कहते हैं कि सिर्फ एक मूर्ख नहीं जानता कि उसका दुश्मन कौन है। किसी भी जंग को जीतने के लिए सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होता है कि हम युद्ध में हैं और फिर हमें यह समझना होता है कि हमारा शत्रु कौन है? बॉलीवुड के विरुद्ध जो लड़ाई शुरू हुई उसमें हम यही गलती कर बैठें। हमने कभी समझा ही नहीं कि हमारा दुश्मन कौन है? एकतरफा पूरी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के विरोध में हम उतर गए। टीएफ़आई के संस्थापक अतुल मिश्रा ने ट्विटर पर एक थ्रेड में समझाया है कि बायकॉट बॉलीवुड अभियान कैसे ग़लत दिशा में चला गया।
But we don’t need to kill HFI for any of it. We must not join a trend just for the heck of it. Or we will turn into rebels without a cause.
— Atul Kumar Mishra (@TheAtulMishra) December 9, 2022
बॉलीवुड एक लंबे वक्त तक हिंदू विरोध की प्रयोगशाला रहा है। जिस माध्यम की शुरुआत लोगों का मनोरंजन करने के लिए हुई थी वो माध्यम नेहरुवादी समाजवादी का एजेंडा आगे बढ़ाते-बढ़ाते दुष्प्रचार का विकृत माध्यम बन गया। बॉलीवुड ने आतंकवादियों को हीरो बनाया, बॉलीवुड ने देश के मुस्लिमों में पीड़ित मानसिकता का विकास किया और अनगिनत बार बॉलीवुड ने हिंदू भावनाओं को ठेस पहुंचाई।
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बॉलीवुड ने ब्राह्मणों को मुख्य साज़िशकर्ताओं की तरह प्रस्तुत किया। उन्होंने क्षत्रियों को अत्याचारी ठाकुरों के रूप में दिखाया जोकि गांवों का विनाश कर देते हैं। उन्होंने वैश्यों को सूदखोर बताते हुए खून चूसने वाली जोंक के रूप में दिखाया।
कैसे शुरू हुआ बायकॉट बॉलीवुड अभियान?
निश्चित तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि बायकॉट बॉलीवुड का ट्रेंड कब से शुरू हुआ लेकिन अनुमानित तौर पर इतना अवश्य कहा जा सकता है सुशांत सिंह राजपूत जोकि जनता का हीरो बनने की अग्रसर थे, उनकी दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद इस अभियान ने जोर पकड़ा। सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु ने लोगों को इस अभिजात्य वर्ग के विरुद्ध खड़ा कर दिया जिसे बॉलीवुड कहा जाता है। बॉलीवुड जिस पर ड्रग्स को बढ़ावा देने के आरोप लगे हैं, जिस पर परिवारवाद के आरोप हैं, जिस पर काला धन, अंडरवर्ल्ड के पैसे इस्तेमाल करने के आरोप हैं, जिस पर कास्टिंग काउच के आरोप हैं, जिस पर अश्लीलता के आरोप हैं।
इसके बाद लोगों ने जो बायकॉट अभियान चलाया वो सही था। हालांकि शुरुआत में अपने अहंकार में ग्रसित इन लोगों ने इस अभियान को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन जब फिल्में फ्लॉप हुईं तब उन्होंने सही मायनों में सबक सीखा।
अब आप सोचिए, बॉलीवुड के खान, जिनका जलवा हुआ करता था- खत्म हो गए। आमिर खान की पिछली दो बड़ी फिल्में ठग्स ऑफ़ हिंदोस्तान और लाल सिंह चड्ढा बुरी तरह से पिट गईं। सलमान खान और शाहरुख की स्थिति कितनी बुरी है यह बताने की आवश्यकता नहीं है, आप जानते ही हैं। भट्ट कैंप डरा-सहमा बैठा है। इस पूरे वर्ष में यशराज बैनर से एक भी हिट फिल्म नहीं आई है। करण जौहर, जोकि बॉलीवुड के वामपंथी गिरोह में सबसे बढ़िया व्यापारी हैं, वो भी किसी तरह से स्वयं को बचा पा रहा है।
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क्या हम हिंदी फिल्म उद्योग को खत्म करना चाहते हैं?
ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि बायकॉट बॉलीवुड अभियान ने बी-टाउन के जंगली सांड़ों को काबू में किया है लेकिन इस अभियान का एक और पहलू है जो हमें अवश्य देखना चाहिए। उसकी बात करेंगे लेकिन उससे पहले एक सरल मनौवैज्ञानिक सत्य जान लीजिए, लोगों को जितनी किसी गरीब व्यक्ति के अमीर बनने की कहानी पसंद आती है, उतनी ही किसी अमीर परिवार के गरीब बनने या फिर बर्बाद होने की कहानी भी पसंद आती है। यह तब और मजेदार हो जाता है जब किसी आम आदमी के पास किसी शक्तिशाली आदमी को बर्बाद करने की शक्ति आ जाती है। इसीलिए लोकतंत्र इतना मजेदार होता है क्योंकि यहां आम आदमी के हाथों में सत्ता गिराने और बनाने की ताकत होती है। बायकॉट बॉलीवुड अभियान ने सोशल मीडिया पर सक्रिय एक आम आदमी को यह ताकत दी है कि वो किसी भी फिल्म को बायकॉट करने का ट्रेंड शुरू कर सकता है और दूसरे लोग भी उसमें शामिल हो जाएंगे।
लेकिन सवाल यह है कि क्या हम हिंदी फिल्म उद्योग को खत्म करना चाहते हैं? मुझे उम्मीद है नहीं। मैं निश्चित तौर पर ऐसा नहीं चाहता। लेकिन बायकॉट बॉलीवुड ट्रेंड यही कर रहा है, जो भी उसके रास्ते में आ रहा है उन सभी को खत्म करने की बात कर रहा है। इससे ऐसे तमाम लोगों के करियर बर्बाद हो जाते हैं, तमाम लोगों का रोजगार खत्म हो जाता है, जो कहीं से भी अपराधी नहीं हैं।
इस ट्रेंड की वज़ह से कुछ अच्छी फिल्में पिट गईं। कुछ अच्छे कलाकार फ्लॉप साबित हो गए। यह बिल्कुल ऐसा ही है कि “गेहूं के साथ घुन का पिस जाना।”
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कुछ अच्छी फिल्में भी पिट गईं
आइए, अब आगे इस ट्रेंड को और समझने की कोशिश करते हैं। बॉलीवुड में इस वक्त 5 सुपरस्टार हैं सलमान, आमिर, शाहरुख, अक्षय और अजय देवगन। हमें यह समझना पड़ेगा कि अक्षय कुमार और अजय देवगन में ही वो शक्ति और वो टैलेंट है कि वो खानों के स्टारडम को टक्कर दे पाएं और उन्होंने इसे करके दिखाया है वो भी बिना किसी जौहर और यशराज कैंप के समर्थन के।
रामसेतु महान फिल्म नहीं थी लेकिन वो बुरी भी नहीं थी। अजय देवगन की रनवे-34 वास्तविक कहानी पर आधारित बेहतरीन फिल्म थी लेकिन यह दोनों फिल्में फ्लॉप हो गईं। यह सिर्फ अजय देवगन या फिर अक्षय कुमार के लिए ही नहीं है। कुछ अच्छी फिल्में जैसे- जर्सी, रॉकेट्री, चुप, अ थर्सडे फ्लॉप हो गईं जबकि क्षेत्रीय फिल्मों ने हिंदी पट्टी में अच्छा किया।
इससे भी आगे बढ़ते हैं किसी भी फिल्म का टीज़र आता है, कुछ ट्विटर इन्फ्लुंएसर उसे बायकॉट करने की मांग करने लगते हैं, क्यों भाई? लोकतंत्र भी यह कहता है कि जो अच्छे उम्मीदवार हैं उन्हें जिताओ और जो खराब हैं, उन्हें हराओ। हम यह तो नहीं करते न कि कोई भी उम्मीदवार हो हमें तो बस उसे बर्बाद ही करना है। यह ट्विटर इन्फ्लूएंसर अजय देवगन या फिर अक्षय कुमार के विरुद्ध ट्विटर पर खूब विष वमन करते हैं, खान तिकड़ी पर कई बार चुप्पी साध लेते हैं। हो सकता है उनका कोई छिपा हुआ एजेंडा हो, क्या पता।
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लेकिन इतना स्पष्ट है कि कोई भी बॉलीवुड एक्टर और डायरेक्टर संत नहीं है। अगर हमें पुराने फोटो उठाकर चुनना शुरू कर दें तो हमारे पास कोई एक्टर, कोई डायरेक्टर, कोई सिनेमा नहीं बचेगा। अगर हम इसी तरह से सभी को बायकॉट करते रहेंगे हम हिंदी फिल्म उद्योग को खत्म कर देंगे, जोकि हमें नहीं करना है। हमें हिंदी फिल्मों से उर्दू को हटाना है, हमें हिंदी फिल्मों में गलत इतिहास को दिखाने से रोकना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग से वामपंथियों के गैंग के एजेंडे को खत्म करना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग से हिंदू विरोधी सरगनाओं से छुटकारा पाना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग का शुद्धिकरण करना है लेकिन हमें हिंदी फिल्म उद्योग को खत्म नहीं करना है। हमें बायकॉट बॉलीवुड अभियान में सिर्फ इसलिए शामिल नहीं हो जाना है कि मजे आ रहे हैं। अगर ऐसा ही होता रहा तो हम बिना किसी उद्देश्य के अभियान यूं ही चलाते रहेंगे।
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