Maulana Azad Fellowship: देश में संसद का शीतकालीन सत्र आरंभ हो चुका है और सरकार इस बार UCC, NJAC जैसे कई बड़े कानूनों को सदन में लाने के मूड में दिख रही है। कॉलेजियम पर चोट करने के लिए सरकार का NJAC कदम काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसके अलावा हाल ही में मोदी सरकार ने मदरसों को लेकर ताबड़तोड़ फैसले लिए हैं। पिछले दिनों सरकार ने मदरसों के 1 से 8 तक के छात्रों को मिलने वाले स्कॉलरशिप पर रोक लगा दी थी, जिसे लेकर सोशल मीडिया पर लिबरलों ने जमकर बवाल काटा। अब मोदी सरकार ने सदन में यह बताया है कि सरकार ने अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली मौलाना आजाद छात्रवृत्ति (Maulana Azad Fellowship) को भी बंद कर दिया है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे सरकार अब अल्पसंख्यकों की परिभाषा बदल रही है और क्यों मोदी सरकार ने मौलाना (Maulana Azad Fellowship) आजाद छात्रवृत्ति पर रोक लगा दी है।
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दरअसल, सदन की कार्यवाही के दौरान केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री स्मृति ईरानी ने स्पष्ट किया कि मौलना आजाद छात्रवृत्ति को बंद कर दिया गया है। सरकार का कहना है कि अल्पसंख्यक छात्रों को दी जाने वाली यह छात्रवृत्ति दूसरी छात्रवृत्तियों से ओवरलैप कर रही थी, इसलिए इसे बंद किया गया। यह खबर सामने आते ही इस्लामिस्ट उछल पड़े और सरकार को निशाने पर लेने लगे। सरकार को कोसने में इन्हें लिब्रांडुओं का भी पूरा साथ मिला है।
ज्ञात हो कि जब भी भारत में अल्पसंख्यक की बात की जाती है तो मुस्लिम समुदाय को इसका पर्याय मान लिया जाता है, जबकि राज्यों और जिलों की जनसंख्या अनुपात के आधार पर देखें तो भारत में जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद, मालदा इत्यादि जैसे कई स्थानों पर मुस्लिम आबादी हिंदुओं से अधिक है। लेकिन फिर भी अल्पसंख्यक होने की सभी सुविधाएं इन्हें दी जाती हैं, जिस कारण उस क्षेत्र के दूसरे समुदाय के लोगों को वह सुविधाएं नहीं मिल पाती, जिसके वे हकदार हैं। इसलिए सरकार द्वारा लिया गया यह फैसला एक प्रकार से देखा जाए तो तर्कसंगत है क्योंकि किसी भी प्रकार की सरकारी सहायता उसी व्यक्ति को मिलनी चाहिए, जिसका वह हकदार है।
कब लागू की गई थी मौलाना आजाद स्कॉलरशिप?
आपको बता दें कि वर्ष 2005 में केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति जानने के लिए एक कमेटी बनाई गई थी, जिसे सच्चर कमेटी के नाम से जाना जाता है। वर्ष 2006 में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी और अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा वर्ष 2009 में मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप योजना (Maulana Azad Fellowship) को शुरू कर दिया गया। इस योजना के तहत मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसी छात्रों को PhD और MPhil के लिए सरकार की ओर से 5 वर्ष तक सहायता राशि दी जाती थी, जिसे अब इसे बंद कर दिया गया है।
मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप (Maulana Azad Fellowship) के अंतर्गत दी जाने वाली राशि के बारे में बात की जाए तो साइंस, इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी, सोशल साइंस या फिर ह्यूमैनिटी स्ट्रीम में MPhil या PhD करने वाले छात्रों को पांच वर्ष तक हर महीने 25-28 हजार तक की राशि प्रदान की जाती थी। MANF छात्रवृत्ति प्राप्त करने के लिए छात्रों को मास्टर्स प्रोग्राम में कम से कम 55% अंक, अल्पसंख्यक प्रमाण पत्र, CSIR-NET/CBSE-NET क्वालीफाई होना, मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी से MPhil/PhD कोर्स में प्रवेश लेना और NET-JRF, UGC परीक्षा पास करना और पारिवारिक आय 2.5 लाख प्रति वर्ष से अधिक नहीं होना जैसे कुछ मानदंड पूरे करने पड़ते थे, तभी छात्रवृत्ति प्राप्त की जा सकती थी।
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इन्हें दो अलग-अलग श्रोतों से मिल रही थी छात्रवृत्ति
परन्तु इन सभी मानदंडों को देखने के बाद यह प्रश्न उठता है कि NET/JRF परीक्षा पास करने के बाद छात्रों को यूजीसी की ओर से पहले ही शोध करने के लिए अच्छी खासी राशि प्रदान की जाती है। ऐसे में अल्पसंख्यक छात्रों को दो अलग अलग श्रोतों से छात्रवृत्ति मिलती थी। तुष्टीकरण के चक्कर में पूर्ववर्ती सरकारों ने इसे लागू किया और बनाए भी रखा लेकिन मोदी सरकार ने अब इस फिजूल खर्ची पर अंतिम लकीर खींच दी है। अगर इस छात्रवृत्ति पर होने वाले कुल खर्च के बारे में बात की जाए तो सरकार द्वारा एक वर्ष में इस पर 738.85 करोड़ रुपए का खर्च किया जाता था, जिसके चलते सरकारी कोष पर भार बढ़ता जा रहा था और इसीलिए अब इसे बंद कर दिया गया है।
यदि मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप (Maulana Azad Fellowship) पर सरकार द्वारा लिए गए फैसले पर संक्षेप में कहा जाए तो यह एक तर्कसंगत फैसला है, जिस पर किसी को किसी भी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि शोध करने के लिए छात्रों को पहले ही एक योजना के तहत वित्तीय सहायता दी जाती है। ऐसे में अल्पसंख्यक समुदाय को अलग से सहायता राशि देना दूसरे समुदाय के छात्रों के साथ भेदभाव करने के समान था।
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