पांच हिन्दी साहित्य के रत्न, जिनके फिल्म एवं टीवी रूपांतरण ने उन्हें बर्बाद कर दिया

ये पांच हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट रचनाएं हैं पर इनकी चमक को उन्हीं पर बनी फिल्म और टीवी रूपांतरण ने उन्हें धूमिल कर दिया।

Source- TFI

साहित्य उस अक्षय पात्र समान है, जिससे आप कितना भी ग्रहण करें, उस पात्र में व्यंजन अथवा सामग्री की कोई कमी नहीं रहेगी। अब इसी साहित्य को जब नाट्य मंच अथवा चलचित्र के माध्यम से कोई जनता के एक विशाल वर्ग तक अपनी पहुंच बढ़ाना चाहता है, तो वो रोचक भी है और जोखिम से परिपूर्ण भी। कभी कभी तो हमें रत्न मिल ही जाते हैं, पर कई बार ऐसा भी हुआ है कि रचनात्मक स्वतंत्रता यानि Creative Liberty के नाम पर उपन्यास या कथा के मूल भावना के साथ ही खिलवाड़ किया गया है और ये खिलवाड़ न केवल क्रोधित करता है, अपितु साहित्य जगत के लिए भी उतना ही हानिकारक है।

और पढ़ें: मुग़ल-ए-आज़म ऐतिहासिक फिल्म के ऊपर सेक्युलर मजाक है

चंद्रकांता 

आजकल कई शो बेहद निकृष्ट होने के बाद भी ऐसे होते हैं कि सालों साल चलते रहते हैं। परंतु एक समय ऐसा भी था जब चैनल जनाक्रोश का सम्मान करते हुए उन धारावाहिकों पर रोक लगा देते थे, जिन्हें देख जनता खून की उल्टियां करने लगे। इन्हीं में से एक था चंद्रकांता। देवकीनंदन खत्री के इस बहुचर्चित उपन्यास की लोकप्रियता कितनी थी, ये आपको इस बात से पता चलेगा कि इसे देश के कोने कोने में भिन्न भिन्न भाषाओं में अनुवादित करने के लिए लोग तैयार थे, ताकि समझ सकें कि आखिर कैसी रचना है यह?

परंतु जब नीरजा गुलेरी ने इसे टीवी पर रूपांतरित किया, तो जनता चकित होने से अधिक क्रोधित हुई कि ऐसा विश्वासघात? वीर सिंह, जो मूल उपन्यास की आत्मा समान थे, उन्हें कुछ ही दृश्यों तक सीमित कर दिया। अय्यार अथवा गुप्तचरी एवं अभियांत्रिकी का जो चित्रण मूल उपन्यास में किया था, उसका अंश मात्र भी इस धारावाहिक में देखने को नहीं मिला। इसके अतिरिक्त मूल उपन्यास के ठीक विपरीत जिस प्रकार का तुष्टीकरण धारावाहिक में किया गया है, उसे देख तो देवकी नंदन खत्री भी पुनर्जीवित होकर नीरजा गुलेरी एवं उनके सहकर्मियों को दौड़ा देते।

चित्रलेखा

बहुचर्चित रचनाकार भगवती चरण वर्मा द्वारा रचित “चित्रलेखा” 1934 में प्रकाशित हुई थी। मौर्यकाल में रचे बसे इस पुस्तक में मानव जीवन के लगभग हर रस का वर्णन किया गया है और इसके दार्शनिक विचार यदि कोई पढ़ लें, तो वह इस उपन्यास से अभिभूत हो जाए। मूल कथा एक प्रेम त्रिकोण है, जिसमें एक योगी और एक योद्धा एक अतिसुन्दर नृत्यांगना चित्रलेखा से मोहित हो जाते हैं।

केदार शर्मा ने इसका फिल्मी रूपांतरण किया था, वो भी एक नहीं दो बार- 1941 और 1964 में। परंतु जहां 1941 में उनकी फिल्म काफी सफल रही, जनता को 1964 का संस्करण बिल्कुल नहीं भाया, वो भी तब इसके गीत शुद्ध हिन्दी में लिखे थे। ये फिल्म कलर में बनी थी और इसमें मीना कुमारी जैसी अभिनेत्री चित्रलेखा का किरदार निभा रही थी और उनका साथ दे रहे थे अशोक कुमार एवं प्रदीप कुमार जैसे किरदार।

