ब्रिटिश काल में भारतीयों को मलेरिया से बचाने वाले देशभक्त प्रफुल्ल चंद्र रे की कहानी

जब अंग्रेजी काल में मलेरिया का प्रकोप फैला तो अंग्रेजों ने अधिक दामों पर दवाइयां बेचनी शुरू कर दी. उस समय प्रफुल्लचंद्र रे ही थे, जो देशवासियों के लिए ढ़ाल बनकर खड़े हो गए थे.

Prafulla Chandra Ray

Source- TFI

“वर्तमान युग विज्ञान का युग है” ये आप सभी ने अवश्य सुना होगा और यह भी सुना होगा कि विज्ञान की सहायता से किसी भी असंभव कार्य को संभव किया जा सकता है। परन्तु भारतीय इतिहास में असंभव को संभव करने वाले कुछ ऐसे वैज्ञानिक हुए हैं, जिनके बारे में वर्तमान समय के लोग बहुत कम जानते हैं या यूं कहें कि जानते ही नहीं हैं। इसी कड़ी में आज हम एक ऐसे ही भारतीय वैज्ञानिक के बारे में आपको विस्तार से बताएंगे, जिन्हें भारत में रसायन विज्ञान का जनक माना जाता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं डॉ. प्रफुल्ल चंद्र रे की, जिन्होंने न केवल भारतीय दवा उद्योग को एक मजबूती प्रदान की बल्कि आज जिस स्तर पर भारतीय दवा उद्योग पहुंचा है, उसका श्रेय प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) को ही जाता है।

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प्रारंभिक जीवन

डॉ. प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) का जन्म 2 अगस्त, 1861 को जैसोर ज़िले के ररौली गांव में हुआ था। वर्तमान समय में यह गांव बांग्लादेश में है और खुल्ना ज़िले के नाम से जाना जाता है। प्रफुल्ल चंद्र रे के पिता इस गांव के एक प्रतिष्ठित जमींदार थे और अपने समय के लोगों से बहुत अधिक प्रगितशील और खुले विचारों के व्यक्ति थे। वो स्वयं भी पढ़ने लिखने वाले व्यक्ति थे और दूसरों को भी शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे। प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) की माता जी भी एक पढ़ी लिखी और चेतना-सम्पन्न महिला थीं।

प्रफुल्ल की शिक्षा-दीक्षा के बारे में बात की जाए तो इनके पिताजी विज्ञान को बहुत अधिक महत्व देते थे, इसिलए उन्होंने गांव में एक मॉडल स्कूल की स्थापना भी की थी। उसी स्कूल में प्रफुल्ल बाबू ने अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। जिसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने अल्बर्ट स्कूल में दाखिला लिया और सन् 1871 में प्रफुल्ल अपने बड़े भाई नलिनीकांत के साथ कलकत्ता के डेविड हेयर स्कूल में चले गए। परन्तु प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) इस स्कूल में नियमित पढ़ाई न कर सके और उन्हें बीमारी के कारण पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी।

लेकिन इस बीमारी के दौरान उन्होंने अंग्रेज़ी-क्लासिक और बांग्ला की ऐतिहासिक और साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन किया। जिसका लाभ उन्हें आगे चलकर देखने को मिला। पुस्तकों के पढ़ने के साथ-साथ उनकी रूचि इतिहास और जीवनियां पढ़ने में भी थी, ‘चैम्बर्स बायोग्राफी’ उन्होंने कई बार पढ़ी थी। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद वो आगे की पढ़ाई के लिए मेट्रोपोलिटन कॉलेज (आज के विद्यासागर कॉलेज) में चले गए।

मेट्रोपोलिटन कॉलेज पहुंचने के बाद प्रफुल्लचंद्र, प्रोफेसर पेडलर की उत्कृष्ठ प्रयोगात्मक क्षमता देखकर धीरे-धीरे रसायन विज्ञान की ओर आकर्षित हुए और रसायन विज्ञान को अपने मुख्य विषय के रूप में चुन लिया। रसायन विज्ञान के प्रति प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) का प्रेम इतना बढ़ता गया कि वो पास के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विज्ञान की पढ़ाई का अच्छा इंतजाम होने के कारण, वहां पर भी शोध के लिए बाहरी छात्र के रूप में जाने लगे।

