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द्रोणाचार्य का एकलव्य से अंगूठा मांगना पूरी तरह से तार्किक और देशभक्तिपूर्ण था

क्या आप उन वास्तविक कारणों को जानना चाहते हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए गुरु द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा मांगा? यदि हां, तो इस लेख को अवश्य पढ़िए।

Devesh Sharma द्वारा Devesh Sharma
27 December 2022
in ज्ञान, संस्कृति
एकलव्य का अंगूठा

Source- Google

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द्रोणाचार्य कैसे गुरु थे जिन्होंने एकलव्य का अंगूठा ही ले लिया? कैसे गुरु थे वे, जिन्होंने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को श्रेष्ठ बताने की चाह में एकलव्य से गुरु दक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा ही मांग लिया? कुछ ऐसे ही प्रश्न उठते हैं न गुरु द्रोण को लेकर और ऐसे ही तीखे आरोप लगाए जाते हैं न उन पर, परन्तु क्या कभी किसी ने उन वास्तविक कारणों को जानने का प्रयास किया है जिससे गुरु द्रोण विवश हो गए एकलव्य से उसका अंगूठा मांगने के लिए।

इस लेख में हम उन वास्तविक कारणों को जानेंगे जिन्हें ध्यान में रखते हुए गुरु द्रोण ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उसका अंगूठा ही मांग लिया।

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बहुत समय से लोग तो यही जानते हुए आ रहे हैं कि एकलव्य कितना प्रतिभावान था जो गुरु की प्रतिमा स्थापित कर उनके समाने ही शस्त्र विद्या सीख गया और एक कुशल धनुर्धर बन गया। लेकिन सत्य तो यह है कि वह एक चोर था जो चोरी से विद्या ग्रहण करता रहा। ठीक वैसे ही जैसे कर्ण ने छलपूर्वक भगवान परशुराम से विद्या ग्रहण किया था। अतः गुरु द्रोण और एकलव्य के प्रकरण का वर्णन करते हुए इससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विस्तारपूर्वक अवश्य ध्यान देना होगा।

और पढ़ें: मानवता के मार्गदर्शक हैं भारत के महान 7 संत, जिन्हें कहा जाता है सप्तर्षि

प्रथम बिंदु- हस्तिनापुर के साथ शिक्षा का अनुबंध

गुरु द्रोण ने पांचों पाडवों और कोरवों को शिक्षा देने के लिए हस्तिनापुर के साथ एक प्रकार से अनुबंध किया था जिसके अंतर्गत अर्जुन से लेकर दुर्योधन तक सभी कुरु राजकुमारों को सुशिक्षित और पराक्रमी योद्धा बनाना उनका लक्ष्य था, उनका धर्म भी था। द्रोणाचार्य इस समयावधी में किसी भी अन्य व्यक्ति को शिक्षा नहीं दे सकते थे। इसीलिए जब एकलव्य उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए पहुंचा तो द्रोणाचार्य ने राज्य के प्रति अपने अनुबंध के कारण उसे शिक्षा देने से मना कर दिया। ऐसे में एकलव्य एक चोर की भांति गुरु द्रोण की प्रतिमा बनाकर उसके समक्ष अभ्यास करने लगता है। बस फिर क्या था चोरी से एकलव्य ने विद्या ग्रहण करना शुरू कर दिया।

और पढ़ें- महाजनपदों का गौरवशाली इतिहास- भाग 1: अंग महाजनपद

द्वितीय बिंदु- एकलव्य की सनक

इस बिंदु को समझने के लिए समझना होगा कि त्रेता युग में अधिकतर लोग शस्त्र के रूप में धनुष बाण को धारण करते हैं, भगवान राम से लेकर राक्षस रावण सभी, परन्तु युगांतर में अर्थात् द्वापर युग में कुछ ही लोग धनुष रखते हैं। किसी के पास गदा है तो किसी के पास तलवार है, कोई भाला चलाता है तो कोई कुछ और। यदि धनुष की बात करें तो अर्जुन जैसे योद्धा के हाथ में धनुष ही है जो अपनी शक्तियों और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं, अर्जुन के पास अनेक शक्तियां हैं लेकिन वो हमेशा ही साधारण बाणों का उपयोग करते हैं ताकि कम से कम जनहानि हो। अर्थात युग बदलने पर लोगों की शक्ति और इच्छा शक्ति कम होती जाती है। हर कोई धनुष बाण लेकर तो नहीं घूम सकता है। कहीं क्रोधवश संसार का ही सर्वनाश न कर बैठे।

और पढ़ें: कौन हैं प्राचीन भारत के 7 सबसे महान दानवीर?

