ये भारत है, यहां हर जीव जन्तु में हम ईश्वर को ढूंढते हैं और उनका वंदन भी करते हैं। हम माटी को, पक्षियों को एवं अन्य जीव जंतुओं को बड़ी ही श्रद्धा से पूजते हैं। कण-कण में भगवान हैं के विचार को हम सनातनी अपने हृदय में धारण करते हैं। इसी तरह एक जीव है नाग, जी हां हम नागों की भी पूजा करते हैं, उनके लिए सम्मान का भाव रखते हैं, हम नाग पंचमी मनाते हैं। पालनकर्ता भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हैं, वहीं महादेव के गले के हार नागराज वासुकी हैं। परंतु क्या आपको पता है कि नागों (नागवंश का इतिहास) की उत्पत्ति कैसे हुई?
हम नागों के जीवन पर एक विस्तृत शृंखला लेकर आए हैं जिसके प्रथम भाग में हम आपको बताएंगे कि (नागवंश का इतिहास) नागों की उत्पत्ति कैसे हुई।
महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू और विनता
महर्षि कश्यप जिनकी अनेक पत्नियां थीं, उनमें से दो थीं विनता और कद्रू। दोनों रूपवती एवं गुणवती थीं और दोनों के बीच एक दूसरे के लिए प्रतिस्पर्धा का भाव था। इसी प्रतिस्पर्धा में उन्होंने महर्षि कश्यप की खूब सेवा की जिससे प्रसन्न होकर महर्षि कश्यप ने वर मांगने को कहां जिस पर कद्रू ने अत्यंत बलशाली एक सहस्त्र पुत्रों का वरदान मांगा। वहीं विनता ने वरदान में केवल दो पुत्र ही मांगे परंतु इतने शक्तिशाली और प्रभावी कि उनके व्यक्तित्व से कद्रू के पुत्र तक विचलित हो जाएं। महर्षि कश्यप ने दोनों को तथास्तु! कहा।
परिणामस्वरूप कद्रू ने एक अंडा दिया और विनता ने दो अंडे उत्पन्न किए। तय समय के बाद कद्रू के अंडे के फूटने से एक सहस्त्र नाग पुत्र निकले जिसके बाद नाग लोक का सृजन हुआ। परंतु ये क्या-विनता के अंडे फूटने में तो और अधिक समय लग रहा था। सालों बीत गए लेकिन विनता के अंडे फूटे ही नहीं तो अधीरता में विनता ने अपने एक अंडे को फोड़ दिया जिसमें से उनका एक पुत्र निकला जो पूर्ण रूप से विकसित नहीं था, एक ऐसा बलशाली पुत्र जिसके कमर के नीचे का भाग पूरी तरह से विकसित ही नहीं था। उस बालक ने जो कि अरुण देव हैं उन्होंने अपने माता से कहा कि आपने ये क्या किया लेकिन जो मेरा छोटा भाई है उसे पूर्ण विकसित होने दें। इतना कहकर अरुण देव सूर्यदेव के पास चले गए और उनके सारथी बन गए।
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कद्रू और विनता में विवाद
समय बीतता गया विनता का दूसरा अंडा अभी भी नहीं फूटा। इसी समय समुद्र मंथन हो रहा होता है जिसमें से कई रत्न निकलते हैं, एक उच्चैःश्रवा नामका अश्व भी निकला जो तेजस्वी और श्वेतवर्ण का था। इधर कद्रू और विनता में विवाद शुरू हो गया कि उच्चैःश्रवा की पूंछ किस वर्ण का है। विनता ने कहा अश्व श्वेत है, तो उसकी पूंछ भी श्वेत ही होंगी, परंतु कद्रू ने कहां पूंछ काली है। अंततः दोनों में शर्त लगी कि जिसकी बात सही नहीं निकली उसे दूसरी की दासी बनना होगा।
कद्रू ने पहले ही अपने पुत्रों को अश्व की पूंछ से लिपटने की आज्ञा दे दी थी, पहले तो नाग इस अनुचित कार्य के लिए माने नहीं लेकिन कद्रू ने जब सबको जलाकर भस्म कर देने की बात कही तो एक नाग को छोड़ सबने विवश होकर आज्ञा का पालन किया और अश्व के पूंछ से जाकर लिपट गए। इस तरह अश्व की पूछ काली दिखाई देने लगी। अतः एक षड्यंत्र के तहत विनता कद्रू की दासी बन गयी, वहीं उसका आने वाला पुत्र भी कद्रू और उसके पुत्रों का दास होता।
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कद्रू का छल