और पढ़ें: Qala Review: लंबे समय बाद बॉलीवुड की एक बेहतरीन फिल्म, दशक का सबसे अच्छा संगीत

वैशाली की नगरवधू

जब रचनाकार यह कह दें कि इस रचना को छोड़ उनके किसी अन्य कृति पे ध्यान न दिया जाए, तो समझ लीजिए कि मूल रचना कितनी आकर्षक रही होगी। लिच्छवी साम्राज्य की सबसे सुंदर कन्याओं में से एक माने जाने वाली आम्रपाली पर कई नाटक और रचनाएं रची गई, परंतु सबसे लोकप्रिय बनी आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा रचित “वैशाली की नगरवधू”, जो 1948-49 में दो भागों में आई थी।

परंतु इसके फिल्मी अथवा टीवी रूपांतरण वह लोकप्रियता कभी नहीं बटोर पाए जो मूल उपन्यास ने प्राप्त की थी। आम्रपाली को चित्रित करने का बीड़ा दो प्रमुख अभिनेत्रियों ने अलग अलग समय उठाया– वैजयंतीमाला (1966 में) एवं हेमा मालिनी (1980 के दशक में)। परंतु दोनों ही मूल उपन्यास को न्याय देने में सफल नहीं हो पाए और “वैशाली की नगरवधू” को आज भी वह सम्मान नहीं मिल पाया, जिसके लिए ये रचना योग्य है।

गुनाहों का देवता 

जैसे लोग एक समय “चंद्रकांता” पढ़ने हेतु लालायित रहते थे, वैसे ही एक समय “गुनाहों का देवता” पढ़ने / खरीदने के लिए लंबी लंबी लाइन लग जाती थी। धर्मवीर भारती द्वारा रचित यह उपन्यास मानव संबंधों, विशेषकर प्रेम और उसके विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालती थी, जो 1949 में प्रकाशित होते ही धूम मचाने लगी और उस समय धर्मवीर मात्र 23 वर्ष के थे। लोग इस बात के लिए उत्सुक रहते थे कि यदि इसे कभी फिल्म या टीवी में रूपांतरित किया गया, तो कितना बवाल मचाएगी।

और पढ़ें: “दृश्यम में अजय देवगन महिला विरोधी हैं”, वामपंथियों की अपनी अलग ही ‘दृश्यम’ चल रही है

परंतु ऐसा कुछ नहीं हो सका। जब 1969 में एक फिल्म बन रही थी, तो उसमें अमिताभ बच्चन एवं जया भादुड़ी (अब बच्चन) प्रमुख भूमिकाओं में थे। परंतु ये फिल्म कभी पूरी नहीं हो सकी। 1967 में एक फिल्म और 2009 के आसपास एक धारावाहिक भी इसी नाम से आया, परंतु इनका मूल कथा से कोई वास्ता नहीं था। अंत में 2015 में मूल उपन्यास पर आधारित एक सीरियल प्रसारित हुआ, जिसका नाम था “एक था चन्दर, एक थी सुधा”, परंतु इसे भी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं मिली।

गबन

मुंशी प्रेमचंद से कौन परिचित नहीं है? हिन्दी साहित्य के पुरोधाओं में से एक इस रचनाकार के कथाओं से आप सहमति रखते हो या नहीं, ये आपका निजी विचार है, परंतु इसमें कोई दो राय नहीं है कि इनकी कुछ रचनाओं को आप अनदेखा नहीं करना चाहिए, विशेषकर “गबन” जैसी रचनाओं को। एक व्यक्ति अपने आप को समृद्ध समाज में सम्मिलित करने हेतु किस हद तक जा सकता है, गबन इसी का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

परंतु जो प्रभाव मुंशी प्रेमचंद के इस उपन्यास ने डाला था, वो प्रभाव 1966 में प्रदर्शित इसके फिल्मी रूपांतरण में नहीं दिख पाया। इस फिल्म में सुनील दत्त भी थे और साधना भी, परंतु ये फिल्म जनता को प्रभावित करने में असफल रही।

और पढ़ें: भारत के वास्तविक ‘सुर सम्राट’- न वो इलैयाराजा थे न एमएम कीरावाणी और एआर रहमान तो बिल्कुल भी नहीं

https://www.youtube.com/watch?v=A5ozvOcVhSg

TFI का समर्थन करें:

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।

Exit mobile version