सिंह (1643-1658) के समय हुआ और आगे चलकर महाराजा सांवतसिंह (1748-1764) के काल में इस चित्रशैली का बहुत विकास हुआ और यह शैली जन-जन तक पहुंच पायी। इस शैली के अंतर्गत कई चित्रकार हुए जिनमें प्रमुख नामों की सूची में निहालचंद मोरध्वज, अमरचंद, सीताराम, नानकराम, रामनाथ और जोशी सवाईराम आते हैं।

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यह चित्रशैली कैसी होती है

किशनगढ़ चित्रशैली में प्राकृतिक परिवेश को दर्शाते हुए स्थानीय गोदोला, नौकाएं, कमल दलों से ढके तालाब बनाए जाते हैं और किशनगढ़ के नगर से दूर आकृतियों को दिखाया जाता है। इस शैली में सफेद, गुलाबी के साथ ही सिंदूरी रंग जोकि प्राकृतिक रंग होते हैं उन्हें उपयोग में लाया जाता है। इन रंगों में केले के वृक्ष, झील आदि के दृश्यों को उकेरा जाता है। प्रेम में लीन जोड़े को दिखाना, हंस, बतख, सारस, बगुले इन चित्रों में उकेरा जाता है।

महिला के चित्र की रचना की बात करें तो गौर वर्ण के साथ लंबा छरहरा शरीर, चौड़ी ललाट, पतले होंठ, नुकीली नाक, बड़ी और काजल से भरीं आकर्षक आंखें, पतले होंठ, पतली और सुदर गर्दन दर्शाए जाते हैं। इसके साथ ही महिला के हाथों में मेहंदी रची हुई और महावर युक्त दिखाए जाते हैं।

महाराजा सांवतसिंह के समय में इस शैली से संबंधित कई चित्र गढ़ें गए और फिर विश्व प्रसिद्ध बणी-ठणी की रचना की गयी। इसको सन् 1778 में चित्र कलाकार निहालचंद ने गढ़ा था। आगे चलकर संत नागरीदास के रूप में महाराजा सांवतसिंह को जाना गया, उनकी रचनाओं पर किशनगढ़ी चित्रशैली के अनेक चित्रों की रचना की गयी। इतिहास को पलटकर देखें तो महाराजा सांवतसिंह का सीधा संबंध बणी-ठणी कृति से है। महाराजा सांवत सिंह से जुड़ी एक पूरी कहानी ही है जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है।

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बणी-ठणी चित्र के पीछे की कहानी

राजस्थान के इतिहास में कई प्रेम कहानियां अमर हो गयीं और इन्हीं में से एक किशनगढ़ के महाराजा सावंत सिंह और उनकी प्रेयसी व निजदासी की प्रेम कहानी है। रानियों जैसी पोशाक और आभूषण से सजी धजी अपनी प्रियसी का चित्र सावंत सिंह ने बनवाया। इस चित्र को बणी-ठणी नाम दिया गया, राजस्थानी भाषा में इस बणी-ठणी शब्द का अर्थ होता है सजी-धजी। इस चित्र् को बनाए जाने के बाद पूरे राज्य के लोगों ने प्रशंसा की और इस तरह उस दासी का नाम भी बणी-ठणी पड़ गया।

इस चित्र को लोगों ने इतना पसंद किया कि हाथों हाथ इसे बनाया जाने लगा और इस तरह चित्र का ढेर ही लग गया। इस एक बणी-ठणी चित्र ने दुनियाभर में किशनगढ़ चित्रशैली को पहचान दिलायी। बणी-ठणी की ये मूल पेंटिंग इस समय दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में संरक्षित किया गया है। राजा सावंतसिंह और उनकी प्रियसी दोनों ही कृष्ण भक्त थे तो ऐसे में राजपाट छोड़ राजा बणी-ठणी के साथ सन् 1762 में वृन्दावन आ बसे। जहां सावंत सिंह को उनके कवि नाम उपनाम ‘नागरीदास’ से प्रसिद्धि मिली।

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डाक टिकट भी जारी हुआ

केंद्र सरकार ने किशनगढ़ चित्रशैली की बणी-ठणी चित्र को सम्मान देते हुए 5 मई 1973 को इस बणी-ठणी चित्र पर एक डाक टिकट भी जारी किया। तब किशनगढ़ की चित्रशैली को एक अलग पहचान तो मिली ही इसके साथ ही इसके बारे में लोग जान भी पाए थे। लेकिन आज के दौर में सब बदलता हुए दिखायी दे रहा है। इस चित्रकला का इतिहास है, यह चित्रकला समृद्ध भी है, इस चित्रकला की कई अद्भुत रचनाएं भी हैं लेकिन फिर भी आज इस चित्रशैली और इसके ऐतिहासिक बणी-ठणी चित्र के बारे में लोग जानते भी नहीं होंगे।

किशनगढ़ के पुराने शहर में लगभग 20 साल पहले बहुत सारे चित्रकार इस शैली के चित्रों की रचना करते थे लेकिन फिर आर्थिक तंगी ने इन्हें किसी और काम लगने के लिए विवश कर दिया। आज इस चित्रशैली के अंतर्गत बहुत कम चित्रकारी की जा रही है, पहली बात तो यह कि इस शैली को संरक्षण की अति आवश्यकता है और दूसरी बात यह कि इस शैली को आर्थिक रूप से भी संरक्षित करने की आवश्यकता है और तभी हम इस चित्रशैली को वास्तविक सम्मान दे पाएंगे।

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