HAIFA की लड़ाई: जब तोप, बम, बंदूक पर भारी पड़े भारतीय योद्धाओं के भाला और तलवार

प्रथम विश्वयुद्ध के अंतिम चरण में अंग्रेजों के झंडे के नीचे लड़ी भारतीय सेना ने तलवारो के दम पर तात्कालिक आधुनिक हथियारों से सजी ऑटोमन साम्राज्य की सेना को बुरी तरह परास्त किया था और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण शहर हाइफा को मुक्त कराया था.

Battle of Haifa

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“तू लगा दांव,तू लगा पेंच
तू दिखा जिगर, तू दिखा तेज….”

इन पंक्तियों को अगर आप ध्यान से पढ़ें तो इनमें स्वत: ही वीर रस झलकने लगता है। इन्हें हम अपने रणबांकुरों के लिए प्रयोग में लाएं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। युद्ध लालसा का एक ही रूप होता है, ऐसा कई अवसरों पर सिद्ध हुआ है। परंतु कुछ अवसर ऐसे भी आए हैं, जहां कुछ लोगों पर युद्ध थोपा गया लेकिन उन्होंने उसे अपने शौर्य दिखाने का अवसर मानते हुए मानवता के मूल्यों की रक्षा की और अपने शौर्य को साबित भी कर दिया। हाइफा का मोर्चा भी ऐसे ही एक अवसर का साक्षी है, जिसमें भारतीय सैनिकों ने न केवल अपने पराक्रम को संसार के समक्ष प्रदर्शित किया, अपितु अप्रत्यक्ष रूप से भारत-इज़रायल संबंधों की नींव भी रखी।

1914 में एक शाही घराने के राजकुमार, आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या ने प्रथम विश्व युद्ध छेड़ा, जिसकी किसी को भी आशा नहीं थी। इस अवसर पर कई देशों को लगा कि क्यों न हम भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करे और यहीं से नींव पड़ी प्रथम विश्व युद्ध की, जहां एक ओर ग्रेट ब्रिटेन और उसके समर्थन वाले देश थे, तो दूसरी ओर थे जर्मनी और उसके समर्थक। तो ये हाइफा का मोर्चा कहाँ से आया और इसमें भारतीय सैनिकों की क्या भूमिका थी?

दरअसल, उन दिनों भारत की अवस्था क्या थी, ये किसी से छिपी नहीं है और ब्रिटिश साम्राज्य का दास होने के नाते हमारे देश के सैनिकों को भी अकारण इस युद्ध में झोंका गया। हमारा देश दो महाशक्तियों की झड़प में वैसे ही पिस रहा था, जैसे चक्की में गेहूं के साथ घुन। इसके अतिरिक्त 1884 में मशीन गन के आविष्कार के साथ भारत क्या, विश्व के लगभग हर मोर्चे पर अश्वारोही सेना की आवश्यकता लगभग नगण्य पड़ चुकी थी। शीघ्र ही वे इतिहास बनने की ओर अग्रसर थे परंतु प्रथम विश्व युद्ध में एक अवसर ऐसा भी आया, जब इन्हीं अश्वारोहियों ने असंभव को संभव कर दिखाया और 400 वर्षों से तुर्कशाही के नियंत्रण में पड़े हाइफा को स्वतंत्र कराया।

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ये रही पूरी कहानी

इसके लिए हमें जाना होगा वर्ष 1918 में, जब प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने के मुहाने पर था और हाइफा बंदरगाह पर विजय प्राप्त करना Allied सेना के लिए अवश्यंभावी था। ज्ञात हो कि हाइफा, उत्तरी इजराइल का बंदरगाह वाला शहर है, जो कि एक तरफ भूमध्य सागर से लगा है और दूसरी ओर माउंट कार्मेल पहाड़ी से। प्रथम विश्व युद्ध के समय समुद्र के पास बसे हाइफा शहर पर जर्मन और तुर्की सेना का आधिपत्य स्थापित था। अपने रेल नेटवर्क और बंदरगाह की वजह से हाइफा शहर रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण जगह था क्योंकि यह शहर मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के लिए युद्ध का सामान और राशन भेजने का एकमात्र समुद्री रास्ता था।