और समय बीता, विनता का दूसरा पुत्र भी उत्पन्न हुआ, जो अति तेजस्वी और बलशाली थे। विनता के ये पुत्र और कोई नहीं पक्षीराज गरुड़ हैं। माता और गरुण दोनों ही कद्रू के दासत्व में थे। एक समय कद्रू ने गरुड़ से अपने पुत्रों को घुमाने के लिए कहा, नागों को घुमाने के पश्चात क्रोधित गरुड़ ने कद्रू से उन्हें और उनकी माता को दासत्व से मुक्त करने को कहा। इस पर सर्वसम्मति से कद्रू एवं उनके नाग पुत्रों ने कहा कि यदि तुम हम लोगों के लिये अमृत कलश ले आओगे तो हम तुम्हें और तुम्हारी माता को मुक्त कर देंगे।
फिर क्या था, पराक्रमी, शक्तिशाली और मातृभक्ति से ओतप्रोत गरुणदेव ने स्वर्ग पहुंचकर देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं को हराते हुए सुरक्षा घेरे तो तोड़ते हुए अमृत कलश को उठा लिया और नागों को देने चल पड़े। यहां इंद्र को हरा देने के पीछे भी एक कथा है- एक समय महर्षि कश्यप एक महायज्ञ कर रहे थे, जिसमें देवगण एवं ऋषि अपनी श्रद्धाअनुसार संविधा [आहुति] ले जा रहे थे। इसी बीच देवराज इन्द्र ने संविधा ले जा रहे अंगूठे जितने छोटे-छोटे बालखिल्य ऋषियों का उपहास उड़ाया जिससे क्रोधित ऋषियों ने इंद्र को श्राप दिया कि एक दिन उसका सिंहासन छीन लिया जाएगा। वहीं, कश्यप ऋषि के समझाने पर क्रोधित ऋषियों ने कहा कि कुछ समय के लिए तुम्हारा सिंहासन छीन लिया जाएगा, ऐसा करने वाला भी अपने क्षेत्र का इंद्र ही होगा। ऐसा करने वाले और कोई नहीं गरुड़ देव ही थे।
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गरुड़ देव का पराक्रम
वर्तमान में आते हैं- गरुड़ देव अमृत कलश स्वर्ग से लेकर जा ही रहे थे कि भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हुए और गरुड़ देव के पराक्रम से प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा। इस पर गरुड़ देव ने भी कहा कि मैंने भी आपकी वीरता के बारे में सुना है आप भी मुझसे कोई वर मांगिए। गरुड़ देव ने वर मांगा कि वह सदैव नारायण के ऊपर रहें, वहीं भगवान विष्णु ने कहा, “मैं चाहता हूँ कि तुम सदैव मेरे नीचे रहो। इस तरह नारायण की ध्वज पर गरुड़ चिह्न स्थापित हुआ और गरुड़ देव स्वयं भगवान विष्णु के वाहन बन गए।
अब भगवान विष्णु ने कहा, “मित्र! आप इस अमृत कलश को मुझे दे दें क्योंकि नागों ने अमृत पी लिया तो संसार नागों से भर जाएगा। लेकिन गुरुड़ ने अपनी माता को दासता से मुक्त कराने की बात कही तो भागवान विष्णु ने सुझाया कि नागों ने आपसे अमृत कलश लाने को कहा है न कि अमृत पिलाने को। अमृत कलश ले जाओ और नागों से कहो कि वो स्नान करके ही अमृत पी सकते हैं। बाकी सब देवराज इन्द्र पर छोड़ दो।
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नागवंश का इतिहास- नागों की जीभ का हुआ दो भाग
योजना के तहत जब नाग अमृतपान से पहले नदी में स्नान के लिए गए तो इधर कलश को तीखे कुशा घास पर रखा गया जिसे इन्द्र उछाकर ले जाने लगे। ऐसा करते हुए नागों ने देख लिया और उनका इन्द्रदेव के साथ झड़प शुरू हो गया लेकिन इन्द्रदेव अपना कार्य करने में सफल रहें। परंतु इसी झड़प में अमृत की कुछ बूंदें कुशा पर गिर गयी थीं जिसे कुछ नाग चाटने लगे जिससे उनकी जीभ के दो भागों में बंट गयी। आज भी हम देखते हैं कि नागों की जीभ दो भागों में बंटी होती है। वहीं जिन नागों ने अमृत चाटी वो अमर हो गए- जैसे तक्षक, वासुकी आदि।
माता कद्रू के अधर्म में उनका साथ नहीं देने वाले और कोई नहीं आदिशेष थे जो भगवान नारायण के अन्नय भक्त हैं और उनकी शैय्या पर ही भगवान नारायण विश्राम करते हैं। शेषनाग के भार पर ही सम्पूर्ण पृथ्वी टिकी है। नागों की कथा (नागवंश का इतिहास) यहीं समाप्त नहीं होती। अगले भाग में हम आगे कथा लेकर आएंगे।
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