इस जगत में कभी किसी ने कल्पना नहीं की थी कि बिहार का एक देहाती रंगमंच पर अपनी रचनाओं, काव्यों गीतों आदि से धमाल मचा देगा। जी हां, हम बात कर रहे हैं बहुआयामी प्रतिभा के धनी भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) की, जो किसी भी पहचान के मोहताज नहीं हैं। भिखारी ठाकुर एक कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार, अभिनेता और न जाने किन किन कलाओं से परिपूर्ण थे। भिखारी ठाकुर को महान लोक नाटककारों-कलाकारों में से एक माना जाता हैं। इतना ही नहीं इनका नाम बिहार में नाच विधा के सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध कलाकार के रूप में भी विख्यात है। आज इन बेहतरीन रचनाकार के जन्मदिवस पर हम आपको इनके विषय में पूर्ण रूप से जानकारी देंगे।
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भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) का संपूर्ण जीवन
भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) का जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार के सारण यानी छपरा जिले के कुतुबपुर (दियारा) में हुआ था। इनके पिता का नाम दल सिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था। उनके पिता समेत पूरा परिवार अपनी जाति व्यवस्था के अंतर्गत कई कार्य करते थे। उस समय बिहार में नाई समाज का काम केवल उस्तरे से हजामत बनाना ही नहीं था बल्कि चिठी न्योतना शादी, विवाह, जन्म, एवं श्राद्ध आदि संस्कारों के कार्य भी किये जाते थे। पारिवारिक विप्पनता के कारण इनके पिता ने इनका नाम भिखारी रखा था।
परंतु कहते हैं न इंसान नाम से नहीं अपने काम से बड़ा बनता है। 9 वर्ष की आयु में भिखारी ठाकुर पहली बार स्कूल पढ़ने के लिए गए थे, लेकिन अगले एक वर्ष तक वो वर्णमाला का एक अक्षर भी सीख नहीं पाए थे क्योंकि उनका पढ़ाई में मन ही नहीं लगा था। कुछ समय तक वो गाय चराने का काम ही करते रहे। फिर जब वो थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने अपना खानदानी पेशा यानी कि लोगों की हजामत बनाना शुरू कर दिया। लेकिन ये काम भी उनको खास नहीं जमा क्योंकि उस व्यवस्था में उन्हें पैसे की जगह साल में एक बार फसल दी जाती थी और भिखारी ठाकुर को पैसे कमाने थे। इसी कारण उन्होंने शहर जाकर हजामत बनाकर अच्छी कमाई करने के विषय में सोचा। जिसके चलते वो पहले खड़गपुर और फिर मेदिनीपुर गए।
मेदिनीपुर आना भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) के जीवन की सबसे बड़ी घटना में से एक थी क्योंकि यही से उनको अपने अंदर के कलाकार के बारे में ज्ञात हुआ। वहां जब उन्होंने पहली बार रामलीला देखी तो उनके भीतर का कलाकार उफान भरने लगा। बस फिर क्या था उनके हाथ से उस्तरे छूट गया और मुंह से कविताओं का प्रवाह आना आरंभ हो गया। इसके बाद वो अपने गांव वापस आ गए और गांव में ही रामलीला का मंचन आरंभ कर दिया। लोगों को उनकी रामलीला बेहद पसंद आती थी, जहां भिखारी ठाकुर ये समझ चुके थे कि एक कलाकार के रूप में ही उनका भविष्य है। घरवालों के विरोध और अपनी उम्मीदों का दिया जलाते हुए ठाकुर का बेटा धीरे-धीरे बिहारी ठाकुर के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
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इन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर कहना सही नहीं
भिखारी ठाकुर को भोजपुरी के शेक्सपियर (अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्ध कवि) की भी संज्ञा दी जाती है, लेकिन शेक्सपियर और भिखारी ठाकुर की आपस में कोई भी तुलना नहीं की जा सकती है। क्योंकि भिखारी ठाकुर तो भिखारी ठाकुर है। वैसे भी इन दोनों का साहित्य काफी अलग-अलग था। साथ ही दोनों का रचना कर्म, परिस्थितियां अलग-अलग थीं। तो इसी वजह से भिखारी ठाकुर को उनके नाम से ही जाना जाना चाहिए। वहीं उनकी मूल पहचान होनी चाहिए।
उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी और इस कारण उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की मूल भाषा बनाई थी। भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) ने वर्ष 1917 में अपनी नाच मंडली की स्थापना की थी। भोजपुरी भाषा में बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी-बेचवा, भाई-बिरोध, पिया निसइल, गंगा-स्नान, नाई-बाहर, नकल भांड और नेटुआ सहित कई नाटक, सामाजिक-धार्मिक प्रसंग गाथा और गीतों की रचना भी की है। वहीं अन्य में शिव विवाह, भजन कीर्तन: राम, रामलीला गान, भजन कीर्तन: कृष्ण, माता भक्ति, आरती, बुढशाला के बयां, चौवर्ण पदवीआदि शामिल है।
भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों और गीत-नृत्यों के माध्यम से तत्कालीन भोजपुरी समाज की कई समस्याओं और कुरीतियों को बड़े ही सरल तरीके से प्रस्तुत करने का भी कार्य किया था। उनके नाच में बिदेसिया उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक माना जाता है। 1930 से 1970 के बीच भिखारी ठाकुर की नाच मंडली असम और बंगाल, नेपाल आदि कई शहरों में जाकर टिकट पर अपने नाच की प्रस्तुति करती थी। उनके गाने की आज के समय के भोजपुरी गानो से तुलना ही नहीं की जा सकती है क्योंकि आज के भोजपुरी गानों में तो केवल अश्लीलता ही दिखाई देती है। भोजपुरी के साहित्य में उनका योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है। राहुल सांकृत्यायन ने उनको ‘अनगढ़ हीरा’ और जगदीश चंद्र माथुर ने ‘भरत मुनि की परंपरा का कलाकार’ कहा था। इसके अलावा उन्हें और भी कई उपाधियां और सम्मान दिए गए हैं। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया है।
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नाटकों से किया सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार
भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) किताबी ज्ञान से भले ही अनभिज्ञ रह गए थे लेकिन उनकी लेखनी के पात्र और घटनाओं में उनका स्वयं की समझ का अनूठा सार मिलता है। भिखारी ठाकुर का रचनात्मक जगत बेहद सरल और देशज था। इसमें भिन्न भिन्न तरह की विषमताएं, सामंती हिंसा, मनुष्य के छल-प्रपंच आदि शामिल था। उन्होंने अपनी कलम की नोंक से जगत को एक अलग रूप में दिखाया था। उनकी भाषा चुहल, व्यंग्य और कमल की जादूगरी का ऐसा मिश्रण थी, जिससे सामान्य मनुष्य कहने से डरता है। भिखारी ठाकुर की रचनाएं ऊपर से जितनी सरल दिखाती है वो भीतर से उतनी ही जटिल होती है। उनकी रचनाओं के भीतर मनुष्य की चीख-पुकार का खास अनुभव मिलता है। उनकी रचनाओं से आपको अपने दु:खों से, प्रपंचों से लड़ने की एक अलग सी शक्ति मिलती हैं। भिखारी की रचनाओं में आपको शब्द ज्ञान से लेकर चिंतन के असीमित क्षेत्र का ज्ञान मिलेगा।
भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) द्वारा वर्षों पहले ही समाज को एक नयी चेतना मिली थी। ठाकुर को भोजपुरी भाषा के साथ-साथ संस्कृति का भी एक बड़ा वाहक माना जाता है। भिखारी ठाकुर पर सैकड़ों किताबें भी लिखी जा चुकी हैं, जिनमें उनकी रचनाएं और कुछ नाटकों के माध्यम से तत्कालीन बिहार का पूरा सामाजिक विवरण प्राप्त हो सकता है। क्यों उनके नाटकों में ऐसी समस्याओं पर बात की गयी है, जो आज भी समाज मे व्याप्त हैं जैसे- विस्थापन, स्त्री चेतना, वृद्धों, विधवाओं आदि। भिखारी ठाकुर का 84 वर्ष की आयु में 10 जुलाई 1971 को निधन हो गया था। उन्होंने जीवन से जो कुछ भी अर्जित किया था उसी की पुनर्रचना की थी । भिखारी ठाकुर के साहित्य की आवश्कता आज भी समाज को है। भिखारी ठाकुर अपने कला के माध्यम से आज भी पूरे विश्व में जीवित हैं।
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