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इंग्लैंड में शोध और नौकरी न मिलने की व्यथा

डिग्री प्राप्त करने के बाद प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) के मन में गिलक्रिस्ट छात्रवृत्ति की परीक्षा में बैठने की इच्छा जागृति हुई। यह उस समय की बेहद कठिन छात्रवृत्ति हुआ करती थी क्योंकि इसमें लैटिन, ग्रीक और जर्मन भाषाओं का ज्ञान होना आवश्य होता था। परन्तु प्रफुल्लचंद्र ने कड़ी मेहनत के बाद इस परीक्षा को पास कर छात्रवृत्ति प्राप्त कर ली और ऐडिनबरा विश्वविद्यालय में शोधकार्य करने के लिए रवाना हो गए। ऐडिनबरा विश्वविद्यालय में उन्होंने मैग्नीशियम समूह के ‘कॉन्जुगेटेड’ सल्फेटों” के बारे में अध्ययन किया।

इस अध्ययन पर तैयार किया गया शोधपत्र को उन्होंने 1885 में विश्वविद्यालय में सौंप दिया। 1887 में उन्हें इस शोधपत्र की जांच के बाद डी.सी.सी की उपाधि प्रदान की गई, जिसके बाद वो भारत आ गए। परन्तु यहां उन्हें एक वर्ष तक कोई नौकरी नहीं मिली। यह समय उन्होंने अध्ययन करने में व्यतीत किया। प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) अपनी जीवनी (biography) में लिखते हुए बताते हैं कि उस एक वर्ष में उन्होंने रॉक्सबोर्ग की ‘फ्लोरा इंडिका’ और हॉकर की ‘जेनेरा प्लाण्टेरम’ की सहायता से कई पेड़-पौधों की प्रजातियों को पहचाना एवं संग्रहीत किया।

प्रेसिडेंसी कॉलेज और व्यवसायिक जीवन

एक वर्ष की बेरोजगारी झेलने के बाद आखिरकार प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) जुलाई 1889 में प्रेसिडेंसी कॉलेज में 250 रुपये मासिक वेतन पर रसायन विज्ञान के सहायक प्रोफेसर बन ही गए। यहां से उनकी यात्रा एक रसायन विज्ञान के प्रोफेसर के साथ-साथ छोटे व स्वदेशी दवा व्यवसायी के रूप में शुरू हुई। भारत में उस समय अंग्रेजी शासन का दौर था और कपड़े से लेकर दवाई उद्योग सभी पर अंग्रजों का कब्जा था। उस समय मलेरिया एक जानलेवा बीमारी हुआ करती थी और उसकी दवाई इंग्लैंड से लाकर मंहगे दामों पर बेची जाती थी।

प्रोफेसर प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए कॉलेज में पढ़ाने के साथ-साथ 700 रूपए की लागत के साथ अपने घर में ही दवा बनाने का एक छोटा सा कारखाना खोला, जिसका उद्देश्य युवाओं को रोजगार देना और सस्ते दामों पर भारतीयों को दवा उपलब्ध कराना था। प्रोफेसर प्रफुल्ल चंद्र रे (Prafulla Chandra Ray) के द्वारा शुरु किया गया यह छोटा सा उद्योग धीरे-धीरे अपनी दिशा में चलता गया और एक बड़ी कंपनी के रूप में स्थापित हो गया। आज हम इसे “बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्यूटिकल वर्क्स” के नाम से जानते हैं। यह भारत की पहली कंपनी थी जिसने देश में मलेरिया की दवाई का निर्माण किया था। यही नहीं, दूसरे विश्व युद्ध में भारत की इस स्वदेशी कंपनी ने अंग्रजों को भी दवा की सप्लाई की थी।

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