हानि एवं क्षति कोष: स्वयं को जब विकास की आवश्यकता थी तो न केवल प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया अपितु जो देश आश्रित थे उनकी भी मदद लेकर विकास के नाम पर धरती का सीना छलनी कर डाला। अब जब ऐसे कृत्य करने वाले देश विकसित हो गए तो इन सभी को इस बात की चिंता होने लगी कि पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। अमेरिका समेत विकसित देश आजकल विकासशील देशों पर कुछ इसी तरह का दबाव बना रहे हैं। लेकिन सब दिन एक जैसे नहीं होते हैं क्योंकि अमेरिका ने अपने एक कदम से ही क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर अपने ही दोगलेपन को सबके सामने रख दिया है।
जलवायु आपदाओं के नुकसान का वहन
दरअसल, पश्चिमी देशों ने जलवायु आपदा के लिए गरीब देशों को दिए जाने वाले मुआवजे के एक हिस्से का भुगतान करने पर पहली बार अपनी सहमति व्यक्त की है। जानकारी के मुताबिक इसके लिए ‘हानि एवं क्षति कोष’ नाम से एक विशेष कोष की स्थापना की जाएगी। यह ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाली जलवायु आपदाओं के नुकसान को वहन करने में विकासशील देशों की मदद करेगा। अब से प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहे विकासशील देश ‘हानि एवं क्षति कोष’ से मुआवजे की मांग कर सकते हैं, जिससे उन्हें मोटा आर्थिक फायदा हो सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस फंड का प्रावधान बड़ी चर्चा के बाद हुआ है। शुरू में तो पश्चिमी देश इस पर चर्चा करने तक को तैयार नहीं थे लेकिन विकसित देशों ने किसी तरह इस पर जोर दिया। बदले में यूरोपीय संघ ने विकासशील देशों को उत्सर्जन कटौती में सहायता करने के लिए कुछ खास आर्थिक मदद देने की बात कही। ऐसे में कई पश्चिमी देश विकासशील देशों की मदद से पीछे हटने को आतुर थे लेकिन आखिर में विकासशील देशों के लिए सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं।
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विकासशील देशों को आर्थिक मदद
इसके जरिए विकसित देशों ने यह भी स्वीकार कर ही लिया है कि दुनिया में प्रदूषण के काका वही हैं जिसके लिए अब उन्हें विकासशील देशों को आर्थिक मदद देनी होगी, केवल ज्ञान देने से कोई काम नहीं चलने वाला है।
आपको बता दें कि इसे COP27 से काफी पहले ही लागू करने की कोशिश की गयी थी लेकिन विकसित देशों ने यहां तक पहुंचने के लिए समय की बर्बादी की है। प्रारंभ में तो वो अपने ऐतिहासिक दोष को स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं थे। ये देश अपनी गलती तक नहीं मान रहे थे। इन देशों को औपचारिक रूप से अपना अपराध स्वीकार करने में लगभग 3 दशक से अधिक का समय लगा है।
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पृथ्वी को प्रदूषित करने के लिए कौन जिम्मेदार है?
दुनिया के तीन प्रमुख क्षेत्र यानी यूके, ईयू और यूएसए पृथ्वी को प्रदूषित करने के लिए 50 प्रतिशत से अधिक जिम्मेदार हैं। यदि हम रूस, कनाडा, जापान और ऑस्ट्रेलिया को शामिल करते हैं तो यह हिस्सा 65 प्रतिशत से अधिक हो जाएगा, जो कुल उत्सर्जन का लगभग 2/3 है। मानवीय प्रयासों के समन्वय के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNOCHA) की एक रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों को भुगतान की स्थिति में संयुक्त राज्य अमेरिका दुनियाभर के देशों को 1.9 ट्रिलियन डॉलर का भुगतान करेगा जोकि उसके लिए बड़ा आर्थिक झटका होगा।
एक अहम बात यह भी है कि अविकसित देशों को खरबों डॉलर के भुगतान के लिए कोई तंत्र उन्हें बड़ा नुकसान नहीं पहुंचाने वाला है। एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 2019 और 2021 के बीच देशों को जलवायु संबंधी आपदाओं की लागत को कम करने के लिए औसतन $15.5 बिलियन की आवश्यकता थी। पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया सुस्त रही है। वे पिछले 5 वर्षों के दौरान सक्रिय हो गए हैं और उस अवधि में भी उनके द्वारा आवश्यक योगदान का केवल 54 प्रतिशत ही किया गया था। इस तथ्य को देखते हुए कि हानि और क्षति की मांग 2030 तक $290-$580 बिलियन तक बढ़ने की उम्मीद है, ऐसे में यह माना जा रहा है कि विकसित देश अपने हिस्से का पैसा देने में भी ना नुकुर और ढिलाई बरत रहे हैं।
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पश्चिमी देश विफल रहे
वहीं पश्चिमी देश विकास के हरित तरीके के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करने में विफल रहे हैं। विकसित राष्ट्र हमेशा चाहते हैं कि पूरी दुनिया कम प्रदूषणकारी जीवन शैली और औद्योगीकरण के अनुकूल हो, लेकिन ये लोग किसी भी प्रकार से विकासशील देशों की मदद नहीं करते हैं, जोकि पश्चिमी देशों के दोगलेपन को दर्शाता है। 2009 में विकसित देशों ने ग्रीन क्लाइमेट फंड (GCF) में प्रति वर्ष $100 बिलियन का भुगतान करने का संकल्प लिया था, जिससे विकासशील देश कम प्रदूषण करें, ऐसे में 2020 तक कुल देय राशि $1 ट्रिलियन थी लेकिन 2020 के अंत तक जलवायु ‘हानि एवं क्षति कोष’ में कुल योगदान बमुश्किल 632 बिलियन डॉलर था, जो कि विकसित देशों की पर्यावरण को लेकर ढुलमुल नीति को दर्शाता है।
ऐसे में यदि ये विकसित देश अपने वादों से मुकरते रहे तो 2025 तक लागत बढ़कर 2 ट्रिलियन डॉलर हो जाएगी। अगर उसके बाद भी वे पैसे नहीं देते हैं तो यह बढ़कर 4.35 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष हो जाएगा, जो कि विकासशील देशों के हक का पैसा लेकिन विकसित देश इसमें लापरवाही बरत रहे हैं। दुनिया को अब समझ आ गया कि विकसित देश अविश्वास पात्र हैं। विकासशील देश उन पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। विकासशील देशों के लिए पर्यावरण के बचाव के नाम पर एक और शिगूफा छोड़ा गया है,अब खास बात यह है कि विकसित देश अपने पुराने वादे ही पूरे नहीं कर पाएं हैं, और उनसे अब किसी नये पैसे की मांग या उम्मीद करना जल्दबाजी ही होगी।
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