“जगन्नाथ मंदिर में गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है,” राज्यपाल महोदय टिप्पणी करने से पहले मान्यताएं जान लीजिए

भगवान जगन्नाथ मंदिर की प्रवेश प्रक्रिया के बारे में यहां विस्तार से जानना होगा ताकि समझा जा सके कि राज्यपाल गणेशी लाल ने जो टिप्पणी की है उसका कोई औचित्य ही नहीं है।

जगन्नाथ मंदिर प्रवेश प्रक्रिया

SOURCE TFI

जगन्नाथ मंदिर प्रवेश प्रक्रिया: ओडिशा का जगन्नाथ मंदिर अपनी भव्यता और अपनी अद्भुत रथ यात्रा के लिए दुनियाभर में जाना जाता है। यह मंदिर हिंदुओं के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है। यही नहीं ओडिशा के लोग कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान जगन्नाथ का आशीर्वाद अवश्य लेते हैं। लेकिन ओडिशा का जगन्नाथ मंदिर इन दिनों अपनी भव्यता या अद्भुत रथ यात्रा के चलते नहीं बल्कि वहां के राज्यपाल गणेशी लाल के विवादित बयानों के चलते चर्चा में है। वर्षों से चली आ रही जगन्नाथ मंदिर की प्रवेश प्रक्रिया पर उन्होंने टिप्पणी की है जिसके बाद सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से लेकर आम जनता तक गणेशी लाल की जमकर आलोचना कर रही है।

आज के इस लेख में हम भगवान जगन्नाथ मंदिर की प्रवेश प्रक्रिया के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए जानेंगे कि मंदिर की प्रवेश प्रक्रिया क्या है और राज्यपाल गणेशी लाल ने जो टिप्पणी की है वो उचित है या नहीं।

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जगन्नाथ मंदिर की प्रवेश प्रक्रिया

दरअसल, बीते सप्ताह गुरुवार यानी 12 जनवरी को ओडिशा के राज्यपाल गणेशी लाल ने भुवनेश्वर के “उत्कल विश्वविद्यालय” में आयोजित विजन कॉन्क्लेव में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि पुरी के जगन्नाथ मंदिर में सिर्फ हिंदुओं को नहीं बल्कि दूसरे धर्म के लोगों को भी प्रवेश मिलना चाहिए। यही नहीं उन्होंने मंदिर में विदेशियों के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध को भी हटाने के लिए कहा।

वास्तव में जगन्नाथ मंदिर की स्थापना के बाद से ही मंदिर में गैरहिंदुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध है। ऐसे में ओडिशा के राज्यपाल गणेशी लाल का टिप्पणी करना उड़िया लोगों को नहीं भाया और सोशल मीडिया पर लोग कहने लगे कि राज्यपाल साहब को बोलने के पहले एक बार भगवान जगन्नाथ के मंदिर की परंपराओं के बारे में जान लेना चाहिए। यहां पर इस मुद्दे को और अच्छे से समझने के लिए पहले जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियों की उत्पत्ति के बारे में जान लेना होगा।

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अंतिम संस्कार

महाभारत के छत्तीस वर्ष बाद, भगवान श्री कृष्ण ने जब एक शिकारी के तीर से घायल होकर पृथ्वीलोक का परित्याग किया तो उनके शरीर का अंतिम संस्कार अर्जुन ने किया, लेकिन भगवान का पूरा शरीर राख में बदल गया लेकिन उनका हृदय जीवित ही रहा और धड़कता रहा, अर्जुन ने इसे समुद्र में विसर्जित कर दिया। हृदय कई वर्षों तक समुद्र में तैरता रहा और एक नीले रंग की मूर्ति में परिवर्तित हो गया। इस मूर्ति को हिंदू धर्म में नीलमाधव के नाम से जाना जाता है। यह मूर्ति तैरते-तैरते द्वारका से पुरी के पूर्वी तट तक पहुंच गई। वहां इस मूर्ति को कलिंग के विश्ववासु नामक एक आदिवासियों के सरदार ने प्राप्त किया और इसे एक गुफा में रखवा दिया।

कंलिग के राजा इंद्रदुयुम्न ने जब इस मूर्ति के बारे में सुना तो उन्हें मूर्ति को प्राप्त करने की चाह होने लगी। इसलिए उन्होंने अपने मंत्री विद्यापति को भेजा। विद्यापति को विश्ववासु की बेटी से प्रेम था और उसने विश्ववासु की बेटी से विवाह करने के बदले मूर्ति को एक बार देखने की शर्त रखी लेकिन वह मूर्ति को देखने के बाद लौट न सका। तब कुछ दिनों बाद, राजा इंद्रदुयुम्न मूर्ति को प्राप्त करने के लिए अपनी विशाल सेना के साथ वहां पहुंचे लेकिन उन्होंने जब उस गुफा में भीतर जाकर देखा तो मूर्ति वहां नहीं थी। राजा आश्चर्य चकित हुए और अपनी करतूत पर पछतावा करते हुए क्षमा-याचना की और अपने राज्य लौट गए।

