जो संवाद हुआ ही नहीं, उसी लक्ष्मण-परशुराम संवाद की वास्तविकता जान लीजिए

क्रोध में तमतमाए भगवान परशुराम मिथिला आ पहुंचे और यहीं होता है उनके और लक्ष्मण के बीच संवाद लेकिन वास्तविकता तो यह है कि वाल्मीकि रामायण में इस संवाद का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है।

लक्ष्मण-परशुराम संवाद

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विश्वामित्र, अगर इस उद्दंड बालक की रक्षा चाहते हो तो इसे हमारी आँखों से दूर ले जाओ!”

आप आँखें बंद कर लीजिए प्रभु, मैं आपको दिखाई ही नहीं दूंगा!”

लक्ष्मण-परशुराम संवाद: यह संवाद आज भी रामायण के कई संस्करणों एवं रामलीलाओं का एक अभिन्न अंग रहा है और रामानंद सागर के रामायण का यह भाग तो सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय भी रहा है। लक्ष्मण जी और भगवान परशुराम के बीच का यह संवाद वाद विवाद का विषय है, परंतु यदि आपसे हम कहें कि लक्ष्मण-परशुराम संवाद कभी अस्तित्व में ही नहीं था, तो?

इस लेख में जानेंगे कि कैसे लक्ष्मण रेखा की भांति बहुचर्चित लक्ष्मण-परशुराम संवाद का भी मूल रामायण से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था।

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लक्ष्मण-परशुराम संवाद का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है

हम सब इस बात से भली भांति परिचित हैं कि कैसे श्रीराम ने बहुचर्चित शिवधनुष को उठाया और जब उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास किया तो वह बीच से टूट गया, जिसके पश्चात देवी सीता ने अपने पिता राजा जनक की आज्ञा लेकर श्रीराम को वरमाला पहनाई। इसके बाद वहां से आगे बढ़े ही थे कि क्रोध में तमतमाए भगवान परशुराम मिथिला आ पहुंचे और यहीं होता है उनके और लक्ष्मण के बीच संवाद लेकिन वास्तविकता तो यह है कि वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण-परशुराम संवाद का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है।

मूल रामायण में कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि परशुराम को कैसे शिव धनुष ‘अजगव’ के टूटने की सूचना मिली, परंतु जब वे अपनी साधना में लीन थे तब धनुष के टूटने से जो कोलाहल मचा उससे वे भी विचलित हुए और  क्रोध में तमतमाए हुए महेंद्र पर्वत से उतरकर मिथिला की ओर निकल पड़े।

ये वो समय था जब श्रीराम स्वयंवर में विजयी हुए थे। राजा जनक अति प्रसन्न हुए थे और उन्होंने राजा दशरथ को निमंत्रण भेजा जिसके बाद वे मिथिला आ पहुंचे। वहीं उनके चारों पुत्र का विवाह मिथिला की चारों कुमारियों के साथ सुनिश्चित कर लिया गया। सभी अयोध्या के लिए निकले ही थे कि क्रोधित भगवान परशुराम ने मिथिला में प्रवेश किया।

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क्रोधित भगवान परशुराम  

भगवान परशुराम के क्रोध का सामना माने तूफान को चुनौती देने समान था। पृथ्वी को अत्याचारियों से मुक्त करने हेतु उन्होंने अनेकों बार दुष्टों का संहार किया था, जिसके कारण रक्त के सरोवर तक बन चुके थे। परंतु इतने रक्तपात के पश्चात भगवान परशुराम समझ गए कि रक्तपात ही शांति का एकमात्र मार्ग नहीं है। उन्होंने तप करने हेतु महेंद्र पर्वत को चुना, और कश्यप ऋषि को पृथ्वी दान करते हुए साधना करने लगे।

लेकिन श्रीराम के हाथों से जैसे ही अजगव टूटा, वे सब कुछ त्यागकर मिथिला आ गए। उन्होंने बीच मार्ग में अयोध्या जाने वाले दल को रोकते हुए अपने रौद्र रूप में आग्नेय नेत्रों से पूछा, “किसने धनुष को तोड़ने का दुस्साहस किया?” कई लोग परशुराम का यह रूप देखते ही भयभीत हो गए और कुछ तो इस बात से आशंकित हो गए कि कहीं परशुराम पुनः ‘क्षत्रियों का नाश’ करने तो नहीं आए हैं। राजा दशरथ ने उनसे विनती की कि कोई भूल चूक हो गई हो तो क्षमा करें, परंतु क्रोधित परशुराम तो युद्ध पर लगभग उतारू थे।

इतने में श्रीराम निर्भीक होकर आगे आए और मुस्कुराते हुए बोल पड़े- “मेरे हाथों से हुआ था”

प्रारंभ में परशुराम आक्रामक हुए, परंतु वे धीरे-धीरे उन्हें ऐसे देखने लगे मानो दोनों का बहुत पुराना नाता था। शनै-शनै उन्हें आभास होने लगा कि ये तो स्वयं नारायण के स्वरूप हैं, जो इन श्लोकों से भी स्पष्ट झलकता है –

कृतवानस्मि यत् कर्म श्रुतवानसि भार्गव |

अनुरुन्ध्यामहे ब्रह्मन् पितुरानृण्यमास्थितः || १-७६-२

अर्थात “मैं जानता हूँ कि आप क्यों मेरी परीक्षा ले रहे थे, और मैं आपको आपकी पितृभक्ति के लिए नमन करता हूँ”।

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केवल नारायण ही सहायता कर सकते थे

यहां श्रीराम का स्पष्ट संकेत भगवान परशुराम के पिता, महर्षि जमदाग्नि की ओर था, जिनकी हत्या के प्रतिशोध में भगवान परशुराम ने पृथ्वी को आत्ताइयों से मुक्त करने का संकल्प लिया था। अब चूंकि उनका संकल्प पूर्ण हो चुका था, इसीलिए वह अपने ‘क्षत्रिय कर्मों’ से मुक्त होना चाहते थे। इस कार्य में उनकी केवल नारायण ही सहायता कर सकते थे, जिसके अंश स्वयं श्रीराम थे।

इतना ही नहीं, श्रीराम ने परशुराम की आधी शक्तियों को अपने अंदर समाहित कर लिया, परंतु ये भी वचन दिया, कि जब भी उन्हें इसकी आवश्यकता होगी तो उनकी शक्तियां उन्हें निराश नहीं करेगी। भगवान परशुराम के पास अब आशीर्वाद देने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था।

अब बताइए, यहां लक्ष्मण-परशुराम संवाद कहीं था? कहीं भी दोनों महारथी में ऐसा विवाद हुआ कि युद्ध की संभावना हो जाए? मूल रामायण में तो कम से कम ऐसा कुछ भी उल्लेख नहीं है। ऐसी ही भांति-भांति की गल्प कथाओं से पटा पड़ा है हमारा इतिहास और हमारी संस्कृति, जिन्हें ध्वस्त करना हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है।

Sources – Valmikiramayan.net

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