इसके अलावा हाइफा शहर यूरोपियन देशों और Middle East के देशों के लिए connecting link था। हाइफा को जीते बिना प्रथम विश्व युद्ध को जीतना नामुमकिन था। तब हमारे देश में हिंदुस्तान की आजादी से पहले बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक ब्रिटिश सेना में काम करते थे और प्रथम विश्व युद्ध के समय हाइफा को तुर्की सेना से मुक्त कराने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सेना की थी।

उस समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी के जवान जगह जगह तैनात थे, जिनमें से एक मिडिल ईस्ट का मोर्चा भी था। इसमें 15वीं अश्वारोही ब्रिगेड, 5वीं अश्वारोही डिवीजन जैसे अश्वारोही (Cavalry) सैनिकों ने भाग लिया। इनमें जोधपुर, मैसूर एवं हैदराबाद प्रांत के सैनिक सम्मिलित थे। इनका सामना जर्मन साम्राज्य, ऑटोमन तुर्क एवं ऑस्ट्रिया, हंगरी के राजशाही के सैनिकों से हुआ था। भारतीय मोर्चे का नेतृत्व जोधपुर सेना की ओर से कमांडर के रूप में नियुक्त मेजर दलपत सिंह शेखावत कर रहे थे, तो हैदराबाद प्रांत की ओर से मेजर मोहम्मद अजमतुल्लाह बहादुर कर रहे थे और इन सभी का नेतृत्व ब्रिगेडियर जनरल सिरिल रॉडनी हरबोर्ड कर रहे थे।

इस युद्ध को जीतना प्रारंभ में लगभग असंभव प्रतीत हो रहा था क्योंकि शत्रु सेना अधिक शक्तिशाली थी। एक ओर किशोन नदी थी तो दूसरी ओर माउंट कार्मेल की ऊंची पहाड़ी और बीच में था संकरा रास्ता, जिसे मिलिट्री भाषा में Defile (डीफाइल) भी कहते हैं। ऐसे में अश्वारोहियों को पीछे हटने का आदेश दिया गया, जिसपर मेजर दलपत सिंह शेखावत ने गरजते हुए कहा, “साहब, हमारे यहां पीछे हटने की कोई प्रथा नहीं होती।” तब आखिरकार अंग्रेज़ों ने मैसूर, हैदराबाद और जोधपुर के निर्भीक सैनिकों के नेतृत्व में एक सशक्त दल बनाया। चूंकि हैदराबाद रियासत के सैनिक मुस्लिम थे तो उन्हें अंग्रेजों द्वारा तुर्की के खिलाफ ना लड़ा कर, सैनिकों को युद्ध बंदियों के प्रबंधन और देखरेख का काम सौंपा गया।

आधुनिक हथियारों से लैस सेना को तबाह कर दिया

मैसूर और जोधपुर की घुड़सवार सैनिकों की टुकड़ियों को मिलाकर एक विशेष इकाई बनाई गई। मेजर दलपत सिंह को जोधपुर लांसर्स का नेतृत्व सौंपा गया। दोनों टुकड़ियों में अधिकतर संख्या राजपूत सैनिकों की ही थी। अंग्रेज़ यूं ही नहीं चिंतित थे। माउंट कार्मेल पहाड़ी की तीखी ढलानों पर मशीन गनों, बंदूकों और तोपो से ऑटोमन सेना ने किले बंदी कर रखी थी, जो कि हाइफा में प्रवेश करने वाली किसी भी सैनिक टुकड़ी को धराशाई करने के लिए तैयार बैठी थी।

दुश्मन की बंदूके इस घाटी के चप्पे-चप्पे पर तैनात थी। इसीलिए मेजर दलपत सिंह ने मैसूर लांसर्स के सैनिकों के साथ सभी खतरों को ध्यान में रखते हुए एक युद्ध रणनीति तैयार की। जिसमें तय हुआ कि 10:00 बजे मैसूर लांसर्स, माउंट कार्मेल की पहाड़ी पर चढ़ाई करेंगे और वहां मौजूद गनर्स और सैनिकों का काम तमाम करेंगे। जब मैसूर और जोधपुर प्रांत के वीर आगे बढ़ने लगे तो उन्हें भारी गोलाबारी का सामना करना पड़ा। शत्रु एकदम स्नाइपर की भांति सटीक निशाना लगा रहे थे और इसी बीच किशोन नदी पर अपने सैनिकों को गोलाबारी से बचने के आदेश देते हुए एक मशीन गन की गोली मेजर दलपत सिंह को लग गई और वो कुछ समय के बाद वीरगति को प्राप्त हो गए।

