आप कोई कार्य क्यों करेंगे? कुछ नाम हो, प्रसिद्धि मिले, चार लोग आपके बारे में चर्चा करे। यश और कीर्ति किसे नहीं पसंद परंतु आवश्यक नहीं कि सभी मार्ग केवल धनोपार्जन और विलासिता के मार्ग से ही मिले। फिल्म ‘कोशिश’ हमें यही संदेश सफलतापूर्वक समझाती है। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि कैसे गुलज़ार द्वारा रचित एवं संजीव कुमार और जया भादुरी द्वारा अभिनीत ‘कोशिश’ (Koshish) ने हमें दिव्यांगजन, उनके जीवनयापन एवं उनकी समस्याओं से परिचित कराया और कैसे इस फिल्म ने बॉलीवुड की अन्य फिल्मों की तरह उन्हें हास परिहास का विषय नहीं बनाया।
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आज भी बॉलीवुड क्लासिक है कोशिश (Koshish)
ये उन दिनों की बात है, जब हिन्दी सिनेमा में प्रयोग और रचना को हेय की दृष्टि से नहीं देखा जाता था और बड़े से बड़े कलाकार तक अपने ‘कम्फर्ट जोन’ से बाहर आने को तैयार थे। अब संजीव कुमार को कौन नहीं जानता? उनके अभिनय को टक्कर देने वाले अब भी बॉलीवुड में बहुत कम कलाकार हैं। कोशिश (Koshish) फिल्म में उनके साथ आईं जया भादुरी (अब बच्चन), जो कम से कम उन दिनों निजी और प्रोफेशनल जीवन में अंतर रखना जानती थीं और कुछ सफल फिल्में भी दे चुकी थीं। उसी बीच प्रस्ताव आया निर्देशक गुलज़ार का, जो उस समय भी एक कुशल लेखक एवं गीतकार थे और एक जापानी फिल्म को प्रत्युत्तर के रूप में एक रचना देना चाहते थे।
असल में 1961 में एक फिल्म आई थी, ‘हैप्पीनेस ऑफ अस’, जो जापान में रची गई थी। यह एक मूक बधिर युगल के जीवन, उनके संघर्ष और उनके बच्चे के लालन पालन के बारे में रची गई थी। कैसे विपरीत परिस्थितियों में ये दंपति अपने बच्चे को एक अच्छा जीवन देने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं, ये फिल्म इस बारे में है। यह फिल्म द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात के जापान के परिप्रेक्ष्य में बनी थी।
गुलजार महोदय इस फिल्म से प्रेरित भी हुए और प्रसन्न भी परंतु उन्हें इस फिल्म की कुछ बातें अच्छी नहीं लगी। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि इस फिल्म के माध्यम से दिव्यांगजनों के लिए एक अलग ही लोक बनाई गई है, जबकि लक्ष्य होना चाहिए उन्हें समाज से जोड़े रखना क्योंकि वे भी इस समाज का उतने ही अभिन्न अंग हैं, जितना कि हम और आप। इसके अतिरिक्त उन्हें फिल्म की ये बात भी अखरी कि इस फिल्म में न नैतिकता और न ही कोई आचरण पर विशेष ध्यान था और हाँ जी, ये वही गुलजार बाबू हैं, जो आज भी वामपंथियों द्वारा अपने विचारों के लिए पूजे जाते हैं और लिबरल विचारों पर इनका शायद ही कोई तोड़ मिले।
कोशिश काफी हद तक सफल रही
परंतु इन्हीं के कलम से 1972 में रची गई ‘कोशिश’, (Koshish) जो उक्त जापानी फिल्म के एक प्रत्युत्तर समान थी, ठीक वैसे ही जैसे फ्रेंच शॉर्ट फिल्म ‘L’Accordeur (The Piano Tuner)’ को एक अनोखा ट्विस्ट देकर ‘Andhadhun’ जैसी मास्टरपीस रची गई। इसमें साथ जुड़े संजीव कुमार जैसे उत्कृष्ट कलाकार, जया भादुरी जैसी अभिनेत्री, जो अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने को तैयार थी और मदन मोहन कोहली जैसे प्रतिभावान संगीतकार, जिन्होंने ‘वो कौन थी’, ‘दस्तक’ जैसी फिल्मों को अपने सुरों से सजाया था। जिन्हे ‘दस्तक’ के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस फिल्म से प्रयोगों का ऐसा युग प्रारंभ हुआ कि असरानी जैसे हास्य कलाकार अपने कैरेक्टर से ठीक उलट इस फिल्म में एक नकारात्मक रोल निभाने को तैयार हो गए और अपने चित्रण में काफी हद तक सफल भी हुए।
कोशिश (Koshish) जिस उद्देश्य से बनी थी, उसमें वह काफी हद तक सफल भी हुई। आज भी इसे भारतीय सिनेमा के सबसे उत्कृष्ट कृतियों में से एक माना जाता है, भले ही एलीट क्लब के लिए ये फिल्म अबूझ पहेली समान हो। परंतु जिसे जनता का सम्मान और प्रेम मिले, उसे चंद लोगों की तालियों से क्या वास्ता? इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। चाहे लेखनी में गुलज़ार हो या अभिनय में संजीव कुमार और इसका तमिल में एक रीमेक भी बना, जिसमें स्वयं कमल हासन ने संजीव कुमार के हरिचरण माथुर को आत्मसात करने का प्रयास किया। अब बताइए, विजेता कौन?
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