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जब राजा को आया सपना

राजा को इसके बाद सपने में एक दिव्य आवाज ने पुरी के समुद्र तट पर जाने के लिए कहा, जहां उसे भगवान विष्णु के निशान वाली एक लकड़ी की वोट (लकड़ी का लट्ठा) मिलेगा। भविष्यवाणी के अनुसार, राजा को शंख के निशान के साथ एक लकड़ी मिली, यह भगवान कृष्ण का हृदय था जो पहले नीलमाधव में बदल गया था और बाद में लकड़ी में बदल गया।

राजा ने इसके बाद पुरी में एक मंदिर का निर्माण करवाया और मूर्तिकारों को इस लकड़ी से मूर्तियां बनाने के लिए कहा। लेकिन कोई भी उस लकड़ी पर एक निशान तक न बना सका। बाद में, एक बूढ़े आदमी ने दावा किया कि वह लकड़ी को मूर्ति बना सकता है लेकिन उन्होंने राजा के समक्ष एक शर्त रखी कि जब तक वह दरवाजा बंद करके मूर्ति बनाएंगे तब तक कोई भी उन्हें परेशान नहीं करेगा। लेकिन रानी गुंडिचा मंदिर के अंदर से आने वाली आवाज को छिपकर सुना करती थीं। एक दिन जब कोई आवाज नहीं आई तो राजा-रानी ने अंदर प्रवेश किया, दोनों ने पाया कि वहां कोई नहीं था। सिर्फ जगन्नाथ, बालभाद्र और सुभद्रा की अपूर्ण प्रतिमाएं बड़ी गोल आंखों और शरारती मुस्कुराहट के साथ वहां खड़ी थीं।

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जल्दबाजी पर पश्चाताप

राजा को अपनी जल्दबाजी पर पश्चाताप हुआ क्योंकि मूर्तियों के हाथ नहीं बने थे, इसीलिए राजा परेशान रहने लगे। लेकिन एक किंवदंति के अनुसार, भगवान जगन्नाथ ने राजा को एक दिन सपने में आकर कहा कि “मैं पूरे ब्रह्मांड को देख रहा हूं और ऐसा करना जारी रखूंगा, मैं चाहता हूं कि मेरे उत्साही भक्त ही मेरी देखभाल करें। यदि मेरे हाथ होंगे, तो आप लोग मेरे भरोसे हो जाएंगे इसलिए मैं चाहता हूं कि आप लोग आत्मनिर्भर हों और मुझे बचाने के लिए स्वयं मजबूत हों।”

इस प्रकार भगवान जगन्नाथ के मंदिर की स्थापना हुई और ओडिशा के लोग मानते हैं भगवान जगन्नाथ ने हमें अपने गौरव और भूमि की रक्षा करने के लिए चुना है इसलिए हम उसकी रक्षा करते रहेंगे।

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एक लंबा इतिहास

ये तो हुई भगवान जगन्नाथ की मूर्ति स्थापना की बात, अब जगन्नाथ मंदिर में गैरहिंदुओं के प्रवेश न करने के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो इसके पीछे एक लंबा इतिहास है जो हमें बताता है कि जिस व्यक्ति की किसी दूसरे धर्म में आस्था नहीं है तो वह मंदिर में जाकर उसे क्षति पहुंचाने और वहां की परंपराओं को भंग करने का प्रयास ही करेगा। उदाहरण के लिए इतिहास में जगन्नाथ मंदिर पर 20 बार आक्रमण किया गया था।

“मदला पानजी” नामक एक ऐतिहासिक अभिलेख के अनुसार, पहला आक्रमण, यवन सम्राट (संभवत: एक अरब देश का शासक) रक्ताबहू द्वारा किया गया था, जो 319-323 ईस्वी के दौरान राजा शोभनदेव के शासनकाल में हुआ था। मंदिर के पुरोहितों ने मूर्तियों का अपमान न किए जाने और आक्रमणकारियों से बचाए रखने के लिए स्वर्णपुर में एक बरगद के पेड़ के नीचे 150 साल तक मूर्तियों को दबा कर रखा था। इसके अलावा फिरोज शाह तुगलक, बंगाल सुल्तान के सेनापति इस्माइल गाजी जैसे कई मुस्लिम शासकों ने मंदिर पर आक्रमण किया था।

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मंदिर की परंपराएं

देखने वाली बात है कि गुरु नानक देवजी जैसे गैरहिंदुओं को जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश दिया गया था। ऐसा इसीलिए क्योंकि वे भगवान में आस्था रखने वाले और धर्म को मानने वाले थे फिर चाहे वह किसी भी रूप में मानते हों। लेकिन आज के समय में जो लोग हिंदू धर्म में आस्था नहीं रखते हैं उनका मंदिर में प्रवेश करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है क्योंकि जिस व्यक्ति की हिंदू धर्म में आस्था नहीं है वो कहीं न कहीं मंदिर की परंपराओं को नुकसान पहुंचाने का काम कर सकता है।

यदि ओडिशा के राज्यपाल गणेशी लाल की टिप्पणी को लेकर संक्षेप में कहा जाए तो उन्हें पहले जगन्नाथ मंदिर की परंपराओं और इतिहास के बारे में अध्ययन करना चाहिए ताकि वे ओडिशा के लोगों और देश के अन्य हिंदुओं की भावनाओं को समझ सकें और उनकी भावनाओं को आहत न करें।

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