इच्छा शक्ति पर नियंत्रण ही नहीं था

एकलव्य के साथ भी ऐसी ही स्थिति थी, अपने क्रोध, ईर्षा जैसी भावनाओं के उमड़ते ही वह उनका दुरुपयोग भी कर सकता था और ऐसा होना अत्यंत घातक हो सकता था। उदाहरण के लिए एक घटना सामने आती है जब एकलव्य निरीह कुत्ते पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए उसके मुख को बांणों से भर देता है। सोचिए कि एकलव्य अपनी शक्तियों का प्रयोग करने के लिए कितना उद्वेलित था या ये कहें कि उस पर कैसी सनक सवार थी कि उसने कुत्ते के मुख को उसने बाणों से ही भर दिया, जबकि वह चाहता तो कुत्ते को भगा सकता था या फिर कोई और युक्ति अपना सकता था। ऐसे तो एकलव्य के पास यदि ब्रह्मास्त्र जैसी कोई बड़ी शक्ति होती तो उसे भी किसी पर छोड़ देता। आने वाले समय में अपनी सनक और अपनी शक्तियों और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण के अभाव में एकलव्य और न जाने क्या-क्या कर बैठता। इन परिस्थितियों का आंकलन करते हुए और भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए गुरु द्रोण ने एकलव्य का अंगूठा मांग लिया।

और पढ़ें: हनुमान जी का वह चरित्र जिसके बारे में कोई बात नहीं करता

तृतीय बिंदु- राजनीतिक कारण

एकलव्य को शिक्षा न देने और एकलव्य का अंगूठा मांगने का तीसरा कारण है एकलव्य का शत्रु राज्य के साथ संबंध। गुरु द्रोण हस्तिनापुर के राजकुमारों के गुरु थे, हस्तिनापुर से ही उनकी राष्ट्रभक्ति थी। ध्यान दीजिए कि हर राज्य का कोई न कोई शत्रु राज्य तो होता ही है इस तरह हस्तिनापुर के शत्रु राज्य थे मगध और चेदि ये दोनों ही हस्तिनापुर के बड़े शत्रु राज्यों में आते थे। चेदि के पास एक जनजाति सेना भी थी जिसका सेनापति और कोई नहीं एकलव्य के पिता थे।

अब सोचिए कि शत्रु राज्य के सेनापति के पुत्र को शिक्षा देना कहा तक तर्क संगत है। गुरु द्रोण यदि एकलव्य को शिक्षा देते तो क्या यह हस्तिनापुर के साथ वो विश्वासघात नहीं कर रहे होते? आगे चलकर शत्रु राष्ट्र का एकलव्य हस्तिनापुर पर ही आक्रमण कर सकता था। इन राजनैतिक परिस्थितियों को समझबूझकर और अपने राज्यधर्म को निभाते हुए गुरु द्रोण ने एकलव्य से उसका अंगूठा ही मांग लिया।

कोई भी गुरु ऐसे व्यक्ति को शिक्षा नहीं देना चाहेगा जो आने वाले समय में उसके शत्रु की सेना में कार्य करे और न तो एक ऐसे व्यक्ति को शिक्षा देगा जिसका अपनी भावनाओं पर ही नियंत्रण नहीं न हो। एकलव्य एक ऐसा ही व्यक्ति था। इतना ही नहीं उन संभावनाओं का भी अंत करना अति आवश्यक था जो आने वाले समय में घातक हो सकती थीं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गुरु द्रोण द्वारा एकलव्य का अंगूठा मांगना उनके राजधर्म और शिक्षकधर्म के अंतर्गत था।

https://www.youtube.com/watch?v=5SGiA6gT6ao

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Tags: Dronacharyaएकलव्य का अंगूठाद्रोणाचार्यहस्तिनापुर
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