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परंतु कथा तो यहीं से प्रारंभ हुई। भारतीय सैनिक घोड़े पर सवार थे और उनके पास लड़ने के लिए केवल भाला और तलवारें थी। अंग्रेज सरकार ने पैदल चलने वाले सैनिकों को कुछ बंदूकें भी थमा दी थी। आज अगर हम उस युद्ध की कल्पना भी करें तो यही प्रतीत होता है कि उस लड़ाई में मृत्यु स्वाभाविक थी। परंतु भाग्य को कुछ और ही मंजूर था, उस दिन शायद इतिहास में एक शौर्य गाथा लिखी जानी थी। उस दिन दुनिया को राजपूत योद्धाओं का वह साहस देखना था, जो इतिहास में उसके बाद कभी भी दोहराया नहीं गया। जोधपुर लांसर्स का नेतृत्व कर रहे कैप्टन अमन सिंह जोधा ने सेना का रुख माउंट कार्मेल पहाड़ी की तरफ मोड़ दिया, जिससे वह अब तोपखाने और मशीन गन के सीधे निशाने पर आ गए।

लेकिन अमन सिंह जोधा द्वारा अचानक सेना के साथ कार्मेल पहाड़ी पर चढ़ाई करने से तुर्की की सेना संभल नहीं पाई। अब मैसूर लांसर्स और जोधपुर लांसर्स दोनों एक साथ कार्मेल की पहाड़ियो पर दुश्मनों पर काल बनकर टूट पड़े और कार्मेल पहाड़ पर बचे दुश्मन और उनके गन पोजिशन को तहस नहस कर दिया। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो हाइफा का मोर्चा असंभव को संभव कर दिखाने का एक ऐसा प्रदर्शन था, जिसे देख यूरोपीय भी भौंचक्के रह गए। यहां पारंपरिक हथियारों से लैस सेना का मुकाबला आधुनिक हथियारों से लैस, शक्तिशाली किलेबंदी सेना से था और यह युद्ध अपने आप में इतिहास में एक अकेला ऐसा युद्ध था, जिसमें घुड़सवार सेना ने किलेबंदी वाली सेना पर जीत हासिल की थी।

2 घंटे की लड़ाई और बेहतरीन जीत

मात्र 2 घंटे चली इस लड़ाई में भारतीय राजपूत वीरों ने जीत दर्ज की, जो अंग्रेज कई बार प्रयास करने के बाद भी नहीं कर पाए थे। हाइफा युद्ध में भारतीय शूरवीरों ने जर्मन-तुर्की सेना के 1350 लोगों को जिंदा पकड़ा, जिनमें से दो जर्मन अधिकारी, 23 ऑटोमन अधिकारी और बाकी अन्य थे। इसके अलावा सैकड़ों लड़ाई के दौरान मारे गए। कार्मेल पहाड़ी पर 17 आर्टिलरी गन और 11 मशीन गन कैप्चर की गई थी और हजारों की संख्या में जिंदा कारतूस भी ज़ब्त किए गए थे। पकड़े गए जर्मन अफसरों के अनुसार, अधिकतर तुर्क भारतीयों का पराक्रम संभाल ही नहीं पाए और वहां भाग खड़े हुए थे।

इस युद्ध में 8 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे और 34 घायल हुए थे। वहीं, 60 घोड़े भी मारे गए और 83 घायल हो गए थे। भारत में इन सैनिकों की वीरता की याद में 1922 में तीन मूर्ति स्मारक बनाया गया। ठाकुर दलपत सिंह शेखावत को ब्रिटिश सरकार ने मरणोपरांत मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया, जो ग्रेट ब्रिटेन के तीसरे सर्वोच्च सैन्य सम्मान और भारत में वीर चक्र के समकक्ष है। जो अंग्रेज़ आज हमें सभ्यता का पाठ पढ़ाते हैं, वे भारत के इन योगदानों को शायद कभी समझ ही नहीं पाए होंगे। परंतु इज़रायल इन योगदानों को कभी नहीं भूला और आज भी भारतीय सैनिकों की स्मृति में इजरायल में 23 सितंबर को हाइफा डे के रूप में मनाया जाता है।

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