कभी विनायक दामोदर सावरकर ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी, “मुझे न ईसाइयों से भय है और न ही मुसलमानों से, मुझे तो भय है उन हिंदुओं से, जो हिन्दू होते हुए भी हिंदुओं के अहित की सोचते हैं और उसी दिशा में प्रयासरत हैं!” शायद उनका संकेत कहीं न कहीं उस घटना की ओर भी था, जहां सनातन धर्म को सशक्त करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले स्वामी श्रद्धानंद की हत्या को बड़े ही आराम से कुछ लोगों ने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए दबा दिया था, जिनमें सर्वप्रथम थे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी। इस लेख में हम विस्तार से स्वामी श्रद्धानंद के बारे में जानेंगे, जिन्होंने सनातन धर्म के पुनरुद्धार हेतु अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया लेकिन उनकी असामयिक मृत्यु के बाद उनकी विरासत को नष्ट करने में कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ा गया।
और पढ़ें: एक प्रख्यात पुरातत्वविद् और पुरालेखशास्त्री थे डॉ० आर नागास्वामी
स्वामी श्रद्धानंद का शुद्धि आंदोलन
सर्वप्रथम प्रश्न यही उठता है कि स्वामी श्रद्धानंद कौन थे और उन्होंने ऐसा भी क्या किया, जिसके पीछे उनके एक ही नहीं अनेक दुश्मन उत्पन्न हुए? दरअसल, स्वामी श्रद्धानंद का वास्तविक नाम मुंशीराम विज था और वो एक पुलिस अधिकारी नानकचन्द विज के पुत्र थे। उनका जन्म 22 फरवरी 1856 को अविभाजित पंजाब के जालंधर जिले में हुआ था। पिता का स्थानान्तरण अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छे से नहीं हो सकी। एक बार पिता नानकचन्द और पुत्र मुंशीराम एक साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का प्रवचन सुनने पहुंचे। अपने कर्म को सर्वाधिक महत्व देने वाले मुंशीराम ईश्वर में उस समय तनिक भी विश्वास नहीं रखते थे परंतु स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम विज को आस्तिक तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया। यहीं से मुंशीराम विज के स्वामी श्रद्धानंद में परिवर्तन की नींव भी पड़ी।
स्वामी श्रद्धानंद भारत के राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती के पदचिह्नों पर चलते हुए लाला हंसराज एवं लाला लाजपत राय के साथ शिक्षा व्यवस्था को बल दिया, ताकि देश में पाश्चात्य संस्कृति के दुर्गुण किसी भी स्थिति में पैर न जमाने पाए।
स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की और सनातन समाज को सशक्त बनाने के उद्देश्य से उन्होंने शुद्धि आंदोलन को बढ़ावा दिया, जिसके अंतर्गत इस्लाम और ईसाइयत में विभिन्न कारणों से परिवर्तित हुए लोगों को पुनः सनातन के सन्मार्ग पर लाने का बीड़ा स्वामीजी ने उठाया। इनके कार्यों का प्रभुत्व डॉ भीमराव अंबेडकर भी मानते थे, जिनके अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द अछूतों के “महानतम और सबसे सच्चे हितैषी” थे।
गांधी की कुंठा तो देखिए
तो ऐसा क्या हुआ कि स्वामी श्रद्धानंद, जो सबकी आँखों के तारे थे, अचानक से कुछ लोगों को खटकने लगे? दरअसल, उनका शुद्धि आंदोलन काफी लोकप्रिय होने लगा था, जिसके विरोधी केवल इस्लामिस्ट ही नहीं थे, अपितु कुछ हिन्दू भी थे, जिनमें सबसे अग्रणी थे मोहनदास करमचंद गांधी। जब स्वामी श्रद्धानंद ने मलकाना राजपूतों के एक विशाल समूह की घरवापसी/शुद्धि कराई, तो गांधी कुपित हो गए।
उन्होंने अपनी पत्रिका यंग इंडिया में लिखा, “स्वामी श्रद्धानन्द जी भी अब अविश्वास के पात्र बन गये हैं। मैं जानता हूं कि उनके भाषण प्रायः भड़काने वाले होते हैं। जिस प्रकार अधिकांश मुसलमान सोचते हैं कि किसी-न-किसी दिन हर गैरमुस्लिम इस्लाम को स्वीकार कर लेगा, दुर्भाग्यवश श्रद्धानन्द भी यह मानते हैं कि प्रत्येक मुसलमान को आर्य धर्म में दीक्षित किया जा सकता है। श्रद्धानन्द जी निडर और बहादुर हैं। उन्होंने अकेले ही पवित्र गंगातट पर एक शानदार ब्रह्मचर्य आश्रम (गुरुकुल) खड़ा कर दिया हैं। किन्तु वो जल्दबाज हैं और शीघ्र ही उत्तेजित हो जाते हैं। उन्हें आर्यसमाज से ही यह विरासत में मिली हैं।”
परंतु यह कहीं न कहीं गांधी की कुंठा को भी दर्शाता है क्योंकि जो व्यक्ति निशंक होकर असहयोग आंदोलन में जामा मस्जिद के प्रांगण से वैदिक मंत्रोच्चार कर सके, वह इनके राह का रोड़ा कैसे नहीं होगा? ऐसे में जब एक कट्टरपंथी मुसलमान अब्दुल रशीद ने दिसंबर 1926 में स्वामीजी की हत्या की, तो गांधी ने न केवल उस हत्यारे को बचाया अपितु उसके मृत्युदंड सुनाए जाने पर भी उसका बचाव किया। गलत नहीं थे शायद वीर सावरकर, जिन्होंने कहा था कि ‘हिन्दू का सबसे बड़ा शत्रु स्वयं हिन्दू ही होता है।’
और पढ़ें: “मुस्लिम तुम्हें कितना भी पीटें, तुम पलटवार मत करो” आइए, हिंदुत्व पर गांधी के ‘योगदान’ को समझें
TFI का समर्थन करें:
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।