भारतीय संस्कृति में त्रिदेवों का उल्लेख है- ब्रह्मा, विष्णु और महेश, जिनमें से विष्णु के अवतार भगवान श्रीकृष्ण की जीवन लीलाएं बड़ी ही अद्भुत और प्रेरणादायक हैं। मथुरा से लेकर वृन्दावन तक और द्वारिका से लेकर महाभारत के रण क्षेत्र तक उनके जीवन में कितने ही अद्भुत क्षण आए जिनके द्वारा वर्तमान समय में हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।
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श्रीकृष्ण की लोकाचार की प्रवृत्ति
भगवान श्रीकृष्ण की सामाजिक लोकाचार की प्रवृत्ति बड़ी ही अद्भुत रही है। लोकाचार प्रवृत्ति के बारे में बात करें तो सामान्य भाषा में इसे सामाजिक व्यक्ति होना कहा जाता है और श्रीकृष्ण तो बाल्यकाल से ही सामाजिक थे फिर चाहे वह ग्वालों के साथ गौ चारण में समय व्यतीत करना हो या फिर महाभारत के युद्ध में अर्जुन का सारथी बनना। इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण ने अपने बाल्यावस्था से ही कई ऐसे कार्यों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया जो आगे चलकर उन्हें एक अच्छा नेतृत्वकर्ता और सामाजिक व्यक्तित्व का धनी बनाने वाले थे।
वैसे तो लोकजीवन में रहना भारतीय संस्कृति का एक अनिवार्य अंग है परंतु श्रीकृष्ण का लोकजीवन अलग प्रकार का रहा है जिसमें स्वार्थ न के बराबर है, अगर कुछ है तो वो है सिर्फ लोक कल्याण की भावना। उदाहरण के लिए हम श्रीकृष्ण का सांदीपनी मुनी के आश्रम में जाना देख सकते हैं। कृष्ण सांदीपनी मुनी के आश्रम में पहुंचते हैं और वहां पर गुरु माता को प्रसन्न करने के लिए अधिक समय उनके साथ व्यतीत करते हैं। इसके पीछ का कारण था गुरु माता की संतान की मृत्यु हो जाना और कृष्ण में अपने पुत्र को देखना। कृष्ण जानते थे कि गुरु माता के पुत्र की मृत्यु हो गई है इसलिए यहां पर कुछ समय और रुकेंगे तो उन्हें अच्छा लगेगा।
जब शिशुपाल का जन्म होता है तो वे बलराम दाऊ को साथ लेकर उसे देखने के लिए चले जाते हैं। हालांकि बलराम जी बहुत अधिक सांसारिक नहीं थे परन्तु श्रीकृष्ण फिर भी अपने साथ में उन्हें लेकर कहीं भी चले जाते थे। शिशुपाल और कृष्ण का भी पूरा एक प्रकरण है जब कृष्ण द्वारा शिशुपाल की सौ भूल को क्षमा करने की बात आती है। इस पर फिर कभी प्रकाश डाला जाएगा।
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पांडवों के साथ श्रीकृष्ण
पांडवों के पूरे जीवनकाल पर अगर ध्यान दें तो एक भी क्षण ऐसा नहीं है जहां कृष्ण उपस्थित नहीं थे, कृष्ण प्रत्येक स्थान पर उपस्थित रहे। वे जानते थे कि अगर एक अच्छा नेतृत्वकर्ता बनना है तो लोगों से जुड़ना होगा प्रत्येक स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज करानी पड़ेगी और साथ ही लोगों पर अपना प्रभाव भी डालना होगा। उदाहरण के लिए पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर का ही प्रकरण देख लीजिए, कृष्ण वहां भी उपस्थित हैं। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि उन्हें न ही द्रौपदी से विवाह करना था, न तो स्वयंवर में भाग लेना था, परन्तु वे फिर भी वहां उपस्थित रहे। इसके पीछे का एक ही कारण था लोगों के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ करना ताकि समय आने पर लोगों को अपने साथ किया जा सके।
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श्रीकृष्ण का कूटनीतिक गुण
इसी तरह एक और उदाहरण पर ध्यान देते हैं जब श्रीकृष्ण के कूटनीतिक गुण का प्रदर्शन होता है। जब इंद्र युधिष्ठिर से कहते हैं कि तुमने इतना बड़ा साम्राज्य स्थापित कर लिया है तो राजसूय यज्ञ क्यों नहीं करवाते हो। यज्ञ के लिए युधिष्ठिर मान जाते हैं, पर ध्यान देने वाली बात यहां यह है कि श्रीकृष्ण ने भी इस यज्ञ की स्वीकृति दी थी। देखा जाए तो वो तो युधिष्ठिर से कहीं अधिक शक्तिशाली थे, वे चाहते तो राजसूय यज्ञ में भाग लेने के लिए मना भी कर सकते थे परन्तु उन्होंने नहीं किया क्योंकि उन्हें कभी राजा के रूप में बड़ा बनना ही नहीं था बल्कि सभी स्थानों पर नेतृत्व करना था। इसलिए वे इस दौड़ में सम्मलित होना ही नहीं चाहते थे।
इतना ही नहीं, खांडवप्रस्थ के जलने की घटना हो या फिर पांडवों के वनवास का समय हो या फिर महाभारत का पूरा युद्ध ही क्यों न हो, किसी न किसी तरह से श्रीकृष्ण उनसे जुड़े रहे।
श्रीकृष्ण ने मानव रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया था और मानव होने के जो भी बंधन होते हैं उसका श्रीकृष्ण निर्वहन कर रहे थे। इसलिए वे उसी प्रकार से लोगों के साथ व्यवहार करते थे और इसीलिए उन्होंने लोकाचार के गुण को अपनाया था। पृथ्वी पर आने के कुछ उद्देश्य थे जिन्हें पूरा करने के लिए लोगों से अच्छे संबंध स्थापित करना आवश्यक था। ऐसे में श्रीकृष्ण का लोकाचार या सामाजिक व्यवहार रखना स्वाभाविक ही था।
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