अघोरियों की रहस्यमयी और अज्ञात दुनिया

अघोरी समुदाय भारत के उन अनोखे रत्नों में से है, जिन्हें दुर्भाग्यवश हेय दृष्टि से देखा गया और उनके योगदानों को अनदेखा किया गया।

अघोरी, The unexplored world of Aghoris

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“….काल भी उसका क्या करे जो भक्त हो महाकाल का”, ये केवल एक नारा नहीं, एक विचार है, जिसमें एक संस्कृति समायी हुई है। कुछ को इनमें शैतान दिखता है, तो कुछ को देव। परंतु एक बात तो स्पष्ट है कि यदि संसार में तीन लोक है, तो एक अतिरिक्त लोक अघोर पंथ का भी है क्योंकि ये अपने आप में इतना विशाल और समृद्ध हैं कि इसका कोई लेखा जोखा आपको कहीं नहीं मिलेगा। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। आज इस लेख के माध्यम से हम आपको अघोरी और उनके अनोखे संसार से परिचित कराएंगे।

अघोरियों की नकारात्मक छवि

अघोर पंथ को काफी नकारात्मक दृष्टिकोण में चित्रित किया गया है और कई संस्मृतियों एवं पुस्तकों, यहां तक कि फिल्मों में भी अघोरी नकारात्मक चरित्र होते हैं। परंतु अघोरी एवं अघोर पंथ इनसे कहीं ऊपर है। यदि वास्तव में इतने निकृष्ट होते, तो हर वर्ष कुंभ के मेले में इनकी एक झलक हेतु देश विदेश से पर्यटक नहीं आते।

परंतु इस पंथ के प्रणेता कौन है? इसका मूल मंत्र क्या है? कहते हैं कि अघोर पंथ के प्रणेता कोई और नहीं स्वयं महादेव ही हैं। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। इसके अतिरिक्त अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता हैं। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं।

अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति मूल रूप से शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साधकर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव करके और इन्हें जानकर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। इसके प्रवर्त्तक स्वयं अघोरनाथ शिव माने जाते हैं। रुद्र की मूर्ति को श्वेताश्वतरोपनिषद (३-५) में अघोरा वा मंगलमयी कहा गया है और उनका अघोर मंत्र भी प्रसिद्ध है। विदेशों में विशेषकर ईरान में भी ऐसे पुराने मतों का पता चलता है तथा पश्चिम के कुछ विद्वानों ने उनकी चर्चा भी की है।

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बाबा कीनाराम और अघोरी

अघोर पंथ की एक मूल कड़ी है औघड़ बाबा कीनाराम, जिनका उल्लेख डॉ काशीनाथ सिंह के बहुचर्चित काशी का अस्सी पुस्तक में भी मिलता है। उनके पुस्तक के किवदंती के अनुसार एक समय महादेव अपने गणों के साथ एक मृत चिता के आसपास विचरण कर रहे थे और नाच रहे थे। ऐसे में व्यथित मानवों ने देखा और समझा कि जब देव ऐसा कर रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि सुख और दुख तो लगभग एक समान है, तो मृत्यु पर इतना विलाप क्यों?

अब ये कितना सत्य है ये तो एक बात हुई, परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि काशी अघोर पंथ का एक प्रमुख केंद्र रहा है क्योंकि औघड़ बाबा कीनाराम ने यहीं पर सर्वाधिक साधना भी की थी।

वाराणसी या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं। भगवान शिव की स्वयं की नगरी होने के कारण यहां विभिन्न अघोर साधकों ने तपस्या भी की है। यहां बाबा कीनाराम का स्थल एक महत्वपूर्ण तीर्थ भी है। काशी के अतिरिक्त गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। जूनागढ़ को अवधूत भगवान दत्तात्रेय के तपस्या स्थल के रूप में जानते हैं। वाराणसी में क्रींकुण्ड अघोर संप्रदाय का प्रमुख केंद्र है परन्तु क्रींकुण्ड से ही एक और शाखा का उदय 1916 में हुआ जो अपने को बहुत ही गुप्त एवं शांत तरीके से चकाचौंध से दूर फकीरी कुटिया के रूप में हुआ।

अब प्रश्न ये भी है कि औघड़ कौन हैं?

औघड़ (संस्कृत रूप अघोर) शक्ति का साधक होता है। चंडी, तारा, काली यह सब शक्ति के ही रूप हैं, नाम हैं। यजुर्वेद के रुद्राध्याय में रुद्र की कल्याणकारी मूर्ति को शिव की संज्ञा दी गई है। भगवान शिव यानि महादेव का एक अन्य नाम अघोरा भी हैं। महादेव और शक्ति संबंधी तंत्र ग्रंथ यह प्रतिपादित करते हैं कि वस्तुत: यह दोनों भिन्न नहीं, एक अभिन्न तत्व हैं। रुद्र अघोरा शक्ति से संयुक्त होने के कारण ही शिव हैं।

कहते हैं कि अघोर पंथ (अघोरी) को उसकी पहचान प्रमुख रूप से गुरु दत्तात्रेय  ने दिलाई, परंतु इसका सर्वाधिक प्रचार प्रसार बाबा कीनाराम ने विवेकसार, गीतावली, रामगीता आदि की रचना की। इनमें से प्रथम को इन्होंने उज्जैन में शिप्रा के किनारे बैठकर लिखा था। इनका देहांत सन् 1826 में हुआ। बाबा कीनाराम ने इस पंथ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमश चार मठों की स्थापना की,जिनमें से चौथा प्रधान केंद्र है। इस पंथ को साधारणतः ‘औघढ़पंथ’ भी कहते हैं।

‘विवेकसार’ इस पंथ का एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें बाबा कीनाराम ने आत्माराम की वंदना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार सत्य वा निरंजन है जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्य रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है। ग्रंथ में उन अंगों का भी वर्णन है जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टिरहस्य, कायापरिचय, पिंडब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है। अगले तीन में योग साधना, निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा शेष दो में संपूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है।

अब बाबा कीनाराम ने इसी अघोरा शक्ति की साधना की थी। ऐसी साधना के अनिवार्य परिणामस्वरूप चमत्कारिक दिव्य सिद्धियां अनायास प्राप्त हो जाती हैं, ऐसे साधक के लिए असंभव कुछ नहीं रह जाता। वह परमहंस पद प्राप्त होता है। कोई भी ऐसा सिद्ध प्रदर्शन के लिए चमत्कार नहीं दिखाता, उसका ध्येय लोक कल्याण होना चाहिए। औघड़ साधक की भेद बुद्धि का नाश हो जाता है। वह प्रचलित सांसारिक मान्यताओं से बंधकर नहीं रहता। सब कुछ का अवधूनन कर, उपेक्षा कर ऊपर उठ जाना ही अवधूत पद प्राप्त करना है।

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अघोर पंथ (अघोरी) में जात पात, ऊंच नीच, यहां तक कि सभ्यता जैसे बंधन लगभग समाप्त हो जाते हैं। अघोर साधनाएं मुख्यतः श्मशान घाटों और निर्जन स्थानों पर की जाती है। शव साधना एक विशेष क्रिया है जिसके द्वारा स्वयं के अस्तित्व के विभिन्न चरणों की प्रतीकात्मक रूप में अनुभव किया जाता है। अघोर विश्वास के अनुसार अघोर शब्द मूलतः दो शब्दों ‘अ’ और ‘घोर’ से मिलकर बना है जिसका अर्थ है जो कि घोर न हो अर्थात सहज और सरल हो। प्रत्येक मानव जन्मजात रूप से अघोर अर्थात सहज होता है, और इस बारे में ‘अखंडा’ जैसी फिल्म में भी तनिक प्रकाश डाला गया है।

बालक ज्यों ज्यों बड़ा होता है त्यों वह अंतर करना सीख जाता है और बाद में उसके अंदर विभिन्न बुराइयां और असहजताएं घर कर लेती हैं और वह अपने मूल प्रकृति यानी अघोर रूप में नहीं रह जाता। अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं। इसीलिए कभी मृतकों के साथ तो कभी नरमुंडों के साथ भी आप अघोरियों को पूजा साधना करते देखेंगे। ये आपको असहज लग सकता है, परंतु यह उनकी साधना का एक भाग है।

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि अघोरी समुदाय भारत के उन अनोखे रत्नों में से है, जिन्हें दुर्भाग्यवश हेय दृष्टि से देखा जाएगा और उनके योगदानों को अनदेखा किया गया और अब समय आ चुका है कि इनके वास्तविक योगदानों और इनकी साधनाओं पर अधिक प्रकाश डाला जाए, ताकि संसार को पता चले कि यह वास्तव में कौन है।

Sources-

काशी का अस्सी, डॉ काशीनाथ सिंह

‘अखंडा’ फिल्म

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